16 अप्रेल 2022 एक ऐसा दिन, जब पूरे हिन्दू समाज को एक साथ अपने साधुओं के साथ हुए अन्याय के लिए आवाज उठानी थी, हम मौन थे! हम इस कदर मौन थे कि भूल गए थे कि दो बरस पहले कुछ हुआ भी था। और क्या वास्तव में वह हमारे अस्तित्व के लिए घातक था? क्या कुछ ऐसा हुआ था, जिसने हमें झकझोर कर रख दिया था? क्या कुछ ऐसा हुआ था जो नहीं होना चाहिए था? पर हम मौन रहे, हम विस्मृति का शिकार हैं।
पर हम पालघर भूल गए और रात होते होते दिल्ली में ऐसी घटना हुई, कि जिसके साए तले पालघर दब गया। एक और चोट दे दी गयी! दिल्ली में जहांगीरपुरी में हनुमान जी की शोभायात्रा पर हमला हुआ!
पालघर में जो भगवा वस्त्र पहने साधुओं के साथ हुआ, यदि वह किसी और धर्म के नेताओं के साथ हुआ तो क्या वह समुदाय उस घटना को भूल जाता? क्या वह यह भूल जाता कि उसे मात्र वस्त्रों से पहचान कर इस हद तक घृणा का निशाना बनाया गया कि मात्र डंडों और पत्थरों से मारा ही नहीं गया बल्कि पुलिस के सामने से उन्हें ले गए, पुलिस ने जाकर उन्हें उन हत्यारों के हाथों में सौंप दिया।
क्या इससे जघन्य कुछ हो सकता था? या हो सकता है? परन्तु फिर भी 16 अप्रेल आता है और चला जाता है, चेतना के स्तर पर हमें स्मरण नहीं रहता कि दो वर्ष पूर्व ऐसा कुछ हुआ था? ऐसा क्यों हो रहा है कि हम अपने साधुओं की हत्याओं के प्रति ही निरपेक्ष होते जा रहे हैं? जिन्होनें साधुओं को मारा था, उनके दिल में साधुओं से मुक्त होने का भाव था। साधुओं के प्रति इस हद तक घृणा व्याप्त थी, कि वह बस उस रंग से इस धरती को मुक्त कर देना चाहते थे।
पर वह घृणा हमें विचलित नहीं करती है। क्योंकि हमारी स्मृति में कहीं न कहीं यह बसा ही है कि साधु तो होते ही दुष्ट हैं। एक ऐसा नैरेटिव जिसे पहले अकादमिक रूप से पुष्ट किया गया और फिर फिल्मों एवं कहानी कविताओं के माध्यम से पुष्ट किया गया। हमारे ही भारत में एक ऐसा प्रदेश है जहाँ पर वर्ष 1964 में ही यह सगर्व घोषित किया गया कि “मात्र नागालैंड है जो साधुओं से सुरक्षित है!” यह अभी भी भारत सरकार की वेबसाईट indianculture.gov.in पर सगर्व उपस्थित है।

जब साधुओं से नागालैंड का सुरक्षित होना उपस्थित है तो ऐसे में किसी भी साधू की हत्या पर कथित शिक्षित समाज से कोई आवाज आएगी, यह अभी कल्पना ही है। अब जानते हैं कि इसमें लिखा क्या था! इसमें लिखा था कि “भारत साधु समाज के सचिव ने एक वक्तव्य में कहा है कि जवाहर लाल नेहरू एवं प्रख्यात मानवविद डॉ. वेरियर एल्विन के मध्य एक अनुबंध हुआ है, जिसमें यह कहा गया है कि राज्य में साधुओं का प्रवेश अब वर्जित है। उनका कहना था साधुओं को नागा लोगों के साथ संवाद स्थापित करने का कार्य करना चाहिए, जिससे भावनात्मक रूप से उन्हें साथ लाया जा सके, और इसके लिए नेहरू एल्विन अनुबंध को हर मूल्य पर हटाना ही चाहिए।“
पर एल्विन साधुओं को हटाना क्यों चाहते थे? उन्हें या फिर हिन्दू धर्म के शत्रुओं को साधुओं से घृणा क्यों है? दरअसल यह साधु और संत ही हैं, जिन्होनें बार बार आकर हिन्दू धर्म की रक्षा की है। लोगों को निराशा के अँधेरे से उबारा है, फिर चाहे वह महर्षि वाल्मीकि हों, आदि गुरु शंकराचार्य हों या फिर कालान्तर में भक्ति आन्दोलन में सूर, तुलसी, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु आदि! वह चेतना जागृत करने का कार्य करते हैं, और चेतना वह कैसे जागृत करते हैं? वह चेतना जागृत करते हैं घूम घूम कर!
एल्विन वेरियर जिन्हें भारत में कथित रूप से मानवविद कहा जाता है, उनका मुख्य कार्य मिशनरी का ही था, और यही कारण है कि उनका मुख्य जोर भारत की लोक परम्पराओं को पिछड़ा बताकर उन्हें अन्य प्रदेशों में फैलने से रोकना था और इसे मात्र साधुओं को ही रोककर किया जा सकता है। अपनी पुस्तक Myths of Middle India (मिथ्स ऑफ मिडल इंडिया) में तंत्र विद्या को चुड़ैल घोषित किया है। उसने इस पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि भारत की जो संस्कृति है वह केवल धार्मिक घुमक्कड़ों के कारण ही एक स्थान से दूसरे स्थान तक फ़ैल रही है। यही कारण था कि उसने श्रुतियों में स्थापित कथाओं को नष्ट करने का हर संभव प्रयास किया एवं स्वतंत्रता के उपरान्त जब उसे जवाहर लाल नेहरू ने पूर्वोत्तर भारत का अपना सलाहकार नियुक्त किया तो उसने अपना असली खेल खेला।
जब साधुओं के प्रति दुर्व्यवहार या कुटिल अवधारणाएं हमारी सरकार, हमारे एकेडमिक्स में हैं, यहाँ तक को कोचिंग चलाने वालों के दिल में भी, तो आप कल्पना कर सकते हैं कि क्यों साधुओं की हत्याओं पर न ही एकेडमिक्स में शोर होता है और न ही राजनेताओं में, और न ही हमारी न्यायपालिका सुनती हैं!
इस मामले में उच्चतम न्यायालय से पालघर के साधुओं के लिए सीबीआई की मांग करने वाले उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता शशांक शेखर ने ट्वीट किया कि
इस मामले में अधिकतर लोगों को न्यायालय से जमानत मिल चुकी है। और अब जब हमने पालघर भुला दिया तो उसी दिन दिल्ली में जहांगीरपुरी में हनुमान जी की शोभायात्रा पर उसी पैटर्न से हमला हुआ, जैसा हम पिछले दिनों रामनवमी पर देख चुके हैं। पर एक दिन हम यह हिंसा भी भूल जाएंगे क्योंकि हम विस्मृति के शिकार हैं!
रामनवमी पर हिंसा हुई, उसे देखकर पुलिस और प्रशासन को सजग रहना चाहिए था, परन्तु दिल्ली जो अभी दो साल पहले के दंगों के जख्म लिए बैठी है, वहां पर एक और घाव लग गया।
पैटर्न वही था, पत्थर वही थे, हथियार वही थे और नारे भी वही थे!
परन्तु फिर भी इस पत्थर बरसाती भीड़ के पक्ष में खड़े होने वाले लोग बहुत हैं, और पालघर के साधुओं के साथ खड़े होने वाले शून्य! इस नैरेटिव के युद्ध में हम कहाँ हैं, यह हमें देखने की आवश्यकता है!