समय बीतता जाता है और शेष रह जाता है तिथियों का एकांतवास! और वही तिथियाँ हममें आकर चेतना का विस्तार करती हैं। ऐसी ही एक तिथि है 10 मई की, जो हर वर्ष आकर उस धार्मिक और राजनीतिक चेतना को एक बार फिर से हमारे हृदय में उभरा जाता है, जिसने हमें एक समाज के रूप में जगाया था।
1857 का वर्ष हर वर्ष की तरह ही आया था, पर वह भारतीय इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में आने वाला था, जो यह बताने के लिए पर्याप्त था कि भारतीय मानसिक गुलामी को एक सीमा के बाद कंधे से झटक देते हैं, फिर चाहे परिणाम कुछ भी हो, वह स्वतंत्रता के लिए अपना शीश कटा सकते हैं। वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करते है, वह मरने के लिए तैयार रहते हैं। वह हारते नहीं हैं। हारना बल्कि सीखा ही नहीं है। तभी जब हर ओर से लार्ड डलहौजी उन्हें तोड़ने आया था तो वह एक बार फिर से तन गए थे। दरअसल कंपनी की विस्तारवादी नीतियों के कारण असंतोष अपने चरम पर तो था ही, पर लार्ड डलहौजी की दो नीतियों ने इस असंतोष में आग में घी डालने का काम किया।
वर्ष 1848 में भारत में कंपनी की कमान सम्हालने आए लार्ड डलहौजी का एक ही उद्देश्य था किसी न किसी प्रकार से भारत में फिरंगी शासन की स्थापना करना और इसके लिए उसने हर संभव कदम उठाए। जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण एवं भडकाने वाला कारक था “राज्य हड़प नीति एवं कुशासन नीति।”
राज्य हड़प नीति के अंतर्गत जिस अधिकार पर प्रहार किया वह यद्यपि राजनीतिक था, परन्तु उसके मूल में कहीं न कहीं धार्मिक हस्तक्षेप ही था। राज्य हड़प नीति में जिस अधिकार पर प्रहार किया गया था वह था गोद लेने के अधिकार पर। यह नीति बनाई गयी कि जो राज्य फिरंगी राज्य के आश्रित हैं, उन्हें दत्तक पुत्र का अधिकार नहीं है। जबकि हिन्दू धर्म में यह धर्म सम्मत है।
झांसी जैसे कई राज्यों को हडपने में यही क़ानून उत्तरदायी था।
राजा का देहांत निस्संतान होते ही अंग्रेजों की कुदृष्टि झांसी पर पड़ी, परन्तु रानी ने यह घोषणा की कि वह अपनी झांसी किसी को नहीं देंगी। इसीके साथ जैसे ही अवध के राज्य को कुशासन के आधार पर अंग्रेजी राज्य के अधीन किया तो असंतोष की आग भड़क उठी।
इसी के साथ एक और निर्णय था, जिसने हर जन मानस को उद्वेलित किया हुआ था और यह चिंगारी धीरे धीरे ही बढ़ रही थी। ब्रिटेन में हुई औद्योगिक क्रान्ति के कारण भारत मात्र एक ऐसा देश बनकर रह गया था जो केवल और केवल कच्चे माल के लिए प्रयोग किया जाता था।
दरअसल 1857 की क्रान्ति कोई अनायास घटना नहीं थी। वह वर्षों से चले आ रहे आक्रोश का प्रकटन था। 1857 से पहले कई विद्रोह हो चुके थे जैसे आदिवासी, सैनिक एवं किसान विद्रोह। परन्तु वह संगठित नहीं थे और कहीं न कहीं वह एकजुटता का संदेश देने में असफल रहे।
1857 का विद्रोह इस दृष्टिकोण से अलग था कि इसमें एक सामूहिक चेतना उपजी कि फिरंगी शासन भारत पर थोपा गया है और इस थोपे हुए अन्यायपूर्ण शासन को उखाड़ फेंकने के लिए जनता एक साथ आ गयी। हिन्दू और मुस्लिमों का भेद मिटा और एक आम दुश्मन को हराने के लिए एकजुट हो गए।
आज ही का दिन था जब 164 वर्ष पूर्व 10 मई 1857 को धन सिंह गुर्जर नामक सिपाही ने एक क्रान्ति का बिगुल फूंक दिया और अपने साथियों को जेल में छुड़ाया। सिपाहियों ने लोहे के सीखचें निकाल कर फेंक दिए और लुहारों ने बंदी सिपाहियों की बेड़ियाँ काट दीं। और फिर उन्होंने दिल्ली की ओर कूच कर दिया। और यज्ञ में आहुति देने के लिए हर कोई आ गया। किसान आ गए, आम जन आ गए और आ गई वेश्याएं भीं।
एक ऐसा अद्भुत नेतृत्व अंग्रेजों ने देखा जिससे उनके होश उड़ गए। लखनऊ में भी इसका रौद्र रूप देखने को प्राप्त हुआ था। एवं जो इसे मात्र सैनिक विद्रोह कहते हैं, उनकी काट तो एलेग्जेंडर डफ करते हैं। उन्होंने लिखा “यदि यह केवल सिपाहियों का विद्रोह होता तो हम उसे कुचल देते और उन्हें जनता की स्वीकृति नहीं प्राप्त होती, परन्तु कुचलना तो दूर वह और अधिक क्रियाशील हो गए।”
ऐसा नहीं था कि कोई भी क्षेत्र इससे अछूता रह गया था। झांसी के साथ ही सारा बुंदेलखंड खड़ा हो गया, और देखते ही देखते उन्होंने फिरंगियों को झुलसा दिया था।
“साझी शहादत के कुछ फूल-1857” नामक पुस्तक में इस विद्रोह के विषय में विस्तार से दिया गया है। उसमें लिखा है कि यह क्रान्ति मध्य भारत में भी फ़ैल गयी थी। एक ओर झांसी में रानी लड़ रही थीं तो वहीं मध्य भारत में रानी अवन्ती बाई भी अंग्रेजी सेना से लड़ रही थीं।
हर ओर से एक संगठित विद्रोह ने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी, यह विद्रोह इतना सशक्त था कि इसकी आग बुझाने में कंपनी को तीन वर्ष लग गए। परन्तु इस संग्राम ने कुछ मूलभूत बातों को स्पष्ट किया। यह स्पष्ट हुआ कि धार्मिक अधिकारों को भुलाकर कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता है एवं धार्मिक प्रतिबंधों का प्रतिकार हर मूल्य पर किया जाना चाहिए। अंग्रेजों ने शासन करने के लिए धार्मिक स्वतंत्रता को कुचलने का प्रयास किया, जिसका प्रतिकार हिन्दुओं ने अपनी समस्त शक्ति के साथ दिया, फिर चाहे उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार हो या फिर गाय की चर्बी से बने हुए कारतूस को मुंह से खींचने की बात हो।
आज की तिथि यह संकेत देती है कि अपनी राष्ट्रीय एवं धार्मिक पहचान की रक्षा के लिए भारतीय मानस कभी झुका नहीं है।
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