पिछले दिनों प्रकाशन उद्योग से जुड़ी हुई एक बड़ी खबर आई, जिसने सभी को हैरान और चकित कर दिया, इतना ही नहीं असमंजस में डाल दिया। अमेज़न ने westland प्रकाशन को बंद कर दिया। हालांकि ऐसा नहीं था कि उस प्रकाशन से कथित अच्छे लेखक नहीं जुड़े थे, बल्कि अमेजन westland के साथ तो बहुत ही अच्छे लेखक जुड़े थे, जिनकी पुस्तकें बेस्ट सेलर हुआ करती थीं, जिनमें अमिश त्रिपाठी से लेकर राम माधव और देवदत्त पटनायक और यहाँ तक कि स्मृति ईरानी भी सम्मिलित हैं।
फिर भी ऐसा क्या है कि यह वेस्टलैंड बंद हो गया? अमिश त्रिपाठी की हर पुस्तक लगभग बेस्ट सेलर रही है और वह युवाओं में बहुत लोकप्रिय भी हैं। एवं इसके साथ ही राम माधव, देवदत्त पटनायक और आकार पटेल जैसे लोगों का अपना बैकअप सिस्टम भी बहुत अच्छा है, परन्तु फिर भी वह बंद हो रहा है। आकार पटेल की पुस्तक तो अभी ही आई थी। जिसका नाम था “प्राइस ऑफ द मोदी इयर्स!”
अभी हाल ही में अरविन्द नारायण की पुस्तक India’s Undeclared Emergency: Constitutionalism and the Politics of Resistance भी जनवरी में आई थी।
तो ऐसा नहीं है कि केवल वाम लेखक ही प्रकाशित हो रहे थे, दक्षिणपंथी लेखक भी इस प्रकाशन से प्रकाशित हो रहे थे और उनका चेहरा थे अमिश त्रिपाठी और राम माधव तथा स्मृति ईरानी। परन्तु फिर भी इसे बंद कर दिया गया। इससे कई बातें स्पष्ट होती हैं कि कहीं न कहीं उस प्रयोजन को पूरा करने में कमी आई है, जिसे सोचकर यह उपक्रम टेकओवर किया गया था। कुछ न कुछ तो ऐसा है, जिसकी वास्तविकता बाहर आनी है। क्योंकि वह केवल सरकार विरोधी ही शीर्षक प्रकाशित करता हो, ऐसा जरा भी नहीं था।
ऐसा क्या हुआ है? क्या पाठकों की अभिरुचि में परिवर्तन आया है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर कोई बात नहीं कर रहा है क्योंकि ऐसा नहीं है कि भारत में पुस्तकें नहीं पढ़ी जा रही हैं? भारत में पुस्तकें पढी भी जा रही हैं और प्रकाशित भी हो रही हैं, क्या ऐसा है कि लाइब्रेरी और एक विशेष विचारधारा के लेखकों द्वारा भारत की जनता को बेवक़ूफ़ समझे जाने का भी असर प्रकाशन पर पड़ा है?
इसे ऐसे समझते हैं कि देवदत्त पटनायक, आकार पटेल जैसे लोगों का हिंदुत्व के प्रति विरोध और या कहा जाए कि घृणा सभी के समक्ष स्पष्ट है, तो क्या ऐसा हुआ है कि अब लोग इनका एजेंडा परक लेखन नहीं पढ़ना चाहते हैं? या फिर ऐसा हो रहा है कि पैसे देकर एक कृत्रिम शोर मचाया गया था, वह अब ढलान पर है? कुछ ही वर्ष पहले भारत में प्रकाशन उद्योग में बेस्टसेलर की अवधारणा को लाया गया था। हिन्दी में यह सब कुछ नया था परन्तु यह वेस्टलैंड द्वारा ही शायद आया था और जब भी यह सूची जारी होती थी तो उसमें एक बहुत बड़ा हिस्सा हिन्दयुग्मवेस्टलैंड का होता था।
इस पर बहुत विवाद हुआ था, परन्तु यह भी सत्य है कि इस बहाने कई नाम उभर कर आए थे। और कई अचानक से लोकप्रिय भी हुए थे। हालांकि हिन्दी में अभी भी नरेंद्र कोहली और सुरेन्द्र मोहन पाठक बिक रहे हैं। उनका अपना पाठक वर्ग है, जो उन्हें पढता है। इसलिए यह कहा जाना कि अभिरुचि बदल गयी है, यह गलत है। फिर ऐसा क्या हुआ है कि अमेजन ने वेस्टलैंड को बंद कर दिया?
इस विषय में लाइवमिंट लिखता है कि कहीं न कहीं पाठकों की प्राथमिकताओं में बदलाव आए हैं। और यही कारण है कि बेस्ट सेलर लेखकों की पुस्तकों की भी बिक्री बहुत कम हुई है। और इसमें विशेषकर अमिश त्रिपाठी और चेतन भगत की किताबों की बिक्री कम हुई है।
एक और बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि चेतन भगत हों या फिर देवदत्त पटनायक या फिर आकार पटेल, यह ऐसे लोग हैं जो भारत के बहुसंख्यक वर्ग को नीचा दिखाने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते हैं। तो ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि आखिर यह लोग किस के लिए लिख रहे हैं? क्या यह अंतर्राष्ट्रीय बाजार में वामपंथियों को रिझाने के लिए लिख रहे हैं, तो वहां के मूल वामपंथी ऐसा लिख ही रहे हैं, तो ऐसे में वह यहाँ से आयातित क्यों करेंगे और यदि यहाँ के वामपंथी लोगों के लिए लिख रहे हैं तो प्रश्न यह है कि इन्हें खरीदेगा कौन?
हिन्दू घृणा और सरकार को लाने वाले एक वर्ग के प्रति घृणा से भरी होती हैं कुछ पुस्तकें या लेखकों के निजी विचार
लेखक का एक पक्ष होता है कि वह सत्ता का विरोध करे, यह सही है, परन्तु यह कहीं नहीं लिखा है कि सत्ता का विरोध करते करते विपक्ष का माउथपीस बन जाए? कितने लेखक हैं जो भारतीय जनता पार्टी की सरकार के निर्णयों का विरोध करते करते विपक्ष का चेहरा बन गए? यदि आपको सत्ता से दूरी बनानी है तो उस व्यवस्था से दूरी बनानी होगी न कि दल विशेष से?
परन्तु भारत में ऐसा नहीं है। यहाँ पर सत्ता विरोध का अर्थ मात्र हिन्दू धर्म का विरोध और भारतीय जनता पार्टी का विरोध रह गया है, फिर ऐसे में जब कथित लेखक ऐसी एकतरफा विचारधारा से भरे बैठे हैं, तो इन्हें कौन पढ़ेगा?
जनता जो पढ़ना चाहती है, प्रकाशन उसे प्रकाशित करने को तैयार नहीं है
जनता अब वह नैरेटिव पढना चाहती है, जो अब तक उसके सामने नहीं प्रस्तुत किया गया। एक बात बार बार आती है कि कथित सेक्युलरिज्म का सारा बोझ केवल और केवल हिन्दुओं के कंधे पर लाद दिया गया है, तो ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि जिस हिन्दू समाज को आप अपमानित करते हैं, जिस हिन्दू समाज को आप कायर बताते हैं, जिस हिन्दू समाज को एक तरफ मुस्लिमों से नीचे दिखाते हैं और फिर उसे पिछड़ा भी बताते हैं तो वह आपकी किताब क्यों खरीदे?
क्या कोई ऐसा वर्ग होगा जो अपने लिए गालियाँ सुनने के लिए किताबें खरीदे? प्रश्न यहाँ पर उठता ही है कि जनता क्या पढ़ना चाहती है? जब से सरकारी लाइब्रेरी में खरीद को लेकर कडाई हुई है, तब से प्रकाशनों का बुरा हाल है। और हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों पर इतने विकृत रूप से लिखा जाता है कि लोग अब प्रश्न करने लगे हैं कि हम क्यों पढ़ें उन किताबों को जो राम जी और सीता जी को परस्पर प्रतिद्वंदी बनाकर ही प्रस्तुत कर देती हैं?
प्रश्न तो कई हैं इन प्रकाशकों से, जिनके उत्तर भी प्रकाशकों को ही खोजने हैं कि कब तक एजेंडा लेखन आप जबरन बेचते रहेंगे और कब तक वामपंथी एजेंडा लेखन को महान बताते रहेंगे?