23 जुलाई, याद करने का दिन है भारत के ऐसे लाल को, जिसने अंतिम समय तक स्वतंत्र रहना चुना। जो चेतना से स्वतंत्र थे, जिन्होंने गुलामी को माना तक नहीं! जिन्होनें अंतिम सांस तक स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया और देह को जीवित रूप में उन व्यक्तियों को स्पर्श नहीं करने दिया, जो इस देश की भूमि का शोषण कर रहे थे।
चन्द्र शेखर आज़ाद, जिन्होनें तब भारत भूमि को स्वतंत्र कराने हेतु अपना नाम आज़ाद रख लिया था, जिस उम्र में बच्चे मात्र अपने लिए सपने देखा करते हैं। पर वह तो कुछ अलग ही थी, वह तो स्वतंत्रता की वह लौ जलाने आए थे जो आने वाले समय में एक उदाहरण बननी थी। पंद्रह वर्ष की आयु में वह गांधी जी के आन्दोलन में झंडा लेकर कूद गए थे और पकड़ में आ गए थे। अंग्रेजों की अदालत में उन्हें पेश किया गया। और जब उनसे उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने कहा “मेरा नाम आज़ाद है!” आज़ाद को उसी समय पंद्रह कोड़े की सजा सुनाई गयी। पंद्रह कोड़े और वह भी बालक के! बालक आज़ाद ने कोड़े खाना स्वीकार किया।
बनारस जेल का जेलर सरदार गैंडा सिंह, उस बालक से बहुत प्रभावित हुआ। उसके दिल में चंद्रशेखर के लिए प्यार उमड़ आया। जब चंद्रशेखर आज़ाद को कोड़े पड़ रहे थे तो खुले मैदान में वह हर कोड़े पर वन्देमातरम कहते!
ऐसे आरम्भ हुई एक बालक के आज़ाद बनने की यात्रा! खाल उधड़ गयी थी और खून बहने लगा था, परन्तु चंद्रशेखर तो उस दिन आज़ाद बनकर मुस्करा रहे थे। उनकी आँखों में गर्व के आंसू थे। जैसे वह कह रहे हों कि माँ सब कुछ तुम्हारा है, यह खून, यह खाल, यह चमड़ी! सब कुछ!
समय के साथ समझ विकसित होती गयी और फिर उन्हें समझ आया कि इस दमन करने वाली अंग्रेजी सरकार के सामने कुछ ऐसा करना होगा, जिससे उसे यह समझ आए कि आम जनता उसके विरोध में जाकर खड़ी हो गयी है। और इसके लिए करना था कुछ ऐसा जो धमाके से किसी तरह से कम न हो।
फिर पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के साथ मिलकर काकोरी ट्रेन में डकैती डाली, जिससे एक तो उन्हें उनके अभियान के लिए धन मिले और इसकी गूँज पूरे विश्व में फैले। अंग्रेजों को यह पता चल सके कि अब वह इसलिए नहीं रह सकते हैं क्योंकि आम पढ़ा लिखा जन उनके खिलाफ खड़ा हो गया है। जैसे ही अंग्रेजों को यह पता चला कि यह कार्य पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन ने किया है वैसे ही अंग्रेजी सरकार ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल40 क्रान्तिकारियों पर सरकार के खिलाफ सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड की सजा सुनायी गयी। इस मुकदमें में 16 अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी का दण्ड दिया गया था।
आज़ाद ने पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को स्वयं से अलग होते हुए देखा, और फिर 19 दिसंबर, 1927 को पं. रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गयी थी। फांसी पर चढ़ते समय उन्होंने कहा था
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही रहे,
बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे
तेरा हो जिक्र या, तेरी ही जुस्तजू रहे।
और कहा , ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूं।
आज़ाद भी यही चाहते थे। काकोरी डकैती के बाद वह अंग्रेजों की निगाह में आ गए थे। पर वह भेष बदल कर रहते थे और सावधानी पूर्वक रहते थे। मगर ऐसा लगता था कि वह अधिक गुप्त रूप से रह नहीं पाएंगे। वर्ष 1927 में प्रशासनिक सुधारों के नाम पर बने साइमन कमीशन का विरोध पूरे भारत में शुरू हो गया था। लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध करते समय लाला लाजपत राय पर अंग्रेजों ने लाठी बरसाईं और उस समय लाला लाजपत राय ने कहा था “मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।“ 17 नवंबर 1928 को इन्हीं चोटों की वजह से इनका देहान्त हो गया।
इस घटना के बाद चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह सहित सभी देश प्रेमी क्रांतिकारी क्रोध से भर गए। शीघ्र ही उन्होंने इस लाठीचार्ज का आदेश देने वाले जेम्स ए स्कॉट को मारने की योजना बनाई। भगत सिंह ने यह जिम्मा अपने सिर लिया और परन्तु स्कॉट के बदले असिस्टेंट सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स क्रांतिकारियों का निशाना बन गए।
उसके बाद यह तय हो गया था कि आज़ाद और भगत सिंह का मार्ग अब सरल नहीं रहने वाला था। और फिर समय आया एक ऐसे धमाके का, जिसकी गूँज हर ओर जानी थी। सेन्ट्रल असेंबली में दो बिल पेश होने वाले थे- “जन सुरक्षा बिल” और “औद्योगिक विवाद बिल” जिनका उद्देश्य देश में उठते युवक आंदोलन को कुचलना और मजदूरों को हड़ताल के अधिकार से वंचित रखना था।
पंडित चंद्रशेखर आज़ाद बिलकुल भी इस पक्ष में नहीं थे कि यह बिल पारित हों। और फिर यह तय हुआ कि 8 अप्रैल 1929 को जिस समय वायसराय असेंबली में इन दोनों प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करें, तभी बम धमाका किया जाए। और भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ यह कार्य किया और खड़े रहे, भागे नहीं!
इसके लिए उन्हें हिरासत में ले लिया गया। और फांसी की सजा सुनाई गयी। आज़ाद इससे बहुत दुखी और परेशान थे और उनकी फांसी की सजा माफ़ कराने के लिए वह गणेश शंकर विद्यार्थी तक से मिल आए थे, वह हर संभव प्रयास कर रहे थे, परन्तु सफलता नहीं मिल रही थी। फिर जब वह इलाहाबाद में नेहरू जी से भेंट करने के बाद अल्फ्रेड पार्क में बैठे थे तभी किसी मुखबिर की मदद से उन्हें घेर लिया और फरवरी 1931 में भारत भूमि का यह बलिदानी अपनी जन्मभूमि की स्वतंत्रता के लिए बलिदान हो गया। पहले तो उन्होंने सामना किया, पर उनके पास जब एक ही कारतूस शेष रहा तो उन्होंने उससे अपने ही प्राण ले लिये, क्योंकि वह जीतेजी अंग्रेजों के हाथों नहीं पड़ना चाहते थे।
आज़ाद तो आज़ाद रहे और आज़ाद गए, परन्तु स्वतंत्रता के उपरान्त जितना सम्मान इन अमर बलिदानियों को मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। पंडित चंद्रशेखर आज़ाद को क्या वाम इतिहासकारों ने केवल इसलिए नहीं स्थान दिया कि वह धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे, और वह षड्यंत्रपूर्वक भी उन्हें अपने वाम खांचे में नहीं ले सकते थे? इसलिए जानबूझ कर उन्हें विमर्श से बाहर कर दिया! यह प्रश्न गाहे-बगाहे उठते रहते हैं। और उठने भी चाहिए, कि भारत भूमि को स्वतंत्र कराने का स्वप्न लिए, एक युवक, जिसने अपना जीवन बलिदान कर दिया, उनके संघर्ष को वह स्थान पुस्तकों और विमर्श में नहीं प्रदान किया, जितना मिलना चाहिए था।
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