मैं आईटी उद्योग में कार्यरत एक इंजीनियर हूँ। मैं एक दिन में ९ घंटे, महीने में २०० घंटे और वर्ष में लगभग २,४०० घंटे काम करता हूँ। कभी कभी, कुछ अतिरिक्त पैसों के लिए होली और दीवाली जैसी छुट्टियों के दौरान भी काम कर लेता हूँ।
मैं कभी सब्सिडी ना लेते हुए, कर्तव्यनिष्ठा से अपने करों का भुगतान करता हूँ। मेरे द्वारा इस्तेमाल होने वाला रसोई गैस सिलेंडर भी निजी विक्रेता से लिया जाता है, बनिस्बत के सरकारी रियायत के। चावल, आटा भी मैं पीडीएस दुकान से नहीं खरीदता, कोई सब्सिडी नहीं। मैं पेट्रोल पर उच्च टैक्स, वैट, सेल्स-टैक्स इत्यादि का भुगतान करता हूँ, लेकिन कभी इसका विरोध नहीं किया।
शिक्षा की बात करें, तो मैं सरकार द्वारा जारी रियायती शिक्षा का कभी लाभार्थी नहीं रहा। मेरा स्कूल एक निजी विद्यालय था और कॉलेज भी निजी इंजीनियरिंग कॉलेज था। निम्नमध्यम वर्गीय परिवार से होने के कारण, उच्च शिक्षा प्रदान करने में माता पिता के त्यागों से मैं भलीभाति परिचित था। मैं सरकार को अतिरिक्त इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने या मेरे शिक्षण शुल्क में छूट ना देने के बारे में कभी कुंठित नहीं रहा। इसके बजाय, सरकारी कालेज और रियायती शिक्षा ना मिलने का दोषी मैंने अपनी सामान्यता और असमर्थता को माना।
मैं हैदराबाद का निवासी हूँ, जहाँ पानी की विकट समस्या रहती है और मैं इस पर हर महीने 700 रुपये का भुगतान करता हूँ। मैं न तो मुफ़्त पानी और ना ही मुफ़्त बिजली उपलब्ध कराने की अपेक्षा सरकार से रखता हूँ। दिल्ली के कुछ मुफ्तखोरों के विपरीत, मैने ऐसे धूर्त को कभी वोट नही किया जो मुफ़्त में बिजली और पानी का वादा करते हों। मैं जानता हूँ कि समाजवाद एक व्यवहार्य प्रयोग नहीं है और इसे लंबे समय तक कायम नहीं रखा जा सकता है। यह विफल करने के लिए है और एक दिन यह विफल हो जाएगा।
इन सब के बावजूद कि सरकार मेरे लिए कुछ नही कर रही, मैने कभी भारत-विरोधी नारे नही लगाए और अगर देश को ज़रूरत पड़ी तो अपने खून की आखिरी बूंद तक दूंगा। जेएनयू में उन छात्रों की हिम्मत कैसे हुई इस तरह के नारे लगाने की – “भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी”!! कैसे वे कहते हैं कि “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह”, जबकि उनको सारी सुविधाएँ हमारे देश के द्वारा प्रदान की जा रही है।
दिल्ली जैसे महंगे शहर में मुफ्त शिक्षा, मुफ्त भोजन, मुफ्त आवास लेते हुए बकवास के नारे लगते हैं, और सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की खातिर हमें इसे बर्दाश्त करना पड़ता है?
एक सच्चे देशभक्त की तरह, जॉन एफ. कैनेडी ने कहा “न पूछो देश तुम्हारे लिए क्या कर सकता है, पूछो कि तुम देश के लिए क्या कर सकते हो”। भारत ही नहीं, बल्कि उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया भर में; देश का गौरव बढ़ने के लिए मेरे जैसे बहुत लोग हैं जो दिन-रात काम करते हैं, वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग हैं जो देश का खून चूसने और भारत विरोधी नारे लगाने मे विश्वास रखते हैं।
सुनो – आप कम्युनिस्टों, वामपंथी, छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों, अलगाववादियों … जब तक हम राष्ट्रवादी जीवित हैं, आप भारत को तोड़ने के अपने शैतानी मंसूबो में कभी कामयाब नहीं होगे।
२१वीं सदी मेरे जैसे लोगों की है, तुम जैसे झोला छाप की नहीं।