आज विश्व कविता दिवस मनाया जा रहा है. विश्व कविता दिवस के अवसर पर कई बातों को ध्यान में रखना चाहिए, कि कविता क्या है, कविता का प्रयोजन क्या था, और अब क्या रह गया है और क्या प्रगतिशील कविता वास्तव में प्रगतिशील है या फिर प्रगतिशीलता के नाम पर हिन्दुओं के विरोध में है? और कथित प्रगतिशील मुस्लिम कवि, इन्होनें प्रगतिशीलता के नाम पर क्या लिखा है?
पहले आते हैं प्रगतिशील साहित्य पर:
प्रगतिशील लेखक आन्दोलन अर्थात प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना लन्दन में भारतीय लेखकों और बौद्धिकों द्वारा वर्ष 1935 में की गयी, जिसमें उन्हें कुछ अंग्रेजी साहित्यिक व्यक्तियों का योगदान प्राप्त हुआ। मुल्क राज आनंद, सज्जाद जहीर और ज्योतिमाया घोष सहित कुछ लेखकों का समूह था, जिसने यह निर्धारित किया कि “भारतीय समाज में बहुत ही तेजी से बहुत अधिक परिवर्तन आ रहे हैं। ऐसे में हमारा यह मानना है कि भारत में जो साहित्य है (लिटरेचर) है, उसे मौजूदा समस्याओं का सामना करना चाहिए, भूख और गरीबी की समस्याएं, सामाजिक पिछड़ेपन की समस्याएं, और राजनीतिक दमन की समस्याओं पर बात करनी चाहिए। हमें जो भी पीछे की ओर खींचता है, हमें अकर्मण्य बनाता है और अतार्किक बनाता है हम उसे प्रतिक्रियावादी कहकर अस्वीकार करते हैं। हम केवल उसी को प्रगतिशील मानेंगे जो हमारे भीतर आलोचक की दृष्टि उत्पन्न करेगा और संस्थानों एवं परम्पराओं को तर्क से जांचने देगा!” इस समूह में ऑक्सफ़ोर्ड, कैम्ब्रिज और लंदन विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे, जो लंदन में माह में एक या दो बार मिलते थे और लेखों और कहानियों की आलोचना करते थे।[1]
यहाँ यह देखना दिलचस्प है कि वर्ष 1935 में कुछ ऐसे लेखकों ने, जिनके दिल में भारतीय लोक के विषय में पिछड़ापन या एक तरफ़ा सोच थी, उन्होंने अब तक के लिखे साहित्य को प्रतिक्रिया वादी कहकर जैसे खारिज कर दिया और उस समय हिन्दुओं या भारतीय लोक के प्रति जो मिशनरी दृष्टि या कथित वाम दृष्टि थी, उसे ही साहित्य का मुख्य आधार बना दिया।
आर्य और द्रविड़ सिद्धांत, जिसे इतिहास में अभी तक स्थापित नहीं किया जा सका है, उसे ही अकाट्य सत्य मानते हुए भारत के लिखित इतिहास जैसे रामायण, महाभारत, वेदों को मिथक की श्रेणी में डाल दिया गया एवं यहाँ तक कि जो भी साहित्यकार हिन्दू दृष्टि से या मुस्लिमों द्वारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचारों का उल्लेख करता था, उसे पिछड़ा कहकर त्याज्य माना जाने लगा।
इस संघ द्वारा एक अपील की गयी “”लेखक मित्रो ! हमारा क़लम, हमारी कला, हमारा ज्ञान उन शक्तियों के विरुद्ध रुकने न पाये जो मौत को निमंत्रण देती हैं, जो मानवता का गला घोटती हैं, जो रूपये के बल पर शासन करती हैं, और अंत में फ़ासिज़्म के विभिन्न रूप धारकर सामने आती हैं और अबोध जनता का खून चूसती हैं”
जैसे ही साहित्य में स्थानीय या देशज समस्याओं के स्थान पर दमन या अत्याचार की विदेशी परिभाषा आ गयी, वैसे ही भारत के एक वर्ग के साहित्य की दिशा निर्धारित हो गयी।
उर्दू साहित्य में कथित रूप से यह इन्कलाब आया था। फिर जब वर्ष 1936 में सज्जाद जहीर भारत में प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना का सपना लेकर आए तो वह मुम्बई में कन्हैया लाल मुंशी से भी मिले। परन्तु कुछ ही देर की ही बात-चीत में सज्जाद ज़हीर किस निर्णय पर पहुंचे स्वयं उन्हीं से सुनिए –
“हमें यह स्पष्ट हो गया कि कन्हैयालाल मुंशी का और हमारा दृष्टिकोण मूलतः भिन्न था। हम प्राचीन दौर के अंधविश्वासों और धार्मिक साम्प्रदायिकता के ज़हरीले प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे। इसलिए, कि वे साम्राज्यवाद और जागीरदारी की सैद्धांतिक बुनियादें हैं। हम अपने अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव प्रेम, उसकी यथार्थ प्रियता और उसका सौन्दर्य तत्व लेने के पक्ष में थे। जबकि कन्हैयालाल मुंशी सोमनाथ के खंडहरों को दुबारा खड़ा करने की कोशिश में थे।”[2]
अर्थात यह स्पष्ट होता जा रहा था कि यह जो कथित प्रगतिशील लेखक संघ था, उसका शिकार कौन बनने जा रहा था। हिन्दुओं को या हिन्दू विचारधारा को खलनायक बनाने की नींव डाली जा चुकी थी।
चूंकि इसमें उर्दू लेखक ही अधिक जुड़े थे, इसलिए हिन्दी वाले लेखक इसके साथ जुड़ने से कतरा रहे थे। परन्तु इसमें जैसे ही राजनेतिक हस्तक्षेप जैसे ही हुआ, वैसे ही परिदृश्य बदल गया। पंडित नेहरू ने अपने भाषण में कहा “कलाकार और साहित्यकार की एक अलग पहचान होती है और जिसमें यह पहचान नहीं है, मैं उसे कलाकार नहीं कह सकता। —————–यह पहचान यदि विकसित हो सकती है तो केवल समाज के समाजवादी ढाँचे में। यह कहना कि समाजवाद आकर हमारी पृथक पहचान को मिटा देगा, सर्वथा ग़लत है। आने वाले इंक़लाब के लिए देश को तैयार करना साहित्यकार की ज़िम्मेदारी है। आप जन-सामान्य की समस्याओं का समाधान कीजिए, उनको रास्ता बताइये, लेकिन आपकी बात उनके दिल में उतर जानी चाहिए। प्रगतिशील लेखक संघ एक बड़ी ज़रूरत को पूरी करता है और उस से हमें बड़ी आशाएं हैं”
पंडित नेहरू के भाषण का एक लाभ यह अवश्य हुआ कि वे लोग जो नेहरू जी के प्रति श्रद्धा रखते थे और प्रगतिशील सम्मेलनों में भाग लेने से कतराते थे, अब इस संस्था के लिए पर्याप्त नर्म पड़ गए।[3]
वर्ष 1949 के अपने अधिवेशन में पारित किए गए घोषणापत्र में यहाँ से यह कहा गया कि “प्रगतिशील साहित्यकार अतीत की संस्कृति और साहित्य के सच्चे वारिस हैं और वो मानव सभ्यता की श्रेष्ठ परम्पराओं को लेकर आगे बढते हैं। समाज के ऐतिहासिक विकास के परिदृश्य में वे अपनी सांस्कृतिक विरासत को आलोचनात्मक दृष्टि से मूल्यांकित करते हैं।”
जबकि वर्ष 1935 में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष के रूप में प्रेमचंद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि
“प्रगतिशील लेखक संघ’, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता।“
परन्तु जैसे जैसे एक विशेष राजनीतिक सोच आगे बढ़ती गयी, वह कहीं न कहीं उसी खांचे में साहित्य को ढालती गयी और प्रयोजन भी बदलते गए। यथार्थ के वर्णन के नाम पर उन रचनाकारों एवं रचनाओं का विरोध ही आरम्भ नहीं हुआ, जिनमें हिन्दुओं के साथ हुए अत्याचारों को बताया गया था, बल्कि उन्हें साहित्यकार के परिदृश्य से ही बाहर कर दिया गया।
ज्ञातव्य हो कि जब वर्ष 1935 में जहाँ एक ओर साहित्य को कथित प्रगतिशील बनाने के लिए सभ्यता से काटने की बातें हो रही थीं, तो वहीं उससे पहले राष्ट्रीय चेतना के तमाम कवि रचनाएं कर रहे थे। जिनमें जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान सहित तमाम कवि थे, जो यथार्थ को यथार्थ के रूप में व्यक्त कर रहे थे, इनके यथार्थ में औपनिवेशिक गुलामी या औपनिवेशिक दृष्टि का पुट नहीं था, जो बाद में प्रगतिशील साहित्य का पर्याय बन गया था। जयशंकर प्रसाद का यथार्थवाद हिन्दू लोक और मानस से जुड़ा हुआ यथार्थवाद था, जिसके हल किसी औपनिवेशिक अल्पसंख्यक वाद में नहीं थे, बल्कि इसी लोक में थे।
सुभद्राकुमारी चौहान का जो स्त्री विमर्श था, उसमें स्त्री लोक की स्त्री थी। उसकी पीड़ा लोक की पीड़ा थी। वह कहीं से थोपी गयी वाद की स्त्री नहीं थी। तभी उन्होंने वीर स्त्री झांसी की रानी के विषय में लिखा था.
अधिकांश प्रगतिशील मुस्लिम लेखक अपने समाज के लिए सॉफ्ट रहे और कट्टर मुस्लिम ही बने रहे
चूंकि प्रगतिशील लेखन का कथित आरम्भ ही उर्दू लेखकों के साथ हुआ था, तो कई मुस्लिम लेखक इसमें थे. उनकी दृष्टि क्या थी कि वह सोमनाथ विध्वंस आदि को बेकार मानते थे, उनकी दृष्टि में इस्लाम ने जो हिन्दुओं के साथ किया, वह सब बेकार की बातें थीं. उनकी दृष्टि में जो अभी हो रहा था, वही साहित्य था. यदि यह बात मान भी ली जाए, तो कथित प्रगतिशील फैज़ क्यों अल्लाह के राज में क्रान्ति खोज रहे हैं या फिर इकबाल क्यों शिकवा कर रहे हैं?
हम इसे केवल प्रगतिशील साहित्य तक ही रखेंगे, उससे पूर्व के मुस्लिम कवियों पर बाद के किसी लेख में बात करेंगे. अभी प्रगतिशील माने जाने वाले मुस्लिम कवि, प्रगतिशीलों में सबसे बढ़कर फैज़ को ही माना जाता है क्योंकि उन्हें पाकिस्तान में सजा हुई थी.
अब प्रश्न यह उठता है कि जो प्रगतिशील उर्दू कवि थे, जो कथित क्रांति किया करते थे, या जिन्होनें क्रान्ति की, वह पाकिस्तान क्यों चले गए? और जो भारत में रह गए वह भी कट्टर इस्लामी बन गए?
सबसे पहले फैज़ की बात! फैज़ की जो क्रांतिकारी नज्म है, हम देखेंगे, वह तो पूरी तरह से इस्लामी नज़्म है!

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
—–
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
इसमें कहा जा रहा है कि पाकिस्तानी हुकूमत का विरोध किया है. परन्तु पाकिस्तानी हुकूमत का विरोध करते हुए भी वह इस्लाम की उस कट्टरता से मुक्त नहीं हो पाए हैं जो बुत तोड़ने को फख्र की बात समझता है!
अब आते हैं इकबाल पर!

इकबाल के नाम पर उर्दू दिवस मनाया जाता है. जो बात सज्जाद जहीर कहते हैं कि सोमनाथ का तोड़ना याद रखना फ़िज़ूल बात है और सोमनाथ का इस्लामी कट्टरता के हाथों विध्वंस लिखने वाले कन्हैयालाल मुंशी को वह पिछड़ा मानते हैं तो वहीं प्रगतिशील कहे जाने वाले इकबाल सोमनाथ के विध्वंस को सगर्व याद रखते हैं:
क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह-ए-हयात में
बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल-ए-हरम के सोमनाथ!
अर्थात अब और गज़नवी क्या नहीं हैं? क्योंकि अहले हरम (जहाँ पर पहले बुत हुआ करते थे, और अब उन्हें तोड़कर पवित्र कर दिया है) के सोमनाथ अपने तोड़े जाने के इंतज़ार में हैं।
इकबाल की नज्म शिकवा को पढ़ा जाना चाहिए, जिसमें वह खुदा से शिकायत कर रहे हैं कि आखिर उसकी दुनिया में मुस्लिमों की यह स्थिति क्यों है? और वह खुदा से कह रहे हैं कि तुम्हारे लिए अगर किसी ने लहू बहाया है तो वह मुसलमान हैं, लोगों का उसके नाम पर कत्लेआम किया है, फिर भी आज मुसलमानों की यह हालत क्यों है?
जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को
है बजा शेवा-ए-तस्लीम में मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम
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बस रहे थे यहीं सल्जूक़ भी तूरानी भी
अहल-ए-चीं चीन में ईरान में सासानी भी
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी
इसी दुनिया में यहूदी भी थे नसरानी भी
पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किस ने
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किस ने
थे हमीं एक तिरे मारका-आराओं में
ख़ुश्कियों में कभी लड़ते कभी दरियाओं में
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हम से पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र
कहीं मस्जूद थे पत्थर कहीं माबूद शजर
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र
मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर
अर्थात वह लिखते हैं कि हम (मुसलमानों) के आने से पहले इस संसार का आलम अजीब था, कोई मूर्ती बनाकर पूजता था तो कोई कैसे। इंसान अपने देवताओं को अनुभव कर सकता था
फिर अनदेखे खुदा को क्यों कोई पूजता?
तुझ को मालूम है लेता था कोई नाम तिरा
क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तिरा
वह लिखते हैं:
किस की हैबत से सनम सहमे हुए रहते थे
मुँह के बल गिर के हू-अल्लाहू-अहद कहते थे
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
क़िबला-रू हो के ज़मीं-बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़
अर्थात किसके आतंक से मूर्तिपूजक सहमें हुए रहते थे और फिर मुहं के बल गिरकर अल्लाह एक ही है कहते थे।
खुद को अरबी बताते हुए कहते हैं कि अगर लडाई के बीच नमाज का समय आता था तो हम अरबी कौम वाले काबा जी ओर मुंह करके जमीन चूम कर नमाज पढ़ते थे!
और यही इकबाल ब्राह्मणों से क्या कहते हैं, वह सुनें:
सच कह दूँ ऐ बरहमन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम-कदों के बुत हो गए पुराने
अर्थात वह कह रहे हैं कि ऐ ब्राह्मण, तेरे मंदिरों के बुत पुराने हो गए है, क्योंकि वह अपनों से बैर कराते हैं!
और इकबाल खुद खुदा से शिकवा कर रहे हैं कि हमने आपके लिए इतना खून खराबा किया, फिर भी हम मुस्लिमों का यह हाल है!
यह उन मुस्लिम कवियों की रचनाएं हैं, जिन्हें प्रगतिशील लेखक संघ प्रगतिशील मानता था और यह दोनों ही पाकिस्तान चले गए थे क्योंकि उनकी निष्ठा अपने मजहब की ओर थी, कोई भी प्रगतिशीलता उन्हें उनकी मजहबी कट्टरता से डिगा नहीं पाई थी!
जो यहाँ रह गए थे, वह भी सैयदवाद से घिरे थे और उर्दू को तरक्की की भाषा मानते थे.
जोश मलीहाबादी, जो प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे, उन्होंने लिखा
क्या सिर्फ मुसलमानों के प्यारे हैं हुसैन,
चर्खे नौए बशर के तारे हैं हुसैन,
इंसान को बेदार तो हो लेने दो,
हर कौम पुकारेगी हमारे है हुसैन
जो हिन्दू वामपंथी कवि थे, उन्होंने ईश्वर पर ही प्रहार करके अपनी प्रगतिशीलता को चुना, जैसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, वह ईश्वर के विषय में क्या लिखते हैं:
बहुत बडी जेबों वाला कोट पहने
ईश्वर मेरे पास आया था,
मेरी मां, मेरे पिता,
मेरे बच्चे और मेरी पत्नी को
खिलौनों की तरह,
जेब में डालकर चला गया
और कहा गया,
बहुत बडी दुनिया है
तुम्हारे मन बहलाने के लिए।
मैंने सुना है,
उसने कहीं खोल रक्खी है
खिलौनों की दुकान,
अभागे के पास
कितनी जरा-सी पूंजी है
रोजगार चलाने के लिए।
तो जहाँ प्रगतिशीलता ने मुस्लिम रचनाकारों को और मजहबी और कट्टर बनाया, तो वहीं हिन्दू वामपंथी और कथित प्रगतिशीलों का पूरा जोर इसी बात पर रहा कि कैसे ईश्वर को चुनौती दी जा सके, कैसे प्रभु श्री राम या कृष्ण को झूठा ठहराया जा सके!
[1] https://www।open।ac।uk/researchprojects/makingbritain/content/progressive-writers-association
[2] https://web।archive।org/web/20160305121647/http://yugvimarsh।blogspot।com/2008/06/blog-post_14।html
[3] https://web।archive।org/web/20160305121647/http://yugvimarsh।blogspot।com/2008/06/blog-post_14।html