पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी से अफगानिस्तानी सिखों और हिन्दुओं का प्रतिनिधिमंडल मिलने गया था और भारत के प्रधानमंत्री ने उनके द्वारा लाई गयी पोशाक को पहनकर जैसे एकात्मकता का सन्देश दिया था। इन तस्वीरों का प्रतीकात्मक मोल क्या हो सकता है? पता नहीं! या फिर इनका कोई मोल ही नहीं है? क्योंकि जिसने उन्हें भगाया है, जिस विचार ने उन्हें भगाया है क्या उस विचार के विरुद्ध कोई कदम उठाए जा रहे हैं? क्या गिने चुने सिखों और हिन्दुओं को भगाने वाले तालिबान पर विश्व द्वारा कोई दंडात्मक कार्यवाही की जा रही है?
क्या संयुक्त राष्ट्र द्वारा यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि हिन्दुओं का दमन किसी भी इस्लामिक देश में न हो? यदि ऐसा नहीं है तो इन तस्वीरों का कोई मोल कैसे हो सकता है? क्या कभी उन कारणों पर बात होती है, जिनके चलते इन हिन्दुओं को यहाँ पर भागकर आना पड़ा? क्या कभी संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से उन हिन्दुओं के अपना देश, अपनी जमीन, अपना मकान छोड़कर भागने को लेकर चर्चा हुई, जो उन्होंने इस्लामिक कट्टरता के चलते छोड़े थे? अफगानिस्तान में एक भी हिन्दू नहीं है, और पकिस्तान से धीरे धीरे हिन्दू गायब हो रहे हैं। वह हिन्दू कहाँ जा रहे हैं?
खैर, आते हैं अफगानिस्तान से ही एक और समाचार से। जब भारत में इन अफगानी हिन्दुओं और सिखों का स्वागत उन्हीं के वस्त्रों की विशेष पहचान के साथ किया जा रहा था, उससे एक ही सप्ताह पहले उसी तालिबान ने, जिसने भारत की एक एक पहचान अपनी जमीन से मिटा दी, जिसने हिन्दू होने की हर पहचान खुरच कर मिटा दी है उसने अपनी एक सैन्य टुकड़ी का नाम “पानीपत” रखा है।
यह समाचार सभी के लिए चौंकाने वाला होना चाहिए था, परन्तु नहीं हुआ। इस समाचार पर चर्चा होनी चाहिए थी, परन्तु नहीं हुई। इस समाचार का सघन विश्लेषण होना चाहिए था, जो नहीं हुआ। आखिर क्या कारण है कि एक ओर तालिबान अपने मुल्क से एक एक करके हिन्दू पहचान मिटाता जा रहा है तो दूसरी ओर वह अपनी सैन्य टुकड़ी का नाम “पानीपत” रख रहा है? क्या उसे भारत से अतिशय प्रेम है?
फिर पानीपत नाम रखने का क्या औचित्य है? शायद नहीं!
पानीपत का इतिहास, तीनों ही युद्धों में भारत की अस्मिता बिखरी
पानीपत के तीन प्रमुख युद्ध हुए हैं। जिनमें प्रथम युद्ध हुआ था वर्ष 1526 में बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच में। और इस युद्ध के बाद मुग़ल वंश के भारत आने का मार्ग साफ़ हुआ था।
उसके बाद पानीपत का द्वितीय युद्ध तब हुआ था, जब हुमायूं को शेरशाह सूरी ने भगा दिया था और उसके बाद हुमायूं के बेटे अकबर और बैरम खान ने हेमू को परास्त किया था और हेमू को मारकर 13 या 14 वर्षीय अकबर ने गाजी की उपाधि धारण की थी।
परन्तु जिस युद्ध का यह लोग उल्लेख कर रहे हैं, जिसकी याद में तालिबान ने सैन्य टुकड़ी बनाई है वह है वर्ष 1761 में हुआ तालिबान युद्ध! इस युद्ध में अफगानी अहमद शाह अब्दाली और मराठा पेशवाओं के बीच भीषण संग्राम हुआ था। यह युद्ध कई मामलों में विशेष था, जिस कारण इसे याद रखा जा रहा है। इस युद्ध में अवध के नबाव शुजा-उद-दौला के साथ साथ गंगा के दोआब के रोहिला अफगान भी शामिल थे, परन्तु वह अपने देश, अपनी भूमि के साथ न होकर उस इस्लामी सेना के साथ थे, जो अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में आई थी।
एक ओर थे मराठा और दूसरी ओर अफगानिस्तान से आया हुआ अब्दाली और उसके भारत की जमीन के ही मददगार।
यह युद्ध बहुत भयानक हुआ था, और अहमद शाह अब्दाली की सेना और मराठों के बीच जनवरी 1761 को आमने सामने की लड़ाई हुई, जिसमें पहले दोपहर तक मराठा सेना प्रभावी रही, परन्तु शाम होते होते अब्दाली का पलड़ा भारी होने लगा और शाम 4 बजे तक युद्ध का परिणाम आ गया था और भारत के सपूतों को एक बार फिर से भितरघात के कारण पराजित होना पड़ा था। इस युद्ध में लाखों की संख्या में मराठा मारे गए थे। कुछ अहमद शाह अब्दाली की सेना के हाथों, तो कुछ भूख और ठंड से मारे गए थे।
हालांकि उसके दस वर्ष उपरान्त ही पेशवा माधवराव ने मराठा शासन एक बार पुन: स्थापित कर दिया था।
परन्तु पानीपत के तृतीय युद्ध में अहमद शाह अब्दाली की जीत को लेकर तालिबान उत्साहित है और इसका अर्थ यही है कि वह हिन्दुओं की विरोधी विचारधारा को ही ज़िंदा रखे हुए है और साथ ही पानीपत नाम रखकर वह भारत को उकसा रहा है। और वह अपनी उन जड़ों को भूला नहीं है, जो हिन्दुओं की हत्याओं से जुडी है। तालिबान द्वारा सत्ता सम्हालने के बाद महमूद गजनवी को याद किया गया था। उसकी कब्र पर जाकर सोमनाथ विजय का उल्लेख किया गया था।
अनस हक्कानी जब महमूद गजनवी की कब्र पर गया था तो उसने स्पष्ट लिखा था कि वह दसवीं शताब्दी का मुजाहिद था, और वह बहुत ही मजबूत इस्लाम का सिपाही था, जिसने सोमनाथ की प्रतिमा को तोडा था
अर्थात वह अहमद शाह अब्दाली के साथ अपनी पहचान बनाए हुए हैं, वह महमूद गजनवी के साथ अपनी पहचान बनाए रखे हुए हैं, और वह अफगानिस्तान की हर हिन्दू पहचान को मिटा चुके हैं, हालांकि वह पहचान उस दिन प्रधानमंत्री मोदी ने पहनी थी।
और उसमें सबसे अधिक रोचक है उसी मानवता और भारत विरोधी पहचान को बनाए रखने वाले तालिबान वाले अफगानिस्तान को भारत द्वारा सहायता भेजी जा रही है।
यह बात समझ से परे है कि आखिर विश्व उस कट्टरपंथी इस्लामी ताकत को मदद के बदले क्यों कोई कड़ा सन्देश नहीं दे रहा है? एक ओर जहां पर भारत द्वारा मानवीय सहायता तालिबान और अफगानिस्तान को दी जा रही है, तो वहीं दूसरी ओर अफगानी आतंकवादी कश्मीर में आ रहे हैं, और वह उन हथियारों के साथ आ रहे हैं, जो अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में छोड़ गए हैं। और यह बात और कोई नहीं बल्कि भारत की सेना द्वारा कहा जा रहा है
महमूद गजनवी, पानीपत को ध्यान में रखते हुए वह भारत में आतंकवादी भेज रहा है, और उन लोगों को मारने के लिए हथियारों की खेप भेज रहा है, जिनके हिस्से के अन्न एवं अन्य आवश्यक वस्तुएं उन्हें भेजी जा रही है।
हिजाब गर्ल मुस्कान को भी “इस्लामी” पहचान का आदर्श बताकर हिन्दुओं को दोषी बता रहा है तालिबान, और भारत की न्यायपालिका पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है परन्तु उसे मानवता के नाम पर सहायता राशि भेजी जा रही है?
इस विषय पर जनता भी प्रश्न पूछ रही है कि क्या हम उस तालिबान को खिला रहे हैं, जो अफगानिस्तान में हिन्दू, सिखों और शेष स्थानीय अल्पसंख्यकों को मार रहे हैं और मार दिया है? और यह सारी मदद तालिबान अपने लड़ाकों को देगा, असली पीड़ितों तक नहीं पहुंचेगा!
एक यूजर ने इसे अन्याय बताते हुए जनता के पैसे की बर्बादी बताया
लोगों ने तालिबान के पानीपत यूनिट वाले स्क्रीनशॉट साझा किये
एक यूजर ने कहा कि मनोवैज्ञानिक विद्यार्थियों से पूछा जाए कि यह किस प्रकार का सिंड्रोम है?
लोग प्रश्न कर रहे हैं कि तालिबान ने हिन्दुओं और सिखों को निकाल दिया, और अब्दाली से प्रेरित होकर एक सशस्त्र इकाई बनाई और उसे पानीपत नाम दिया, वह कश्मीर मुद्दे पर भारत को नीचा दिखा रहा है और भारत को हिजाब के मामले में हड़का चूका है और भारत तालिबान को गेंहू भेज रहा है
यह प्रश्न तो वास्तव में उठता है कि आखिर क्यों हो रहा है कि एक ओर तालिबान भारत को या कहें “हिन्दुओं” को हर प्रकार से नीचा दिखा रहा है, और भारत की ओर से विरोध तो दर्ज नहीं हो रहा है, बल्कि सहायता भेजी जा रही है? और जनता प्रश्न पूछ रही है कि आखिर क्यों ऐसा किया जा रहा है?