भारत में मुस्लिम औरतों के लिए न्याय की प्रक्रिया कई बार कठिन मालूम होती है क्योंकि उसकी राह में तलाक के कई नियम आ जाते हैं, जो शरिया के अनुसार मान्य हैं, परन्तु कई अमानवीय प्रथाओं को भी शरिया के नाम पर वैध बताया जाता है! यदि शरिया ही लागू है तो फिर संविधान का अर्थ क्या है? इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए कई बार मुस्लिम औरतें न्यायालय का रुख करती हैं।
इसबार एक मुस्लिम महिला ने तलाक-ए-हसन के विरोध में याचिका दायर की है। एक मुस्लिम महिला ने उच्चतम न्यायालय में अश्विनी उपाध्याय के माध्यम से तलाक-ए-हसन और अन्य सभी प्रकार के उन तलाकों पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की हैं, जो न्यायिक नहीं हैं और जो शरिया के अनुसार हैं और उन्हें असंवैधानिक घोषित किया जाना चाहिए!
याचिका में अपनी बात को स्पष्ट करते हुए हीना ने दावा किया कि उसका शोषण उसकी ससुराल में जहेज (दहेज़) को लेकर हुआ और जब उसके अब्बा उसके शौहर के घरवालों की मांगों को पूरा नहीं कर पाए तो उसके पति ने उसे तलाक-ए-हसन दे दिया।
हीना ने अपनी याचिका में यह दावा किया कि यह धारा 14, 15, 21, 25 और यूएन के कन्वेंशन सभी के विरोध में है और साथ ही जब वह पुलिस के पास एफआईआर दर्ज कराने के लिए पहुँची तो पुलिस ने कहा कि यह शरिया क़ानून के अंतर्गत जायज है!
याचिका में कहा गया कि “कई इस्लामिक देशों ने ऐसी प्रक्रियाओं को प्रतिबंधित कर दिया गया है, तो वहीं भारतीय समाज में यह बहुत व्यापक रूप से चलन में है और मुस्लिम औरतों और बच्चों के जीवन पर बहुत असर पड़ता है। इसके साथ याचिका में यह भी कहा गया कि मुस्लिम औरतें कभी तलाक-ए-हसन नहीं दे सकती हैं, परन्तु मुस्लिम आदमी दे सकते हैं, इसलिए यह भेदभाव वाला तलाक है!
क्या होता है तलाक-ए-हसन:
तलाक-ए-हसन को इस्लाम में तलाक की सबसे उचित प्रक्रिया बताया जाता है। और इसमें तलाक को तीन लगातार तुहर की अवधियों में बोला जाता है। इसकी औपचारिकताएं हैं:
(क) पति को ‘तुहर’ की अवधि में एक बार तलाक बोलना होता है।
(ख) अगले तुहर में, दूसरी बार एक बार और तलाक बोलना होता है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि पति द्वारा पहली और दूसरी घोषणा को रद्द किया जा सकता है। यदि वह ऐसा करता है, या तो स्पष्ट रूप से या वैवाहिक संबंधों को फिर से शुरू करने से, तलाक उसी तरह से बेकार हो जाएगाजैसे कि कोई तलाक ही नहीं बनाया गया था।
(ग) लेकिन, अगर पहली या दूसरी घोषणा के बाद कोई तलाक को वापस नहीं लिया जाता है तो अंत में पति को तीसरी पवित्रता की अवधि (तुहर) में तीसरी घोषणा करनी होती है। जैसे ही यह तीसरी घोषणा की जाती है, तलाक अपरिवर्तनीय हो जाता है और निकाह टूट जाता है और पत्नी को आवश्यक इद्दत का पालन करना पड़ता है।
यह ध्यान दिया जा सकता है कि तलाक हसन की महत्वपूर्ण विशेषता तीसरी घोषणा से पहले इसे वापस लिया जाना और फिर तीसरी घोषणा के बाद बदला न जाना है। एक प्रभावी तलाक बनाने के लिए, पवित्रता की लगातार तीन अवधि में तलाक को तीन बार बोलना होता है।
यह तो तलाक-ए-हसन की बात है, परन्तु तलाक के बाद हलाला को लेका भी कई मामले सामने आते रहते हैं। रायबरेली में एक मामला सामने आया जिसमें दहेज़ की खातिर औरत को पांच बार दिया तलाक, और दो बार कराया हलाला! तीसरी बार बहनोई के साथ हलाला की बात आई तो वह औरत टूट गयी!
जागरण के अनुसार मिल एरिया के एक गाँव की एक मुस्लिम औरत के साथ उसके पति और उसके देवर ने तलाक और हलाला का खेल खेला। और तीसरी बार जब हलाला कराने का दबाव बनाया गया तो महिला मायके चली गयी और पुलिस में उसने शिकायत दर्ज कराई!
पीड़िता का निकाह 2015 में आरिफ के साथ हुआ था। उसके निकाह के बाद से ही उसे दहेज़ को लेकर प्रताड़ित किया जाने लगा था। और फिर उसे उसके शौहर ने तलाक दे दिया! फिर उसने पुलिस में जाने की बात की तो उसे मना लिया गया और फिर देवर के साथ हलाला कराकर फिर से आरिफ से निकाह करवा दिया। कुछ दिन शांत रहा फिर से दहेज़ की मांग करते हुए आरिफ ने तलाक दे दिया और फिर से देवर के साथ हलाला कराया गया। फिर देवर जाहिद ने तलाक दिया तो फिर से आरिफ ने निकाह किया।
मगर जब तीसरी बार तलाक दिया और तीसरी बार हलाला की बात की तो उस औरत ने इंकार कर दिया और मायके जाकर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई।
यह देखना बहुत ही हैरानी भरा है कि जहाँ मुस्लिम एक्टिविस्ट औरतें हिन्दू धर्म या ब्राह्मण वादी मानसिकता से लड़ने का दावा करती हैं, तो वहीं वह अपने ही समुदाय की औरतों को क्यों नहीं देखती? क्यों नहीं देखतीं कि कितना घुट रही हैं, उनके अपने समुदाय की औरतें इन काले शरिया कानूनों में!
परन्तु फिर ध्यान आता है कि वह तो अपने समुदाय की औरतों को हिजाब की ओर और अंधेरे की ही ओर धकेल रही हैं!