वामपंथी फेमिनिज्म बहुत ही सिलेक्टिव दिशा की ओर बढ़ता है। उसके अपने बोलने और बात उठाने का विमर्श बहुत सीमित होता है। उसे यह लगता ही नहीं है कि उस रेखा से परे बोला जाए, जो उसके लिए “पार्टी” द्वारा निर्धारित कर दी गयी है। कोई कितना भी कुछ कहे, हिन्दी की वामपंथी फेमिनिस्ट उसी राह पर चलेंगी, जो उनके लिए उनकी कथित पार्टी अर्थात उनके संरक्षक ने तय कर दी है।
पूरी ज़िन्दगी पितृसत्ता से लड़ने का ढोंग करने वाली यह औरतें अपनी ही पार्टी की उस महिला के साथ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाती हैं, जिसने अपना जीवन उसी पार्टी को दे दिया है। जैसे ही वह लोग मुंह खोलती हैं, वैसे ही उन्हें उठाकर बाहर कर दिया जाता है, और दुर्भाग्य की बात यही है कि हिन्दू स्त्रियों के लिए बार बार यह कहने वाली विचारधारा कि हिन्दू स्त्रियों को सती होना पड़ता था और यह वामपंथी फेमिनिज्म ही था, जिसने हिन्दू स्त्रियों को जीवन दान दिया, हिन्दू स्त्रियों का जीवन अँधेरे में था, उन्हें रोशनी तो वामपंथी फेमिनिज्म ने दी, स्वयं गुलामी के कितने दलदल में है, यह एक बार फिर से सामने आया है, जब झारखंड में अंकिता की हत्या से लेकर कविता कृष्णन को पार्टी से निकाले जाने पर उन्हीं महिलाओं ने चुप्पी साध ली है, जो महिलाएं हर छोटे छोटे विषय पर क्रांति करने के लिए तैयार हो जाती हैं।
पहले बात करते हैं कविता कृष्णन की! कविता कृष्णन वामदलों की एक बड़ी आवाज मानी जाती हैं। वह हाल ही में इस पार्टी से बाहर हो गयी हैं। वह इसलिए बाहर हुई हैं क्योंकि उन्होंने वामदलों की नीतियों के विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने कहा कि चीन और रूस के खिलाफ भी लोगों को बोलना चाहिए, तो उनपर उँगलियाँ उठने लगीं, उन्होंने कहा कि आखिर भारतीय वामदल क्यों रूस का विरोध नहीं कर रहे हैं, क्यों चीन का विरोध नहीं कर रहे हैं? कविता कृष्णन ने हालांकि चीन को फासीवासी नहीं बताया बल्कि सर्वशक्तिवादी सरकार बताया और यह भी कहा कि चीन में मुस्लिम विरोधी कार्य किए जा रहे हैं।
उसके बाद उनकी ट्रोलिंग आरम्भ हो गयी। इतनी ट्रोलिंग हुई कि उन्होंने बीबीसी के साथ वार्ता में स्वयं इसे स्वीकार किया, परन्तु उन्होंने इसे भी यह कहते हुए स्वीकार किया कि यह ट्रोलिंग दक्षिणपंथी ट्रोलिंग के समान है। अर्थात कविता कृष्णन यहाँ पर भी भारतीय जनता पार्टी या संघ को कोसने से बाज नहीं आईं।
इतने पर भी उन्हेंने वामपंथी फेमिनिस्ट का साथ नहीं मिला
यह अत्यंत हैरान करने वाली बात है कि कविता कृष्णन की ट्रोलिंग पर वामपंथी फेमिनिस्ट एकदम चुप हैं। वह चुप क्यों हैं? क्या उनका सारा फेमिनिज्म केवल और केवल पार्टी से ही जुड़ा हुआ है, क्या वह पार्टी के खेमे या खूंटे से बंधी हुई हैं? आखिर क्या कारण है कि वह लोग चुप हैं? क्या कविता कृष्णन ने भारतीय जनता पार्टी ज्वाइन कर ली है या फिर क्या उन्होंने संघ की विचारधारा का समर्थन किया? यदि नहीं तो ऐसा क्यों है कि फेमिनिस्ट जगत से एक भी शब्द कविता कृष्णन के पक्ष में नहीं आया है!
यह प्रमाणित करता है कि भारत में जो कथित रूप से प्रगतिशील फेमिनिज्म है, वह महिला विरोधी फेमिनिज्म है, क्योंकि वह एक पार्टी के पुरुषों के इशारे पर चलता है। उसकी पार्टी के आदमी जब इशारा करते हैं, तब वह बोलती हैं, आवाज उठाती हैं, और जब वह कहते हैं कि रुक जाओ, तब वह रुक जाती हैं! यह कितना हास्यास्पद है कि जीवन भर पितृसत्ता को गाली देने वाली ये वामपंथी फेमिनिस्ट औरतें दरअसल अपने विचारों के आदमियों के हाथों की कठपुतली होती हैं, जो अपनी ही कविता कृष्णन और अपनी ही केके शैलजा के साथ खड़ी नहीं हो पाती हैं!
क्या है के के शैलजा का मामला?
कोरोना काल में केरल के स्वास्थ्य मॉडल का बहुत शोर रहा। हालांकि उसके विषय में कई विवाद भी हुए, परन्तु इसे प्रचारित किया गया कि भारत की केंद्र सरकार को केरल से समझना चाहिए, मगर जब उसी केरल सरकार के कार्य को सम्मानित करते हुए के शैलजा को रोमन मैग्ससे सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई तो सीपीएम ने पार्टी के नियमों का हवाला देकर यह सम्मान लिए जाने से रोक दिया!ऐसा तो नहीं है कि उस विचार को पहली बार यह सम्मान मिल रहा था? परन्तु फिर भी महिला विरोधी रूप दिखाते हुए के शैलजा को यह सम्मान लेने से रोक दिया गया।
इस पर भी फेमिनिस्ट मौन रहीं! वह लोग अपने ही विचारों की महिलाओं के साथ हुए हर उस अत्याचार या शोषण पर मौन रहती हैं, जो उनके विचार वाले आदमी करते हैं, वही लोग जो हिन्दू धर्मनिष्ठ महिलाओं को मंगलसूत्र के बहाने घेरते हैं, वह न जाने क्यों अपने विचारों की औरतों को अपना इस हद तक गुलाम मानते हैं कि वह उन्हें न ही सम्मान लेने के लिए अधिकृत मानते हैं और न ही विचारों का विरोध करने की स्वतंत्रता देते हैं।
वामदलों का महिला विरोधी चरित्र बार बार स्पष्ट होता है
क्या यही दो मामले हैं जिनसे वामदलों का महिलाओं के प्रति विरोध झलकता है, या फिर यह सूची लम्बी है? दरअसल यह सूची लम्बी है, उनके पोलित ब्यूरो में वृंदा करात और सुभाषिनी अली को छोड़कर और कोई महिला नहीं है! फिर ऐसा क्यों होता है कि यही लोग सबसे अधिक महिलाओं की आजादी की बात करते हैं, वह भी तब जब यह हर उस महिला के साथ शाब्दिक हिंसा को जायज मानते हैं, जो इनके विचारों के तनिक भी इतर होती है?
यह महिला विरोधी चरित्र तब और मुखर रूप से दिखाई देता है जब झारखंड में अंकिता जैसे हत्याकांड होते हैं।
भारतीय जनता पार्टी के बहाने संघ एवं हिंदुत्व को कोसने के लिए यह पूरा का पूरा गैंग या कहें गिरोह हर उस घटना पर मौन रहता है, जो इनके एजेंडे में नहीं आती है,
इसका उत्तर भी कविता कृष्णन के साक्षात्कार में ही प्राप्त होता है, जिसमें वह कहती हैं कि पार्टी जो तय करती है, उसी के अनुसार बोलना अनिवार्य होता है। कविता कृष्णन ने कहा कि पार्टी की नीति होती है कि हमने जो इस समय कोई स्टैंड लिया है, हमें उसी पर बात करनी चाहिए। हमें उससे इतर नहीं बात करनी है, और अगर कोई बात भीतर भी चलाएं तो अभी क्यों चलानी है? यह कहा जाता है कि अभी हम मोदी के फासीवाद से लड़ रहे हैं, तो ऐसे में हमें स्टेलिन की बात क्यों उठानी है कि उसने सत्तर साल पहले क्या कहा?
कविता कृष्णन की इस बात पर और अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि इसी में उनकी कथित आजादी या स्वतंत्रता या अभिव्य्क्ति की स्वतंत्रता के तमाम दावों की पोल खुलती है। यही बात है जो हिन्दी साहित्य में आती है कि अभी हमें हिन्दू साम्प्रदायिकता से लड़ रहे हैं, तो ऐसे किसी भी अपराध पर आवाज नहीं उठानी है जिसमें मुस्लिम साम्प्रदायिकता की बात हो। यही कारण है कि बाबरी विध्वंस पर तो तमाम कथित प्रगतिशील कविताएँ लिख डाली गईं, परन्तु कश्मीरी पंडितों के पलायन एवं उन्होंने किस कारण से पलायन किया, इस विषय में पूरा जनवादी या प्रगतिशील कवि जगत चुप रहा।
यही हिन्दू साम्प्रदायिकता से लड़ने का नाटक उन्हें अंकिता जैसी लड़कियों की जघन्य हत्याओं पर मौन धारण करना सिखाता है
यही जो हिन्दू साम्प्रदायिकता से लड़ने का नाटक है, वह उन्हें उन जघन्य अपराधों पर मौन धारण करना सिखाता है, जो हिन्दू लड़कियों के साथ अनवरत हो रहे हैं, और वह भी उनकी सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहचान को लेकर! इस बात को केरल के ईसाइयों ने ही पहली बार उठाया था कि कैसे ईसाई लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराकर उन्हें जिहाद के लिए तैयार कराया जा रहा है और वह भी प्यार के नाम पर, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि यह सांस्कृतिक पहचान खोने की बात करना केवल हिन्दू ही विचार है, बल्कि यह सभ्यतागत विचार ही है, यह सभ्यतागत पहचान का संघर्स है, फिर भी उस लड़ाई में जब अंकिता जैसी लड़कियों पर कट्टरपंथी इस्लाम वाली सोच के हाथों हमला होता है, तो फेमिनिस्ट मौन धारण कर लेती हैं।
यदि वह बोलती भी हैं तो इसे स्त्री पुरुष का मामला बनाकर कि औरत की मल्कियत लेना चाहते हैं आदमी, टाइप! परन्तु कौन लेना चाहता है किसकी मल्कियत? इस पर मौन हैं! क्योंकि इससे उनका वह एजेंडा टूटेगा जिसे उन्होंने इतने जतन से गढ़ा है!
वह मुद्दों को भटकाती हैं, वह उस लड़की पर पड़ते पत्थरों पर मौन रहती हैं, जो उस पर कोई रब्बानी अंसारी तब बरसाता है और वह भी कुँए में धकेलकर जब लड़की को पता चलता है कि वह साजन उरांव नहीं बल्कि कोई रब्बानी अंसारी है!
अंसारी ने अपनी पोल न खुल जाए इस भय से उस लड़की को कुँए में धकेल दिया और पत्थर मारे, जिससे कि वह मर जाए मगर लड़की मरी नहीं बल्कि उसने अंसारी का ही सच बता दिया।
अंसारी जेल में है, परन्तु फेमिनिस्ट औरतें उस बच्ची के साथ नहीं आईं! वह अंकिता को ज़िंदा जलाने वाले शाहरुख़ के भी विरोध में नहीं आई थीं, क्योंकि बहुत मुश्किल से बनता है इश्क का रिश्ता, तो वह उस रिश्ते को तोड़ कैसे सकती हैं!
हाँ, यदि उसमें उनका कोई एजेंडा सिद्ध हो रहा होता तो वह करतीं, जैसे हाथरस में किया था।
ब्राह्मणों से घृणा करने वाली एवं “कांग्रेस का समर्थन करने वाली” एक्टिविस्ट डॉ मीणा कैंदासामी ने स्वीकारा कि उन्होंने अपने यौन शोषण की बात इसलिए नहीं की क्योंकि उनका यौन शोषण एक गैर ब्राह्मण ने किया था
यहाँ पर इन औरतों की मानसिक गुलामी की बात इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि ब्राह्मणों एवं भाजपा से दिल से घृणा करने वाली एक्टिविस्ट डॉ मीणा कंदासामी ने वर्ष 2010 में हुए अपने यौन शोषण पर चुप्पी तोडी और कहा कि उन्होंने यह बात इसलिए नहीं बताई थी क्योंकि उनका यौन शोषण एक गैर-ब्राहमण ने किया था और यदि वह अपना मुंह खोलतीं तो उन्हें डर था कि उन्हें ब्राह्मणों के हाथों की कठपुतली कहा जाएगा!
उन्होनें लिखा कि कोई भी यह नहीं देखा कि एक युवा महिला अपने साथ हुए शोषण के लिए न्याय मांग रही है, वह बस इसी यही देखते कि सेंटर का प्रमुख ब्राह्मण (जिन्होनें उन्हें बुलाया था) वह उनका प्रयोग एक गैर ब्राहमण के खिलाफ कर रहा है! यदि उन्हें जेएनयू में दलित या बहुजन के द्वारा बुलाया जाता तो बात अलग होती!
यह कैसी घृणा है, कि आप अपना यौन शोषण करने वाले की शिकायत भी नहीं कर सकती हैं? यह उनका कैसा एजेंडा है? क्या ब्राह्मणों के विरुद्ध घृणा उत्पन्न करना ही इस पूरी लॉबी का एकमात्र लक्ष्य है और उस ब्राह्मण घृणा के माध्यम से हिन्दुओं में परस्पर मतभेद उत्पन्न करना ही लक्ष्य है?
ऐसे कई प्रश्न पूछे जाने चाहिए, परन्तु प्रश्न पूछे कौन? क्योंकि वह लोग एक बंद बक्से में हैं, जहां पर बाहरी विचारों के व्यक्ति का आना निषेध है, जहाँ पर वह इतनी मानसिक गुलाम हैं, कि अपने यौन शोषण को बर्दाश्त करती हैं, अपनी साथी को वामपंथी ट्रोलिंग का शिकार होते देखती हैं और अंकिता जैसी लड़कियों को जलते देखती हैं, परन्तु वामपंथी चुप्पी नहीं टूटती! गुलामी नहीं टूटती!