कल भारत ने अपना गणतंत्र दिवस मनाया। इस अवसर पर यह आवश्यक था कि एक ऐसी धारणा को तोडा जाए, जो औपनिवेशिक शिक्षा ने हमारे बालपन से ही थोप दी है और वह है साधुओं के प्रति असम्मान की भावना। जबकि इतिहास इस बात का स्वयं में प्रमाण है कि इस देश की आत्मा ही साधु हैं। हिन्दू साधुओं के प्रति पश्चिमी समाज अनुदार रहा है और यह पश्चिम के ही एक लेखक जॉन कैम्पबेल ओमान ने अपनी पुस्तक “द मिस्टिक्स, एस्केटिक्स एंड सेंट्स ऑफ इंडिया ” में लिखा है।
“यह सही है कि यहाँ पर आने वाले यूरोपीय लोगों को साधु हर जगह दिख जाते हैं, पान्तु फिर भी उन्हें विदेशियों ने शायद ही समझा हो, फिर चाहे वह अस्थाई रूप से आने वाले हों या फिर स्थाई निवासी।”
वह आगे लिखते हैं कि जो भी यहाँ पर आता है वह इन लोगों के विश्वासों और तत्त्व मीमांसा के प्रति अज्ञान और अपरिचित होते हैं इसलिए वह उन्हें समझ नहीं पाते हैं।
फिर वह लिखते हैं कि
यूरोपीय लोगों के अनुमान में यह तो कहना कठिन है कि रहने योग्य कारणों के चलते भारतीयों को कितना कष्ट मिला है, परन्तु मुझे इस विषय में सन्देह नहीं हैं कि अब उनकी राष्ट्रीय पोशाक या कहा जाए कि उनके जो वस्त्र हैं, वह अधिकतर मामलों में ऐसे नहीं होते हैं कि उनके पूरे शरीर को ढाक लें, और इसने बौद्धिक एवं सभ्य भारतीयों को अधिकतर पश्चिम की दृष्टि में नागा साधु के स्तर पर ला दिया है। और भारतीय साधु जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक विचरण करते हैं, वह बिना वस्त्रों के होते हैं, और उनके शरीर पर राख होती हैं, वह यूरोपीय नागरिकों की दृष्टि में मूर्ख हैं और वह उनका मजाक उड़ाते रहते हैं।”
साधुओं के प्रति अंग्रेजों की घृणा समझी जा सकती है, क्योंकि यह साधु ही थे जो उनके धर्मांतरण के एजेंडे के सबसे बड़े शत्रु थे। द रेनेसां इन इंडिया, इट्स मिशनरी आस्पेक्ट में सीएफ एंड्रूज़ लिखते हैं कि साधु शंकराचार्य एवं तुलसीदास बहुत ही महान विचारक हैं, जो भारत में अभी तक हुए हैं। और उसमें भी वह तुलसीदास जी के विषय में लिखते हैं कि वह इसलिए सबसे महान हैं क्योंकि उन्होंने सीधे दिलों तक सन्देश पहुंचाया।
हालांकि मिशनरी या यूरोपीय यात्री या पश्चिम के एजेंडा परक लोग रामायण एवं महाभारत को मिथक मानते हैं, इसलिए वह महाभारत में आकर यह नहीं देख पाए कि महर्षि परशुराम ने योद्धाओं को अस्त्र-शस्त्रों का प्रशिक्षण प्रदान किया था और उससे भी पीछे जाते तो पता चलता कि रामायण में महर्षि वशिष्ठ, महर्षि विश्वामित्र एवं अगस्त्य मुनि ने प्रभु श्री राम को विभिन्न प्रकार की शिक्षा एवं अस्त्र शस्त्र प्रदान किए थे।
एवं महाभारत में तीर्थयात्रा पर्व में मुनियों के आश्रमों का विवरण प्रदान किया गया है। भारत में साधु ही इस देश के प्राण हुआ करते थे, जो ज्ञान की गंगा प्रवाहित किय करते थे, और जो चेतना के संवाहक हुआ करते थे। देश काल परिस्थिति के अनुसार निर्णय लिया करते थे एवं राजा तथा प्रजा दोनों ही के लिए कल्याण की भावना लिए होते थे।
पश्चिम के झूठे अहंकार के कारण उपजा भारत के साधुओं के प्रति अपमान
जॉन कैम्पबेल ओमान अपनी पुस्तक “द मिस्टिक्स, एस्केटिक्स एंड सेंट्स ऑफ इंडिया” में सिकंदर की साधु से भेंट का उल्लेख करते हैं और लिखते हैं कि सिकंदर भी पंजाब के मैदानों से होकर अपने भारत विजय के अभियान के लिए आगे बढ़ा और एक भारतीय साधु से मिला; परन्तु उन दिनों भी साधुत्व (साधुइज्म) अपनी काफी उम्र पूरी कर चुका था अर्थात काफी समय से यह परम्परा थी।
फिर वह इसमें लिखते हैं कि “पूर्व की आत्मा ही साधुओं में गुंथी हुई है।” वह यह भी कहते हैं कि यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं हैं कि वह भारत के जीवन और सभ्यता में इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनके गुणों तथा आम जनता के साथ उनके सम्बन्धों का अध्ययन किया जाए तो इससे न केवल भारतीय नागरिकों के विषय में पर्याप्त प्रकाश प्राप्त होगा तथा साथ ही वृहद आकर्षण भी प्राप्त होंगे।
इस पुस्तक में आगे पृष्ठ 19 पर लिखते हैं कि यह देखना बहुत ही हैरान करने वाला है कि हिन्दुओं में जब भगवान भी जन्म लेते हैं तो उन्हें भी अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कड़े नियमों और प्रशिक्षणों से होकर गुजरना होता है।
एक और पुस्तक है द सन्यासी रेबेलीयन, जिसे ए एन चन्द्रा ने लिखा है, उसमें भी इसी भाव को लिखा है। उन्होंने लिखा है कि अंग्रेज साधुओं और मुस्लिम फकीरों को लगभग एक समान मानते थे और हिन्दू योगियों, सन्यासियों तथा वैरागियों को मुस्लिम दरवेश जैसे मानते थे। और रिचर्डसन ने अपनी अरबी-फारसी डिक्शनरी में फकीर को एक ऐसे गरीब व्यक्ति के रूप में बताया, जिसे अरबी में नाम दिया गया है, यह फारसी दरवेश या सोफ और भारतीय सन्यासी हो सकते हैं।”
इसीमें वह कहते हैं कि आरंभिक काल में आने वाले अंग्रेज वास्तविक संतों को आवारा और इधर उधर घूमने वाली जनजाति से मानते थे जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे और उनका आदर लगभग हर समाज के लोग करते थे।
और इसमें यह भी कहा गया है कि वास्तविक संतों को सन्यासी और फकीर बताना अन्याय है और साथ ही सभी को लुटेरे कहना भी अनुचित है।
पृष्ठ 40 पर नागा साधुओं के विषय में लिखा गया है कि वह साधारण रूप से ऐसे अस्त्र शस्त्र लेकर घूमा करते थे, को खतरनाक थे और उन्हें आवश्यकता होने पर प्रयोग किया जाता था। यह अस्त्र शस्त्र बिना किसी कारण के प्रयोग नहीं किए जाते थे।
हर युग में साधु संतों ने अध्यात्म एवं वीरता का प्रदर्शन किया है
हर काल, समय और परिस्थिति में साधुओं ने बार बार आकर इस मानवता को दिशा प्रदान की है। फिर चाहे रामायण की रचना करने वाले महर्षि वाल्मीकि हों, या फिर महाभारत रचने वाले महर्षि वेदव्यास। वेदों की रचना करने वाले रहे हों या फिर शस्त्रों की शिक्षा देने वाले परशुराम या फिर आदि गुरु शंकराचार्य। आधुनिक काल में भी जब मुग़ल अत्याचारों से सम्पूर्ण भारत भूमि त्रस्त हो चुकी थी, तब साधुओं ने भक्ति आन्दोलन के माध्यम से उन अत्याचारों से सांत्वना प्रदान करने के लिए रचनाएं रचीं एवं हिन्दू चेतना के नायक महानायक शिवाजी को भी समर्थ गुरु रामदास का साथ मिला।
यहाँ तक कि मुगलों के शासनकाल में और औरंगजेब के शासनकाल का उल्लेख करते हुए जेम्स ग्रान्ट ने लिखा था कि स्वयं को करामाती बताते हुए औरंगजेब की सेना को भी पराजित कर दिया था और वह अपनी गद्दी पर कांपने लगा था।
अंग्रेजों को भी सन्यासी विद्रोह ने हिलाकर रख दिया था
अंग्रेजों के सामने भी इन्हीं सन्यासियों ने चुनौती प्रस्तुत की थी और बंगाल में वर्ष 1763 से 1800 के बीच उत्तरी बंगाल और आसपास के क्षेत्रों में विद्रोह किया था। इस आन्दोलन में अंग्रेजों की आर्थिक नीति से उपजे हुए असंतोष ने प्रेरणा दी थी। इसमें जमींदार, किसान और शिल्पकारों ने भी भाग लिया था। वर्ष 1770 में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था। और अकाल के समय भी राजस्व की वसूली चलती रही थी, जिसके कारण सभी वर्गों के बीच विद्रोह की भावना प्रज्ज्वलित होने लगी थी।
वहीं तीर्थ स्थानों पर आने जाने में भी कई प्रकार की रोक लगाई गयी थी, जिसके कारण उन्होंने भी हथियार उठा लिए थे।
इस आन्दोलन को दबाने के लिए वारेन हेस्टिंग्स ने बहुत क्रूरता का प्रयोग किया था और बहुत ही कठिनाई से इस आन्दोलन को समाप्त कर सका।
यही कारण था कि समय के साथ इन्हीं साधुओं और संतों को वैचारिक और बौद्धिक रूप से नीचा दिखाना आरम्भ के दिया था, जिससे लोगों के भीतर वह जागरण, चेतना की बात न कर सकें।