आज भारत की प्रथम ऐसी महिला चिकित्सक की पुण्यतिथि मनाई जा रही है, जिन्होनें एलोपैथी के क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण की और वह भारत की प्रथम एलोपैथिक चिकित्सक बनीं। यह उनकी उपलब्धि है और मात्र 22 वर्ष की उम्र में तपेदिक के कारण आज ही के दिन वर्ष 1887 में उनका निधन हो गया था।
डॉक्टर बनने के लिए ईसाई धर्म अपनाने से इंकार कर दिया था
यह बहुत ही विडंबना थी भारत में कि जहाँ एक ओर अंग्रेजों द्वारा आयुर्वेद को पिछड़ा बताते हुए मौद्रिक एवं संस्थागत सहायता देना बंद कर दिया था और 18वीं शताब्दी में स्थापित प्रथम आयुर्वेद कॉलेज को वर्ष 1835 में यह कहते हुए बंद कर दिया था कि केवल पश्चिमी औषधियों को ही राज्य द्वारा स्पोंसरशिप दी जाएगी और और सरकार से समर्थन दिया जाएगा।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी नर्स अर्थात चिकित्सा सहायिका का उल्लेख आया है, अर्थात चिकित्सा का क्षेत्र महिलाओं के लिए था। उसके बाद धर्मपाल द्वारा लिखित द ब्यूटीफुल ट्री में भी ऐसी महिलाओं का उल्लेख है, जो सर्जरी किया करती थीं। और यह बात Dr Buchanan के अनुभव से कही गयी है। उसमें लिखा है कि
“Dr Buchanan heard of about 450 of them, but they seemed to be chiefly confined to the Hindoo divisions of the district, and they are held in very low estimation.There is also a class of persons who profess to treat sores, but they are totally illiterate and destitute of science, nor do they perform any operation.They deal chiefly in oils.The only practitioner in surgery was an old woman, who had become reputed for extracting the stone from the bladder, which she performed after the manner of the ancients”
अर्थात Dr Buchanan ने एक ऐसी बूढ़ी महिला को गॉल ब्लेडर की पथरी की सर्जरी करते हुए देखा जो प्राचीन चिकित्सा से सर्जरी कर रही थी और पथरियों को निकाल रही थीं!

अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीयों को जिस प्रकार से औपनिवेशिक मानसिकता से शिकार बनाया गया, उसमें आयुर्वेद सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र था। आयुर्वेद को किसी भी प्रकार से सरकारी सहायता नहीं प्रदान की गयी तथा मिशनरी अस्पतालों में जो पश्चिमी महिला मिशनरी और डॉक्टर्स थे, उनका व्यवहार उन महिलाओं के प्रति कुछ ऐसा था जैसे उन्हें उन “अस्वस्थ” जनाना से निकाला जाए, अर्थात उनका उद्धारक बनने का था।
आनंदी बाई जोशी ने ईसाई बनने से इंकार कर दिया और कई परेशानियों के बावजूद केवल लोगों की सेवा करने के लिए पश्चिमी चिकित्सा की पढ़ाई की। हालांकि उन्हें मात्र 19 वर्ष की आयु में डिग्री तो मिल गयी परन्तु वह तीन ही वर्ष उपरान्त इस दुनिया को छोड़कर चली गईं। उनके स्वास्थ्य में गिरावट तभी से आरम्भ हो गयी थी, जब वह अमेरिका में थीं। और जब वह वापस भारत आ रही थीं, तो जहाज पर भी उनकी सेहत में गिरावट होने लगी।
परन्तु आनंदीबाई का इलाज जहाज पर इसलिए नहीं किया गया क्योंकि वह एक “ब्राउन” महिला थीं।
अंतत: मात्र 22 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हो गया। आज के दिन उन्हें स्मरण किया जाना चाहिए।
औपनिवेशिक सोच यहीं समाप्त नहीं होती है, बल्कि एक पूरे षड्यंत्र के चलते पहले अंग्रेजों ने लाखों उन दाइयों का रोजगार छीन लिया, जिनके पास न जाने कितनी शताब्दियों से यह ज्ञान धरोहर के रूप में आ रहा था। और उसके बाद कथित उद्धारक होकर भारत की महिलाओं पर अहसान करने का नाटक किया, परन्तु यह कथित उद्धार भी तभी मिल सकता था जब हिन्दू महिला ईसाई बन जाए।
परन्तु उनके साथ एक और महिला है जिन्हें स्मरण किया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपने पिता से आयुर्वेद की शिक्षा ली और स्त्रियों का उपचार किया और वर्ष 1908 में स्त्रियों के लिए औषधालय खोला, एवं तब यह कार्य किया जब हिन्दू और आयुर्वेद दोनों सबसे अधिक निशाने पर थे। उन्होंने जो किया है, उसे हमने औपनिवेशिक मानसिकता के चलते बिसरा दिया! वह थीं यशोदा देवी।

यशोदा देवी प्रयागराज में वैद्य थीं। उन्होंने अपनी चिकित्सा में हिन्दू मूल्य, हिन्दू इतिहास और विज्ञान के साथ साथ पश्चिम को समझा।
और उन्होंने ऐसे विषयों पर लिखा और चिकित्सा की दृष्टि से लिखा, जिस सम्बन्ध में आज की कथित फेमिनिस्ट लिखने का दावा करती हैं। अर्थात देह, काम, प्रेम और विवाह पर। दाम्पत्य पर लिखा, और स्त्री को जो रोग हो रहे हैं, उनके मूल में क्या है, वह सब उन्होंने लिखा। परन्तु चूंकि उन्होंने हिन्दी और संस्कृत में लिखा था, तो उनके किये गए कार्यों पर संज्ञान नहीं लिया गया। अपनी पुस्तक विवाह-विज्ञान में वह एक स्थान पर उल्लेख करती हैं कि उनके यहाँ से कुछ स्त्रियाँ या तो कुछ ही दिनों में ठीक होकर चली जाती हैं, या फिर उन्हें दो-तीन महीने तक भी रुकना पड़ता है।
अर्थात वह अस्पताल चलाती थीं। उन्होंने स्त्री के कामपक्ष पर लिखा कि
जिस स्त्री को कभी सम्भोग सुख नहीं मिलता है, अर्थात जिन्हें रतिक्रिया का आनंद नहीं मिलता है, वह स्त्रियाँ शीघ्र ही वृद्धा हो जाती हैं और उन्हें अनेक प्रकार से रोग आ घेरते हैं।

सबसे रोचक बात है उन्होंने स्वास्थ्य और कर्म को आपस में परस्पर जोड़ा और कहा कि हमारा काम और दाम्पत्य सुख पूर्वजन्म के कर्मों से निर्धारित होता है। उन्होंने विवाह में जो विकृति आ रही थीं, उसके लिए नाड़ी दोष आदि को संबोधित किया।
यहाँ तक कि उन्होंने बताया कि किस ऋतु में आहार कैसा लें, क्योंकि उचित आहार पर ही “काम-सम्बन्ध” निर्भर करते हैं।
वह लिखती हैं कि बसंत में जो पहले गाना सुनते हैं, गाना सुनने के बाद विधि पूर्वक अर्थात आयुर्वेद के अनुसार स्त्री सम्भोग करते हैं, और स्त्री के साथ प्रेम पूर्वक बड़े स्नेह से झूला झूलते हैं और फिर शयन कर बसंत की रातें व्यतीत करते हैं, वह धन्य हैं!
बसंत में यदि कफ बढ़ जाए तो उसे कैसे सही करते हुए अपनी पत्नी के साथ सम्भोग करना है, यह सब लिखा है और यह भी लिखा है कि इस ऋतु में स्त्री के साथ जल विहार करना चाहिए!
वह लिखती हैं कि
“मैंने 25 वर्षों तक लाखों स्त्रियों की चिकित्सा करके यह अनुभव किया है कि स्त्रियों के आर्तव का उतार चढ़ाव चंद्रमा के हिसाब से है क्योंकि मेरे यहाँ जो स्त्रियाँ आर्तव दोष वाली इलाज के लिए आय करती हैं यदि उसमें साधारण खराबी हुई तो रोग की परीक्षा करके औषधि दे दी, वे दो चार दिन ठहर कर अपने घर चली गईं और जिनमें अधिक खराबी हुई, वह ठहर कर इलाज कराती हैं और आराम होकर जाती हैं।
फिर एक महिला के विषय में लिखती हैं कि
“मासिक धर्म के एक दिन पहले एक महिला के पीड़ा इतनी अधिक बढ़ती थी कि उसे नशीली औषधियों के इंजेक्शन लगवाने पड़ते थे, जिससे पीड़ा मालूम न हो, मेरे यहाँ वह दो तीन महीने रही! हर महीने उसे इसी प्रकार का कष्ट होता था।”
“मेरे यहाँ तीन महीने रहकर उसने इलाज कराया और तब सब शिकायतें दूर हुईं, और वह अपने घर को गयी!”
यही नहीं इस पुस्तक में अंत में गर्भाशय के चित्र हैं, गर्भाशय में होने वाले विभिन्न रोगों के चित्र हैं। कैसे क्या हो जाता है, यह भी बताया है! और यह एक महिला ने लिखी थी और यशोदा देवी ने वर्ष 1908 में 16 वर्ष की उम्र से स्त्री औषधालय की स्थापना की थी और उन्होंने स्त्रियों का उपचार करना आरम्भ कर दिया था।
और उन्होंने कितना सुन्दर लिखा है:

कहा जाता है कि उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि मात्र “देवी, इलाहाबाद” लिखने से ही उनके पास भारत के किसी भी कोने से आई चिट्ठी पहुँच जाती थी। एक बार उनके यहाँ आया कोई भी रोगी पश्चिमी चिकित्सकों के पास भी नहीं जाता था। (चारु गुप्ता, ‘प्रोक्रिएशन एंड प्लेजर: राइटिंग्स ऑफ़ ए वुमन आयुर्वेदिक प्रैक्टिशनर इन कोलोनिअल नॉर्थ इंडिया’ (2005))
यशोदा देवी की उपलब्धियों को एक पृष्ठ में नहीं समेटा जा सकता है क्योंकि उन्होंने जो आयुर्वेद के लिए किया, वह सहज कोई नहीं कर सकता है, परन्तु फिर से प्रश्न यही है कि क्यों अभी तक औपनिवेशिक मानसिकता के दायरे से हम बाहर नहीं निकल सके हैं और हमारी परम्परा और धरोहरों की संरक्षकों के इतिहास भी बिखरे पड़े हैं?