हाल ही में हिन्दी के एक उपन्यास “रेत समाधि” के अंग्रेजी अनुवाद टूंब ऑफ सैंड को अंतर्राष्ट्रीय बुकर सम्मान 2022 मिला था और उसके बाद से ही यह उपन्यास अपने शिल्प के चलते चर्चा में था। क्योंकि इस हिन्दी में उन्होंने व्याकरण के शायद ही किसी नियम का पालन किया हो। हिन्दी साहित्य का भी एक बड़ा वर्ग था जिसने दबे स्वरों में तो किसी ने खुलकर इस पर बात की कि जो छूट उन्होंने इसमें ली है, उससे भाषा पर प्रभाव पड़ेगा, परन्तु संभवतया अन्तर्रष्ट्रीय बुकर सम्मान का नाम ही इतना बड़ा था कि भाषा के साथ किए गए इतने बड़े खिलवाड़ को नया शिल्प कह दिया गया।
एक अंश इसका देखते हैं, इसमें वह लिखती हैं
“होगी हँसी की बढ़त! रुकेगी जहाँ हो रुकना। अधूरे के या पूरे के समापन बिंदु पे। हँसते हुए या खोयी हँसी अनहंसी रखते। स्वायत्त।
माली की इजाजत नहीं यहाँ। जो एक नाप, एक काट की, झाड़ सरहद बना दे, सैनिक टुकड़ी सी खड़ी, झूठे गुरूर में कि इस बाग़ को हमने घेरेबंद कर डाला है। ये कथा बगिया है, यहाँ दूसरी ताब और आफ़ताब वर्षा प्रेमी खूनी चरिंद परिन्द पिजन कबूतर उड़न फलाई लुक देखो आसमान इस्काई!”
जो इस अंश को पढ़कर समझ में आता है वह यह कि कोई नियम नहीं, बंधन नहीं! परन्तु भाषा भी एक नियम से चलती है, उसका अपना एक व्याकरण होता है, जिसके कारण उसमे सौन्दर्य उत्पन्न होता है। यही सौन्दर्य उस पुस्तक को पाठक के साथ जोड़ता है, उस प्रयोजन को और स्पष्ट करता है जिसे लेकर इसे रचा गया है क्योंकि हर रचना का कोई न कोई उद्देश्य होता ही है। बिना उद्देश्य के कोई रचना की ही नहीं जा सकती है। और किसी भी रचना का सबसे बड़ा उद्देश्य होता है लोक के साथ स्वयं को संबंद्ध करना एवं लोक के भावों को शब्दों में इस प्रकार व्यक्त करना कि रचनाकार एवं लोक में कोई भेद ही न रह जाए। जैसे गोस्वामी तुलसीदास एवं कबीरदास!
रचना की भाषा लोक की भाषा होनी चाहिए, ऐसा कई आलोचकों का कहना है। राम स्वरुप चतुर्वेदी काव्यभाषा पर तीन निबंध में लिखते हैं कि
“मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है।उसका अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध होता है। लोक के भीतर ही कविता क्या किसी भी कला का प्रयोजन या विकास होता है। एक की अनुभूति को दूसरे तक पहुंचाना यही कला का लक्ष्य होता है।”
परन्तु यहाँ पर भाषा से वह अनुभूति ही गायब है, जिसके कारण पाठक रचना के साथ जुड़ पाए, किस भाषा की बात की है कुछ समझ नहीं आता क्योंकि अमेजन पर पाठकों की यही शिकायत रही कि भाषा दुरूह है। यह बात भी पूर्णतया सत्य ही है कि दुरूह भाषा संभवतया अनुवाद करवा दे, या फिर अवार्ड दिलवा दे, परन्तु वह लोक को छू सके, ऐसा संभव नहीं है।
खैर, अभी मामला भाषा को लेकर समीक्षा का नहीं है, वह इस उपन्यास को पूरी तरह से पढने के बाद की जाएगी। अभी मामला यह है कि आगरा में लेखिका के सम्मान में होने वाला आयोजन निरस्त कर दिया गया। क्यों किया गया? जबकि इस पुस्तक को तो सम्मान मिला है, अंतर्राष्ट्रीय सम्मान! फिर भी ऐसा क्या हुआ कि विवाद हुआ! दरअसल इस पुस्तक में भाषा के साथ खिलवाड़ के साथ महादेव के लिंग को भी जननांग के रूप में ही बताया गया है।
इसी को लेकर एक व्यक्ति ने आपत्ति व्यक्त करते हुए लिखा था कि आदरणीय योगी जी से एक प्रश्न है कि क्या हर शिव मंदिर में योगी और योनि है? अगर नहीं तो हाथरस पुलिस इस अपमानजनक अभद्र अश्लील उपन्यास पर तहरीर दिए जाने के १० दिनों बाद एफआईआर क्यों नहीं कर रही है?
आइये पढ़ते हैं कि आपत्तिजनक वाक्य क्या है, जो इसमें बताया गया है।
“तब से माँ ने नए जने का नामकरण कर डाला- फोड़ा। जो भीतर उग आया था, हर लचके झटके पर बाहर फिसल आने। खुशमिजाज लिंगम। जिसके विस्फोट की तिथि दोक्टोर्ण ने नत्थी कर दी कि आते हफ्ते। तब तक चुपके से दुनिया पे झाँक आता, फिर वापस गुफा में सो जाता।
या फिर शिव जी का दहकता लिंगम जिसे पार्वती ने अपने भीतर खींच लिया थकी शीतल जल में दुबोके उसकी जलन बुझा दें? शशश शांत शांति, योनि ने भभकते इरादों पर पाने फेर दिया, स्थिर रहें, निर्वाण, साधना, सधादी जैसे हर शिव मंदिर में देख लो।
योनि और योगी!”
इस वाक्य पर सोशल मीडिया पर भी आपत्ति हुई, परन्तु चूंकि बुकर सम्मान इतना बड़ा शब्द है कि महादेव का अपमान उसमें दब जाता है। जिसे लाखों रूपए का सम्मान मिला हो, उसमें कुछ न कुछ तो ऐसा होगा ही।
परन्तु जब इस विषय में ट्वीट की बात या फिर शिकायत की बात गीतांजली श्री तक पहुँची तो वह दुखी हो गईं और आगरा में होने वाले समारोह में जाने से उन्होंने इंकार कर दिया।
इस उपन्यास में महादेव के लिए ही आपत्तिजनक नहीं लिखा गया है, बल्कि इसमें भारत विभाजन, जो कि आज तक हर भारतवासी के लिए एक रिसता हुआ घाव है, एक ऐसा दर्द है जो आज तक भुलाया नहीं जा सका है, उस पर कहीं न कहीं गलत तो लिखा ही गया है।
परन्तु यह भी बुकर के शोर में दब गया। यह पंक्ति कितनी घातक है, उसे समझना होगा। पृष्ठ 362 पर वह लिखती हैं
“ठीक उसी तरह किसी को क्या पता कि अरसों बरसों तक जो ये दो पंछी पंख में पंख टाँके उड़ते थे, सियासी जबान में दो तरफ के थे, तीतर वहीं पठानों के बीच का बाशिंदा और कौवा फालतू में अलग बने भारत का!”
यह जो शब्द है कि फालतू में अलग बने भारत का, यह बहुत ही परेशान करने वाला है। क्या लेखिका का मंतव्य यह है कि पाकिस्तान एक मुल्क था, जिसे काटकर फालतू में ही भारत बना दिया गया? यह वाक्य सभी को परेशान करने वाला होना चाहिए था, परन्तु इसे भी कथित नए शिल्प के शोर में दबा दिया गया और यही गुट है जो सरल संस्कृतनिष्ठ भाषा में लिखी गयी रचनाओं को दुरूह कहता है! यह हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य है कि जो सरस भाषा लिखता है और जो लोक के साथ संवाद करता है, उसे धकेल कर पिछड़ा कह दिया जाता है और जो भारत, महादेव आदि सभी के विषय में कहीं न कहीं अपमानजनक लिखता है, भाषा का अपमान करता है, शिल्प को मारता है, उसे मात्र इस कारण कि पश्चिम ने चूंकि उस रचना के अनुवाद को पुरस्कृत किया है, बड़ा लेखक माना जाता है!
अब चूंकि उन्होंने व्याकरण आदि में इतनी स्वतंत्रता ली है कि यह समझ ही नहीं आ रहा है कि लिखा क्या है? अब कौवा फालतू में अलग बने भारत का बाशिंदा है?
क्या वास्तव में भारत बना है और वह भी फालतू में?
क्या देश के प्रति इतना अपमानजनक और देश के अस्तित्व पर प्रश्न उठाना भी रचनात्मक स्वतंत्रता में आएगा? जैसा कि ओम थानवी बीबीसी में शुभज्योति घोष से बात करते हुए लिखते हैं कि “इन लोगों ने उनका बैकग्राउंड देख लिया। ये जेएनयू वाली हैं। बाकी इन्होंने साहित्य तो पढ़ा नहीं है। हमारे यहां किसी खेल में पुरस्कार जीतने वालों को प्रधानमंत्री सम्मानित करते हैं लेकिन हिंदी की किसी लेखिका ने पहली बार बुकर जीता और उन्होंने बधाई तक नहीं दी।”
परन्तु ओम थानवी यह भूल गए कि खिलाड़ी तिरंगे की शान के लिए खेलते हैं न ही वह अपने लोक का अपमान करते हैं और न ही वह अपने देश की माटी का अपमान करते हैं और न ही वह उस देश को, जिसके सम्मान के लिए पसीना बहाते हैं यह लिखते हैं कि “फालतू में बने भारत का!”
काश कि आप उस क्षण के गौरव को अनुभव कर पाते जब भारत का तिरंगा किसी खिलाड़ी के पदक लेने के साथ लहराया जाता है तो वह भारत का आभार व्यक्त करता है, उसे “फालतू में बना हुआ” नहीं कहता!