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Friday, March 29, 2024

गिरिजा टिक्कू पर लिखी गयी डॉ. दिलीप कौल की वह कविता, जिसे सभी को पढ़ाया जाना चाहिए था, पर हिन्दी का वामपंथी लेखन मौन रहा!

कश्मीर फाइल्स फिल्म में गिरिजा टिक्कू के विषय में देखकर सभी हतप्रभ हैं। ऐसा नहीं है कि इस विषय में लोगों को पता नहीं था। परन्तु पता होना और उसे अनुभव करना दो अलग अलग बातें हैं। नब्बे का दशक भारतीय राजनीति के लिए तो महत्वपूर्ण था ही, भारत के हिन्दी लेखन के लिए भी महत्वपूर्ण था। क्योंकि उसने इस समय के बाद अपना पलड़ा चुन लिया था, अपनी दिशा चुन ली थी। उसने यह निर्धारित कर लिया था कि उसे कहाँ जाना है। उसने यह निर्धारित कर लिया था कि अब उसे हिन्दू लोक से एकदम अलग जाना है और हिन्दू अस्मिता पर प्रहार करना है एवं कट्टर इस्लामी हो जाना है।

तभी गिरिजा टिक्कू पर यह कविता जब डॉ दिलीप कौल ने लिखी थी, तो इस कविता पर चर्चा नहीं हुई। इस कविता के विषय में लोगों को पता ही नहीं था। गिरिजा टिक्कू की मृत्यु और गिरिजा टिक्कू को धोखे से बुलाकर आरी से काट देना, इन दोनों में बहुत अंतर है। इसी अंतर को बताना था, हिन्दी के साहित्य जगत को, परन्तु वह उस समय की इतनी बड़ी घटना के प्रति निरपेक्ष रहा।

दिलीप कौल गिरिजा टिक्कू का पोस्टमार्टम कविता में लिखते हैं:

सर के बीचोंबीच

चलाई गई है आरी नीचे की ओर

आधा माथा कटता चला गया है

आधी नाक

गर्दन भी आधी क्षत विक्षत सी

बिखर सी गई हैं गर्दन की सात हड्डियां

फिर वक्ष के बीचों बीच काटती चली गई है नाभि तक आरी

दो भगोष्ठों को अलग अलग करती हुई

दो कटे हुए हिस्से एक जिस्म के

जैसे एक हिस्सा दूसरे को आईना दिखा रहा हो

………………………………..

दोनों हिस्सों पर

एक एक कुम्हालाया सा वक्ष है

जैसे मुड़ी तुड़ी पॉलिथीन की थैली

नहीं जैसे एक नवजात पिल्ले का गला घोंटकर

डाल दिया गया हो

एक फटे पुराने लिहाफ़ से निकली

मुड़ी तुड़ी रुई के ढेर पर ..।

ये पंक्तियाँ देह में सिहरन उत्पन्न करती हैं। यह कल्पना ही दर्द के कारण आत्मा कंपा देती है कि एक जिंदा देह को कैसे आरी से काटा होगा? पीड़ा के अथाह सागर का अनुमान लगाना ही असंभव है, परन्तु दिलीप कौल इसे लिखते हैं, जिससे कि लोग जानें, पर यहाँ पर शून्य है! मौन का शून्य! आम पाठक के पास यह दर्द जा ही नहीं रहा! आम पाठक बस यही पढ़ रहा है कि कश्मीर से विस्थापित होकर जम्मू चले गए कश्मीरी पंडित, जगमोहन ने भगा दिया?

क्या कोई भी समुदाय मात्र किसी के कहने पर चला जाएगा कहीं? दिलीप कौल की इसी कविता पर हम आते हैं, तो देखिये कि उन्होंने क्या लिखा है? उन्होंने लिखा है

एक हिस्से की एक आंख में भय है

और दूसरे हिस्से की एक आंख में पीड़ा……………………

……………………

देखो यह शव परीक्षण की भाषा नहीं है

यहां उपमाओं के लिए

कोई स्थान नहीं है..।

पर क्या करें जब बीच से दो टुकड़ों में बंटा शव हो

तो इच्छा जागृत होती ही है समझने की कि

कैसा लगता होगा वह अस्तित्व

दो टुकड़ों में बंटने से पहले

कल्पनाएं खुद ही उमड़ पड़ती हैं

और भाषा बाह्य परीक्षण और आंतरिक परीक्षण की शब्दावलियों को लांघकर

उपमाओं के कवित्व को छूने लगती है

सच में, क्या हमने कभी कल्पना भी की कि कैसा अनुभव हो रहा होगा उस समय? भय और पीड़ा? कहाँ और कितनी? और क्या पोस्टमार्टम करते समय किसी को यह देखकर उल्टी नहीं आ गयी होगी कि कैसे आधा आधा काटा गया? क्या कोई उपमा दी भी जा सकती है? परन्तु हिन्दुओं के दर्द के इस उदाहरण को साहित्य में ऐसे कर दिया गया, जैसे एक साधारण घटना रही हो!

क्षमा करें औरत थी,

बीस बाईस साल की

इसके कान ऊपर की ओर भी छिदे हुए हैं

सुहाग आभूषण अटहोर पहनने के लिए

(अटहोर ज़ोर से खींच लिया गया है क्योंकि कानों के ऊपरी छेद

कट कर लंबे हो गए हैं।)

कोष्ठक में मेरी यह व्यावसायिक टिप्पणी है परन्तु

कल तक सब के साथ इन कानों को भी फाड़ती थीं भुतहा चिल्लाहटें

हम क्या चाहते आज़ादी”

और दोनों कानों के श्रवण स्नायुओं से होते हुए

इन चिल्लाहटों का आतंक पहुंच गया होगा

मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्धों में

जो कि अब अलग अलग पड़े हैं

खोपड़ी के दो अलग अलग हिस्सों में

हर गोलार्द्ध में अपने अपने हिस्से का आतंक है

पीड़ा है

लेकिन मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि

आरे पर काटे जाने से पहले ही वह मर चुकी थी

क्योंकि जिस्म के कटे हुए हिस्सों से

ख़ून ही नहीं बहा

हृदय का धड़कना तो पहले ही बंद हो चुका था

उसको महसूस ही नहीं हुई होगी वह असीम पीड़ा..

फिर जो वह लिखते हैं, उसे ही समझने की आवश्यकता है! कि उसे जानबूझकर ही काटा गया था। ऐसा नहीं था कि उसे साधारण मृत्यु नहीं दी जा सकती होगी?  परन्तु ऐसा नहीं किया गया, उसे जानबूझकर क्रूरतम मृत्यु दी गयी जो सदियों से कट्टरपंथी इस्लाम का मुख्य चेहरा रही है!

मूर्ख हो तुम

उसे तो दो टुकड़ों में काटा ही इसलिए गया था

कि पीढ़ियों तक बहती रहे यह पीड़ा

तुम बोलो न बोलो

कान सुनें न सुनें

आरी चलती रहे खोपड़ी को बीच में से काटकर पहुंचे भगोष्ठों तक

कि तुम्हें याद रहे

मातृत्व का राक्षसी मर्दन

जरा कल्पना कीजिये कि जून 1990 में लिखी गयी इस कविता को विमर्श के दायरे में लाया ही नहीं जाता है। और सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात यही है कि भारत में हिन्दी वामपंथी लेखक मंदिरों को गाली देने में इतना व्यस्त रहा और मंदिरों को लेकर नई पीढ़ी में इतना विष भर दिया कि कश्मीरी हिन्दुओं के साथ हुई पीड़ा को वह तब तक अनुभव नहीं कर पाई, जब तक उसने बड़े परदे पर उसे देख नहीं लिया!

जो दर्द दिलीप कौल ने जून 1990 में लिखा था, उसे नई पीढ़ी को अनुभव कराना ही इस फिल्म की सफलता है! तभी वामपंथी खेमा इस फिल्म को देखकर बौखलाया हुआ है!

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