भारत के लिबरल लेखक किस हद तक अंग्रेजों के गुलाम हैं, यह समय समय पर दिखाई देता रहता है! और अंग्रेज उनके लिए माईबाप से कम नहीं हैं। उनका मानना है कि यह अंग्रेज ही थे, जिनके कारण शिक्षा आई और यह अंग्रेज और मुग़ल ही थे, जिन्होनें हिन्दुओं को जीना सिखाया। उनके पैरामीटर्स तय हैं। सबसे पहले वह गांधी का सहारा लेते हैं और उसके बाद वह हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए मुगलों का सहारा लेते हैं और फिर अंत में स्थिति यह आ गयी है कि हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए वह अपने ही प्रिय गांधी जी को नकारकर अंग्रेजों को महान बनाने पर तुले हुए हैं।
हिन्दुओं की स्त्रियों को अपने हरम में लाने वाले और हरम को संस्थागत रूप देने वाले अय्याश अकबर का महिमा मंडन करने वाले लेखक मनिमुग्धा शर्मा (Manimugdha Sharma) ने अपनी पुस्तक तो अकबर की महानता पर लिखी है, मगर वह इतने गुलाम हैं कि वह अब गांधी जी के सत्याग्रह, जिसे स्वतंत्रता आन्दोलन का सबसे बड़ा हथियार कांग्रेस बताती आ रही है, उसे ही नकारने पर तुल गए हैं।
जहां कांग्रेस की सरकार बार बार यही लोगों पर थोपती आ रही है कि गांधी जी के कथित सत्याग्रह के कारण ही भारत को स्वतंत्रता मिली थी, तो वहीं ऐसे ‘इतिहासकार’ लेखक बार बार यह साबित करने में लगे हुए हैं कि गांधी जी या किसी और के कारण कथित “आज़ादी” नहीं मिली थी, वह तो अंग्रेज ही इतने उदार थे, इतने नैतिक थे कि उन्होंने भारत छोड़कर जाना उचित समझा। और यह कथित महान कोट इसलिए लिखा है, जिससे यह स्थापित किया जा सके कि केसरिया फासिस्ट लोगों को अपने साथ नहीं मिलाना चाहिए!
मनिमुग्धा शर्मा के ट्वीट को संक्षेप में समझा जाए तो यह आएगा निकलकर कि अंग्रेजों का दिल सॉफ्ट था, और उनमें नैतिकता थी, इसलिए उन्होंने गांधी जी को सत्याग्रह तो कम से कम करने दिया, नहीं तो नाजी तो यह नहीं करने देते और यह उन लोगों के लिए है, जो कहते हैं कि हमें केसरिया फासीवादियों को अपने साथ लेकर काम करना चाहिए!
ऐसे कई लेखक और पत्रकार हैं, जिनके लिए भारत या तो मुगलों से या फिर अंग्रेजों से आरम्भ होता है। अंग्रेजों से जिनका जीवन आरम्भ होता है, उन्हें मुग़ल बहुत महान लगते हैं। परन्तु एक ओर उन्हें अंग्रेजों को भी महान बताना है और फिर उन्हें गांधी जी को भी महान बताना है, नेहरू को भारत का निर्माता बताना है, और मुगलों को स्थापत्य कला लाने वाला बताना है।
इतने विरोधाभास वाले लेखकों की अपनी दुनिया होती है, और इसमें वह भारतीयों के साथ ही अन्याय करने वालों के साथ जाकर खड़े हो जाते हैं। मुगलों ने हिन्दुओं के साथ जो किया, उससे कहीं अधिक बढ़कर अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ किया। परन्तु औपनिवेशिक सोच से सिंचित ऐसे लेखक और पत्रकार, केवल यहीं तक सीमित हैं।
दूसरों की धरती को अपना समझना ही सबसे बड़ी अनैतिकता है
सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है कि अंग्रेजों के विरुद्ध यह संघर्ष क्यों हुआ था? वह यहाँ के शासक नहीं थे, उन्होंने छल से भारत को शिकार बनाया और जब वर्ष 1857 में एक संगठित विद्रोह से डर गए और फिर उन्होंने एक सुनियोजित तरीके से भारत की राजनीति को बदलने के लिए कदम उठाए। और कैसे संगठित तरीके से अंग्रेजी के वर्चस्व को स्थापित किया गया, और भारतीयों के एक बड़े वर्ग में हीनभावना का विस्तार किया गया।
उसके फल अभी तक ऐसे लेखकों के माध्यम से मिलते रहते हैं, जो बार बार अंग्रेजों की महानता के आगे नतमस्तक होते रहते हैं।
जबकि आरम्भ से ही उदाहरण बिखरे पड़े हैं कि कैसे अंग्रेजों ने भारतीयों पर अत्याचार किए। आज भी मेरठ के आसपास अंग्रेजों के अत्याचारों की कहानियां बिखरी पड़ी हैं। यहाँ तक कि दशहरे के दिन भी 9 क्रांतिकरियों को फांसी दे दी गयी थी। और तब से लेकर आज तक गगोल गाँव के लोग दशहरा नहीं मनाते हैं।
न जाने कितने लोगों के साथ अत्याचारों की हर सीमा पार कर दी थी।
अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का खामियाजा अभी तक भारत भुगत रहा है
अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था के साथ जो किया, उसका दुष्परिणाम भारत अब तक भुगत रहा है। एक अनुमान के अनुसार ब्रिटेन ने भारत से 1765 से लेकर 1938 की अवधि में 45ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की डकैती की थी। उन्होंने भारतीयों पर असंख्य कर लगाए और भारत का सामान बाहर निर्यात किया और लाभ को ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में एवं भारत को दबाने के लिए रक्षा जरूरतों पर किया।
उन्होंने नकद मुनाफे की फसलों के लिए भारत की फसलों की प्रवृत्ति बदल दी, जिसके कारण हजारों भारतीय अकाल का ग्रास बने, और जब भारत अंगरेजी शासन के अधीन था, उस दौरान 12 से 29 मिलियन भारतीयों की मृत्यु अकाल के कारण हुई थी और यह अकाल कोई प्राकृतिक अकाल नहीं था, बल्कि यह अंग्रेजों की नीतियों के कारण हुआ था। यहाँ तक कि विंस्टन चर्चिल ने तो यह तक कह दिया था कि “अकाल उनकी अपनी गलती से आया है क्योंकि खरगोशों के जैसे बच्चे पैदा करते हैं!”
इसीके साथ विभाजन में जो हत्याएं हुईं, उससे पहले जलियावाला हत्याकांड! यह सब तो वह हत्याकांड हैं, जो चर्चित रहे हैं, अंग्रेजों के अत्याचार तो कहे नहीं जा सकते हैं। परन्तु भारत अब उन घावों के साथ जीना सीख रहा है, वह आगे बढ़ रहा है। हिन्दू आगे बढ़ रहे हैं, परन्तु ऐसे में जब ऐसे लेखक इस प्रकार का अंग्रेजों की नैतिकता का गुणगान करते हुए गाना गाते हैं, तो फिर से घाव उधड़ जाते हैं।
इतना ही नहीं अंग्रेजों ने भारतीय महिलाओं को भी अपनी हवस के लिए आधिकारिक रूप से चकलाघरों में बैठाया था। एक पुस्तक है, जिसे अंग्रेज महिला ने लिखा है क्योंकि वह अंग्रेजों के कैंट में उन भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा देखकर दहल गयी थी, तो उसने अपनी साथियों का आह्वान किया था कि अन्याय का विरोध करें। the Queen’s Daughters in India।
इस पुस्तक में सविस्तार है कि कैसे लड़कियों को सेक्स स्लेव बनाया जाता था।
परन्तु ऐसे असंख्य अत्याचार भारत के वोक गुलाम लेखकों को दिखाई नहीं देते हैं! और अंग्रेजों को नैतिक रूप से बेहतर बताते हुए यह कितने हास्यास्पद लगते हैं, यह भी यह लोग नहीं समझ सकते हैं!
अंग्रेजों ने भारत के बाहर भी स्थानीय लोगों के साथ क्या अत्याचार किए थे, वैसे तो यह छिपा नहीं है, ऐसा ही एक था ज़िम्बाब्वे में:
परन्तु दुःख की बात यह है कि लिबरल पिछड़े लेखकों के लिए स्थानीय लोगों की पीड़ा शून्य है और अंग्रेजी बोलना ही संवेदना और आधुनिकता की एकमात्र निशानी है
Muslims did not take part in India’s freedom fight. History says they collaborated with the English to foil the popular uprising of people against the British. So such kind of pampering is expected from a Muslim writer. Indeed, the Muslims solicted separate Muslim state by punching together Muslim dominated regions of India. They preferred a Muslim state to India’s freedom from the British.