द कश्मीर फाइल्स अब सफलता की ओर अग्रसर हो रही है। अपनी लागत यह फिल्म निकाल चुकी है, और अब वह उस सफलता की ओर अग्रसर है, जिसके विषय में आज से कुछ माह पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। परन्तु इसके आने से लिबरल वर्ग या मानवता की दुहाई देने वाला वर्ग क्यों दुखी है? क्यों इसके खिलाफ लेख लिखे जा रहे हैं? जबकि यह एक बहुत ही कम बजट की फिल्म है, जिसमें कथित रूप से कोई भी बिकाऊ कलाकार नहीं था, और जिसका प्रमोशन भी बॉलीवुड ने नहीं किया।
फिर भी फिल्म सफलता के झंडे गाढ़ रही है, और इसके कारण हिन्दी के लेखक वर्ग में बहुत ही खलबली मची हुई है। वह लोग अब खुलकर इस फिल्म के विरोध में उतर आए हैं। हालांकि यह फिल्म एक ऐसा दस्तावेज बन गयी है, जिसमें दर्द दर्ज है। परन्तु अब वह वर्ग भड़क गया है, जो इतने वर्षों तक नैरेटिव तय करता रहा था। जो इतने वर्षों तक अपने तमाम नैरेटिव बनाता रहा, कि औरंगजेब ने मंदिर नहीं तोड़े थे, वह तो बेचारा टोपियाँ सीकर गुजारा करता था, या फिर शहजादा सलीम प्यार का मसीहा था, या फिर सबसे नया कि कश्मीरी हिन्दुओं को तो जगमोहन ने बचाकर घाटी से बाहर निकाला था।
ये वह नैरेटिव थे, जो बाहर विदेशो में जाकर विमर्श का निर्माण करते थे, ये वह नैरेटिव थे जो बार बार यही प्रमाणित करते थे कि हिन्दुओं के साथ कुछ नहीं हुआ था, ब्राह्मण दलितों पर अत्याचार कर रहे थे और मुगलों ने उन्हें बचाया। फिर वह यह नहीं बताते कि अकबर और बाबर स्वयं लिखते हैं कि उन्होंने कटे हुए सिरों की मीनार बनाई तो किसके सिरों की मीनार बनी थी?
यह नैरेटिव का संघर्ष है:
आइये इस बहाने नैरेटिव विमर्श पर बात करते हैं:
- ब्रिटिश सरकार में सिविल सर्वेंट रहे डेनिस किनकेड ने शिवाजी पर एक पुस्तक लिखी शिवाजी द ग्रांड रेबल। इस पुस्तक में शिवाजी और मराठों या कहें भारतीयों की स्वतंत्रता की उत्कंठा के विषय में लिखा है। इस पुस्तक के प्राक्कथन में ही लिखा है कि भारत के इतिहास में मुगलों का वर्णन हुआ पर उन सभी क्षेत्रीय क्षत्रपों के इतिहास को उपेक्षित किया गया जिन्होनें मुगलों से लगातार युद्ध किया। डेनिस भारत में 1891 से 1926 तक रहे और उन्हें मराठी इतनी भली प्रकार आती थी कि वह अपने निर्णय भी बहुधा उसी भाषा में दिया करते थे। इससे वह मराठों को और भली प्रकार से समझ पाए और जान पाए। यह पुस्तक मराठों या कहें भारतीयों के उस गौरव के बारे में हैं जिसने भारतीयों में राष्ट्रबोध को विकसित किया। इसी में वह आगे कहते हैं कि यह पुस्तक उस नायक के बारे में है जिसके समाज ने आगे जाकर अंग्रेजेों से लोहा लेने वाले नाना साहिब व रानी लक्ष्मीबाई को जन्म दिया। डेनिस ने भी झांसी की रानी को सर्वश्रेष्ठ एवं सबसे बहादुर कहा है।
- इसी प्रकार एक और अंग्रेज अधिकारी थे एडविन आर्नोल्ड।, जब उन्होंने भारत को जाना तो गौतम बुद्ध को जानकर वह दंग रह गए और वह भारत की समृद्ध विरासत को अनुभव कर हैरान रह गए थे। उन्होंने भगवत गीता का अनुवाद अंग्रेजी में किया परन्तु उन्होंने जो सबसे उल्लेखनीय कार्य किया वह था, गौतम बुद्ध पर एक मौलिक ग्रंथ को लिखना अर्थात लाइट ऑफ एशिया। 1832 में ससेक्स, इंग्लैण्ड में जन्में एडविन अर्नाल्ड। जो चौबीस वर्ष में पुणे में डक्कन कॉलेज में प्रधानाध्यापक के पद पर भारत आए। और भारतीय आत्मज्ञान की परंपरा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। एडविन आर्नोल्ड यह देखकर चकित थे कि आखिर हिन्दू भारत की पावन भूमि से उपजे इस मत में ऐसा क्या विशेष रहा कि वह बिना खून का एक कतरा बहाए पूरे एशिया के प्रमुख मतों में से एक मत बन गया।

पहली पुस्तक ऐतहासिक है तो दूसरी ऐतिहासिक व धर्मिक दोनों ही है। दोनों में ऐतिहासिक घटनाओं का पुनर्पाठ है। हालांकि भारत में भारतीय भाषाओं में ही पुनर्पाठ की परंपरा रही है, यही कारण था कि रामायण से लेकर बुद्ध तक के बार बार पुनर्पाठ हुए। लेखक ने अपने तरीके से विश्लेषण किया, प्राचीन ग्रंथों को पढा, उन्हें ग्रहण किया और फिर उसका पुर्नपाठ किया पुनर्लेखन किया और यही कारण है कि भारत मे विमर्श की एक लंबी परंपरा चली और आज तक चली आ रही है।
भारत में अनुवाद की एक लंबी परंपरा रही थी, अनुवाद जो कि संस्कृत साहित्य के अनुसार प्राप्तस्य पुन: कथनम’ या ज्ञातार्थस्य प्रतिपादनम्’ होता था, और ट्रांस्लेशन से सर्वथा भिन्न होता था।
परन्तु भारत में अंग्रेजों ने एक नए प्रकार के अनुवाद का आरम्भ किया, और वह था छलपूर्ण भाषांतरण! जिसमें हिन्दू धर्म के प्रतीकों, हिन्दू धर्म के इतिहास को अपनी मान्यताओं के अनुसार पश्चिमीकरण करने का अभियान चलाना आरम्भ कर दिया। जो कश्मीर ऋषि कश्यप के नाम पर था, उसे उस काल से देखना आरम्भ कर दिया, जब वह अपनी हिन्दू पहचान को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा था।
लालितादित्य को छिपा दिया गया, कोटा रानी का संघर्ष बिसरा दिया गया, और शेष रह गया इस्लामी कश्मीर का विमर्श! और भारत का हिन्दू इतिहास कौन छलपूर्वक मिटा रहा था? भारत का इतिहास वह अब्राह्मिक रिलिजन छलपूर्वक मिटा रहा था, जिसने अपने रिलीजियस टेक्स्ट में तनिक भी परिवर्तन की अनुमति नहीं दी थी।
उस अब्राह्मिक रिलिजन ने, जिसने अपने रिलीजियस टेक्स्ट में परिवर्तन करने का प्रयास करने वाले को जिंदा जला दिया गया था। यहां तक कि प्लेटो का भी फ्री तरीके से अनुवाद करने पर फ्रांस के अनुवादक एटिन डोलेट (1509-46) को जिन्दा जला दिया गया था। उन पर ईशनिंदा का आरोप लगा था। William Tyndale सहित कई भाषांतरकारों को बाइबिल का अनुवाद करने पर जिंदा जला दिया गया था।
और नैरेटिव क्या बनाया कि भारत में ब्राह्मण शूद्रों के कान में वेदों का शब्द जाने पर पिघला हुआ सीसा डालते थे।
यह नैरेटिव बनाया कि ऐसे ब्राह्मणों से मुस्लिमों ने दलितों को बचाया, यदि ऐसा था तो अभी तक पसमांदा और अशराफों में भेद क्यों है?
आज जैसे कश्मीर में यह कहकर हिन्दुओं के साथ हुई हिंसा को सही ठहराने का कुप्रयास किया जाता है कि उनका एकाधिकार था नौकरियों और व्यापार तो वहीं भारत का जो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था, उसके सैनिकों पर नकली कविता के माध्यम से यह आरोप लगाया गया कि क्रांतिकारियों ने एक अंग्रेज अधिकारी और उसकी पत्नी को जिंदा जला दिया! क्रिस्टीना रोजेटी की एक कविता इन द राउंड टावर ऑफ झांसी, में लिखा कि 1857 की क्रांति के दौरान एक अंग्रेज सैनिक अधिकारी और उसकी पत्नी क्रांतिकारियों से घिर गए हैं, और उन्होंने आत्महत्या कर ली, क्योंकि वह उस भीड़ में घिर गए है।
वास्तविकता में ऐसे किसी अधिकारी का कोई र्रिकॉर्ड नहीं मिलता है और क्रिस्टीना रोजेटी शायद भारत आई भी नहीं थी। तो संभवतया ऐसे में प्लांट किए गए समाचारों के आधार पर यह कविता लिख दी गयी थी। ऐसा ही आज हो रहा है, जो भुक्तभोगी हिन्दू हैं, उनसे उनके दर्द नहीं पूछे जा रहे हैं, बल्कि बार बार नैरेटिव यह बनाया जा रहा है जैसे हिन्दुओं के साथ कुछ गलत हुआ ही नहीं!
हिन्दुओं को हर प्रकार से प्रताड़ित करने के उपरान्त भी अब्राह्मिक रिलिजन कथित शान्ति, अमन और विकास के प्रतीक बने हुए हैं, एवं सदियों से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता हिन्दू अपने ही जातिविध्वंस के लिए दोषी ठहरा दिया जाता है।
साहित्य में नरेंद्र कोहली ने यह समस्त नैरेटिव तोड़े थे, तभी उन्हें एक पूरे गैंग द्वारा लेखक मानने से इंकार किया जाता रहा, परन्तु लोग रुकें नहीं, उन्होंने वामपंथियों के प्रमाणपत्र की परवाह नहीं की, तो वहीं अब फिल्मों में विवेक अग्निहोत्री निशाना है, क्योंकि वह भी नैरेटिव ध्वस्त करना जानते हैं और कर रहे हैं!
तभी अब तक नैरेटिव गढ़ने वाले बिलबिला रहे हैं!