भारत में इन दिनों पसमांदा मुसलमानों को लेकर एक बहस चल रही है और यह कहा जा रहा है कि देशी मुसलमानों के साथ अत्याचार हो रहे हैं। और यह अत्याचार और कोई नहीं बल्कि उच्च जाति वाले मुस्लिम कर रहे हैं। एक बार प्रश्न यही उठता है कि क्या हर प्रकार के भेदों से मुक्त होने का दावा करने वाला इस्लाम वास्तव में इससे मुक्त है?
भारत के मुस्लिमों को देखकर ऐसा नहीं लगता है। इस सम्बन्ध में इन दिनों डॉ फैयाज़ अहमद फैजी के लेख न केवल पढ़े जा सकते हैं, बल्कि वह बार बार इस्लाम में व्याप्त जाति व्यवस्था और उसके कारण देशी या मुल्की मुसलमानों के साथ हुए अन्याय पर लिखते हैं। और बार बार यही प्रमाणित होता है कि मुल्की मुसलमानों के साथ जो हो रहा है, वह उन पर अशराफ द्वारा ही किया जा रहा है।
हिन्दू, इन मुस्लिमों के साथ अत्याचार करते हैं, यह झूठ अशराफ मुसलमानों द्वारा बहुत ही सुविधाजनक रूप से फैलाया गया है, जो उनकी राजनीति के अनुकूल है। बार बार यह कहा जाता है कि मुस्लिम खतरे में हैं, परन्तु वह किससे खतरे में है, इस पर बात नहीं होती। कबीरदास ने इस्लाम में व्याप्त इन्हीं कुरीतियों के विषय में बात की थी, उन्होंने निडरता से अपनी बात रखी थी, परन्तु मुसलमानों का जो सत्ता प्रेमी वर्ग है उसके लिए कबीर उसके आदर्श नहीं हैं, क्योंकि कबीर जुलाहे थे। उनके लिए देश तोड़ने वाले इकबाल आदर्श हैं, क्योंकि वह उनकी अलग पहचान की बात करते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि यह भेद क्या इतिहास में मिलता है? क्या इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक कुछ लिखा है? भारत में मंदिरों के विध्वंस को उचित ठहराने वाले और इस्लाम की जमकर प्रशंसा करने वाले महाविद्वान राहुल सांकृत्यायन ने “अकबर” का महिमा मंडन करते हुए एक पुस्तक लिखी है, जिसमें अकबर को भारत के सांस्कृतिक पैगम्बर की संज्ञा तक दे दी है। परन्तु इस्लाम द्वारा हिन्दुओं के विध्वंस को उचित ठहराने के बाद भी वह इस्लाम के वर्गभेद को अनदेखा नहीं कर पाए। क्योंकि उसे अनदेखा किया ही नहीं जा सकता था। जैसा डॉ फैयाज़ लिखते हैं कि
“बादशाह अकबर ने कसाई और मछुआरों के लिए राजकीय आदेश जारी किया था कि उनके घरों को आम आबादी से अलग कर दिया जाए और जो लोग इस जाति से मेलजोल रखें, उनसे जुर्माना वसूला जाए। अकबर के राज में अगर निम्न श्रेणी का व्यक्ति किसी उच्च श्रेणी के किसी व्यक्ति को अपशब्द कहता था तो उस पर कहीं अधिक अर्थदंड लगाया जाता था।“
अकबर में राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं
“अरब आदमी नहीं, अरब खून के महत्व को जरूर माना जाता था,”
फिर वह लिखते हैं
“अकबर के समय तक शेख, सैय्यद, मुग़ल, पठान का भेद गैर मुल्की मुसलमानों में स्थापित हो चुका था। शेख के महत्व को हम अब इसलिए नहीं समझ पाते क्योंकि अब वह टके सेर है, वैसे ही जैसे खान। तुर्कों और मंगोलों में खान राजा को कहते हैं। 1920 ई तक बुख़ारा में सिवाय वहां के बादशाह के कोई अपने नाम के आगे खान नहीं लगा सकता था। युवराज भी तब तक अपने नाम के आगे खान नहीं जोड़ सकता था, जब तक कि वह तख़्त पर न बैठ जाता।”
फिर वह अकबर के समय इस्लाम में उसी मजहब में व्याप्त वर्ग भेद के विषय में लिखते हैं
“शेख सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे! शेख का अर्थ हुआ गुरु या सत पुरुष।——————– उनके बाद पैगम्बर के अपने वंश और रक्त से संबंधी होने से सैय्यदों का नंबर आता था। मध्य एशिया में उन्हें खोजा कहा जाता था। मुग़ल पहले तुर्क कहाए जाते थे।”
“पठान दसवीं सदी तक पक्के हिन्दू थे।”
इन चारों के बाद हिन्दुओं से मुसलमान बने लोग आते थे। ————- मुल्की मुसलमान दूसरे मुसलमानों के सामने वही स्थान रखते थे, जो अंग्रेजों के काल में एंग्लो-इन्डियन। मुल्की मुसलमानों में उच्च और नीच (अशरफ और अर्जल) दो तरह के लोग थे। सारे ही मुसलमानों में भारत में सबसे अधिक संख्या अर्जलों की थी, मगर वह अपने ही सहधर्मियों के भीतर अछूतों से थोड़े ही बेहतर समझे जाते थे। जब तक अंग्रेजों ने दास प्रथा को समाप्त नहीं किया। मुसलमान होने से ही कोई दास बनने से छुट्टी नहीं पा सकता था।”
ऐसा नहीं है कि इस विषय में मुल्की मुसलमानों को पता नहीं है कि कैसे उन्हें मोहरा बनाकर हिन्दुओं के विरुद्ध प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि आरफा खानम शेरवानी जैसी कथित अशराफ पत्रकार डॉ फैयाज के सवालों का जबाव देने के स्थान पर टॉक शो से चली जाती हैं। अभी भी पाकिस्तान में कुछ लड़कियों को कुरआन से शादी करने के लिए बाध्य किया जाता है, जिन्हें कुरान की दुल्हनें कहा जाता है। और मीडिया के अनुसार आर्थिक होने के साथ साथ इसके कारण श्रेष्ठता से भी जुड़े हैं क्योंकि सैय्यद खुद को श्रेष्ठ मानते हैं!
हक़ बख्शीश पर हमने कई महीने पहले एक स्टोरी की थी, जिसमें हमने अपने पाठकों को यह बताया था कि कैसे सैयद परिवारों की लड़कियों को “पाक खून” और उच्च जाति का मानते हुए कुरआन से शादी करने पर मजबूर कर दिया जाता है। और इसके पीछे दौलत के भी बंटने का भी कारण है।
हालांकि इस प्रथा पर पाकिस्तान में रोक है, परन्तु अभी भी यह चली आ रही है। क्योंकि इसके विरोध में रिपोर्ट नहीं की जाती है!
तो इस्लाम में खून के आधार पर श्रेष्ठता के आधार पर कई कुरीतियाँ हैं, जो अब तक चली आ रही हैं, हाँ वामपंथियों के लिए कहना बहुत ही सरल होता है कि इस्लाम भारत में आकर ही जातियों में बंटा, हालांकि वह भी झूठ से अधिक कुछ नहीं है।