आज पूरा भारत महाशिवरात्रि मना रहा है। जहाँ-जहाँ भोले के भक्त हैं, वहां- वहां यह पर्व अत्यंत उल्लास से मनाया जा रहा है। परन्तु कश्मीर जहाँ का मुख्य पर्व ही शिवरात्रि है, जहां पर महाशिवरात्रि की पूर्व संध्या पर फाल्गुन त्रयोदशी को हेरथ अर्थात हररात्रि मनाया जाता है, और फिर दूसरे दिन महाशिवरात्रि को उत्सव मनाया जाता है, वहां पर कई चेहरों पर मायूसी ही नहीं निराशा भी है।
यह निराशा ऐसा नहीं है कि कहीं किसी और से आई है, यह निराशा उनके अपने ही लोगों द्वारा उत्पन्न है अर्थात सरकार द्वारा। पीएम पैकेज पर कश्मीर में नियुक्त हुए कश्मीरी पंडित पिछले कई महीनों से आन्दोलन कर रहे हैं। कई महीनों से वह सरकार से अनुरोध कर रहे हैं। और यह अनुरोध बहुत कठिन हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है। यह अनुरोध बहुत जटिल हो ऐसा भी नहीं प्रतीत होता है। दरअसल यह अनुरोध उनके जीवन की रक्षा से जुड़ा हुआ है।
पिछले वर्ष लगातार ही पूरे देश ने देखा था कि कैसे कश्मीरी हिन्दू एवं भारत के दूसरे भागों से गए हुए हिन्दू उन आतंकियों की गोलियों का शिकार हुए थे, जो कश्मीर पर किसी हिन्दू को नहीं देखना चाहते हैं।
क्यों हैं कश्मीर पर आतंकियों की दृष्टि
कश्मीर पर आतंकियों या कहें इस्लामिक आतताइयों की दृष्टि इस सीमा तक क्यों है कि वह किसी भी हिन्दू को वहां पर रहने के नाम पर बौखला जाते हैं? कल्हण कश्मीर के इतिहास को समेटती हुई अपनी पुस्तक राजतरंगिनी में कश्मीर के इतिहास का वर्णन करते हैं, वह विस्तार से बताते हैं कि कैसे कश्मीर की जड़ें कश्यप ऋषि से जुड़ी हैं।
उनकी राजतरंगिनी की प्रथम तरंग में ही यह विस्तार से वर्णन है कि कैसे कश्मीर पुराकाल में सतीसर था और कैसे वहां पर जलोद्भव असुर निवास करता था और फिर वहां पर उस असुर का वध करने के लिए प्रजापति कश्यप ने द्रुहिण, उपेन्द्र, रूद्र से प्रार्थना की कि वह देवताओं के साथ जलोद्भव के वध के लिए उतरें। जब असुर जलोद्भव का वध किया गया तो सतीसर के उस स्थान पर काश्मीर मंडल की स्थापना हुई।
वह कश्मीर जिसका उल्लेख रामायण में है, महाभारत में है और जहां पर विमर्श का आरम्भ है, वहां पर उन्हीं हिन्दुओं को नहीं रहने दिया जा रहा है जो उन्हीं कश्यप ऋषि की पहचान को आगे लेकर जा रहे हैं, जिन्होनें जलोद्भव असुर के वध के लिए रूद्र का आह्वान किया गया।
नीलमत पुराण में जलोद्भव के उत्पात का वर्णन प्राप्त होता है। रघुनाथ सिंह द्वारा कल्हण की राजतरंगिनी के अनुवाद में विस्तार से कश्मीर के इतिहास का वर्णन प्राप्त होता है। वह लिखते हैं कि कैसे जलोद्भव असुर का वध किया गया और फिर चूंकि वह जल में था, तो जल को निकाला गया और जल वराहमूल अर्थात वर्तमान में वारामूला से होकर निकला!
जो हिन्दू हैं, वह वारामूला को वराहमूल के रूप में आत्मसात किए हुए हैं, और वारामूला वाले लोग उस इतिहास का सामना नहीं कर सकते हैं, जो वराहमूल से जुड़ा हुआ है।
इसी में लिखा है कि कहा जाता है कि कश्मीर में एक भेद पर्वत था। उस पर देवी सरस्वती अपने वाहन मोर पर रहती थीं। वह पर्वत भी तोडा गया और सरस्वती एवं पार्वती ने सरिताओं का रूप धारण किया।
इसी पुस्तक में आगे लिखा है कि स्कन्द पुराण में 75 देशों और उनके ग्रामों की संख्या दी गयी है। काश्मीर का नाम उन 75 देशों की तालिका में 32वें स्थान पर आता है। काश्मीर के ग्रामों की संख्या उस समय 68,000 दी गयी है। श्रीस्ताइन ने अपने समय में कश्मीर के ग्रामों की संख्या की गणना करके उनकी संख्या 66063 दी गयी है। अबुल फज़ल ने भी आईने अकबरी में ग्रामसंख्या 66971 बताई है। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि पुराणों में वर्णित काश्मीर संबंधी बातें कपोलकल्पित नहीं हैं।
और जब कश्मीरी हिन्दू वहां पर रहेंगे तो जब वहां पर अबुल फजल के हवाले से कश्मीर के इतिहास को जोड़ा जाएगा तो फिर धीरे धीरे पुराणों की बात होगी और पुराणों की बात आते ही यह बात सामने आएगी कि दरअसल काश्मीर का विमर्श कहाँ से आरम्भ हुआ था और किसका है!
यही कारण है कि वह पहचान के इस विमर्श से भय खाते हैं, उनमें विमर्श के उस छोर पर जाने का साहस नहीं है क्योंकि उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा और अस्तित्व के इस युद्ध में वह कश्मीरी हिन्दुओं को इसलिए मार देना चाहते हैं क्योंकि न वह रहेंगे और न ही विमर्श रहेगा!
और तभी राजतरंगिणी जो कश्मीर का तो इतिहास है ही, बल्कि पूरे भारत और हिन्दुओं के इतिहास को बताती है, उसे मात्र साहित्य तक सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है एवं किया ही गया है। परन्तु इसके आलोक में वह चिंता छिपाने का भी प्रयास है जो कल्हण ने व्यक्त की थी कि यदि काश्मीर अरक्षित हो गया तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा!”
यही दिख भी रहा है। कश्मीर को विमर्श के स्तर पर नष्ट किया जा चुका है और विमर्श में “कश्मीरियत” जिंदा है, परन्तु कौन सी कश्मीरियत, इस पर कोई बात नहीं करता! कश्यप ऋषि के कश्मीर का विमर्श विलुप्त हो गया है एवं विमर्श यह बनाया जा रहा है कि बाहरी आतंकवादियों से पीड़ित तो स्थानीय मुस्लिम भी हैं।
यह सत्य है कि बाहरी आतंकियों से पीड़ित स्थानीय मुस्लिम भी हैं, परन्तु पीड़ित होने वाले वही मुट्ठी भर मुस्लिम रहे हैं, जो कश्यप ऋषि की पहचान वाले कश्मीरी हिन्दुओं के साथ थे, अर्थात जो पहचान के इस संघर्ष में कश्यप ऋषि की पहचान के साथ हैं!
सत्य क्या है, उसे वह कहानियां बताती हैं, जो हाल ही में कश्मीर फाइल्स में दिखाई गई थीं या फिर जो कभी कभी सामने आकर अपनी बात अपने आप कहती हैं।
कश्मीरी हिन्दू जीनोसाइड का शिकार हैं। अर्थात जातिविध्वंस का! उनका और उनके साथ शेष हिन्दुओं का विमर्श से ही विध्वंस किया जा रहा है, उनकी पीड़ाओं को चुन चुन कर निकाला जा रहा है और यही कारण है कि आज जब वह लोग अपने अस्तित्व को लेकर यह संघर्ष कर रहे हैं तो विमर्श में नहीं आ पा रहा है।
वह कश्मीर से बाहर जम्मू में सुरक्षित स्थानान्तरण की मांग कर रहे हैं, क्योंकि घाटी में वह नहीं रह सकते क्योंकि उन्हें चुन चुन कर निशाना बनाया जा रहा था और अभी भी तलाश जारी है ही!
यह लोग मांग कर रहे थे कि उन्हें इस महाशिवरात्रि पर वेतन दे दिया जाए, परन्तु उनकी यह मांग ठुकरा प्रशासन द्वारा ठुकरा दी गयी है। उनकी पीड़ा दोतरफी है, यदि वह घाटी में जाते हैं तो उन्हें चुन चुन कर निशाना बनाया जाएगा, जैसी आतंकी धमकी देते हैं और यदि नहीं जाते हैं तो उन्हें वेतन नहीं मिलेगा!
यह पीड़ा क्यों नहीं सुनी जा रही है? क्यों नहीं मूल समस्या पर बात हो रही है? आज जब पूरा देश महाशिवरात्रि मना रहा है, कश्मीरी हिन्दू ही नहीं सभी हिन्दू अपनी उस पीड़ा पर और व्यथा पर रो रहे हैं, जो दरअसल इस कारण है कि उनके जीनोसाइड को समझा ही नहीं जा रहा है। जीनोसाइड को नकारा जा रहा है। इतिहास को नकारा जा रहा है और जो सामने आ रहा है वह विकृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है!
अपनी अपनी पीड़ाओं का प्रदर्शन कर रहे यह लोग व्यवस्था के उस क्रूर चेहरे को दिखा रहे हैं, जिसमें उनके प्रति असंवेदनशीलता है
आंसू हैं, प्रश्न हैं, और तमाम प्रश्न हैं, बस उत्तर की चाह में बैठे यह तमाम हिन्दू व्यवस्था के साथ साथ विमर्श के पैरोकारों से भी प्रश्न कर रहे हैं कि अंतत: पीड़ा का अंत कहाँ होगा? इसी पीड़ा को बेहतर समझने के लिए ही जम्मू में जोनराज इंस्टीट्युट ऑफ जीनोसाइड स्टडीज की स्थापना की गयी है!
परन्तु पहचान के इस युद्ध में वह जिस छोर पर खड़े हैं, उस छोर पर पीड़ा ही पीड़ा है क्योंकि दूसरा पक्ष उस पहचान को नष्ट करने के लिए पूर्णतया तत्पर है, समस्या अपने पक्ष द्वारा संघर्ष और विनाश के उस बिंदु को न समझने की है!