प्रतिवर्ष 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जता है। कहा जाता है कि यह स्त्रियों को समानता के लिए मनाया जाता है। भारत में भी यह मनाया जाता है, और आज लगभग हर व्यक्ति महिलाओं की महानता का गान करता पाया जाता है। परन्तु एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है, जो इस विमर्श से छूट जाता है। यह महत्वपूर्ण विषय है कि आखिर भारत में स्त्री विमर्श की दृष्टि क्या हो? भारत में जो इस समय स्त्री विमर्श चल रहा है, वह पर्याप्त है, क्या भारत में जिन स्त्रियों को हमारा आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है वह पर्याप्त है?
यह प्रश्न मैं इसलिए पूछती हूँ, और यह प्रश्न बार बार इसलिए उठता है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस उस अवधारणा पर आधारित है जो स्त्री पुरुष को समान मानती है, जबकि हमारे यहाँ वह परस्पर पूरक की भूमिका निभाते हैं। वह एक दूसरे के समान नहीं हैं, बल्कि वह पूरक हैं। जैसे महादेव और माँ पार्वती परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। वह एक दूसरे को सम्पूर्ण करते हैं। प्रभु श्री राम और सीता भी परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। और जो इन्हें पूर्ण करता है वह है सहज दाम्पत्य!
और इसके अतिरिक्त इस अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के बहाने जो स्त्री उपलब्धियां गिनाई जाती हैं, उनमें भारत भूमि की स्त्री अर्थात हिन्दू स्त्री कहाँ है? यह भी एक प्रश्न है? कहाँ हैं वह अनगिनत स्त्रियाँ जो बार बार चेतना के झरोखे से झांकती हैं? कहाँ हैं वह स्त्रियाँ जो अपना विमर्श उत्पन्न करके गयी थीं? फिर यह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस क्यों और किसलिए?
भारत और हिन्दू की बात करने वाली स्त्रियों की पहचान यह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस क्यों नहीं बनता? ऐसे कई प्रश्न हैं, जो आपके मस्तिष्क पर दस्तक देते हैं, परन्तु उनके उत्तर कहीं नहीं हैं? उनके उत्तर इसलिए नहीं मिलते हैं क्योंकि जो कथित शिक्षित अभिजात वर्ग है, वह यह मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि भारत में स्त्रियों की स्थिति वह कभी नहीं थी, जो वह सोचता है, या जो उसकी धारणा है।
भारत में स्त्रियाँ भारी संख्या में रोजगार के कार्यों में संलग्न थीं, ऐसा प्रमाण चाणक्य के अर्थशास्त्र से प्राप्त होता ही है। उसके उपरान्त जब कालान्तर में भारत पर मजहबी हमले हुए, तब भी भारत की स्त्रियों ने उन आक्रान्ताओं से लड़ने के लिए तलवार उठाई ही और अकबर से लेकर औरंगजेब तक उन्होंने लड़ाई भी लड़ी। यहाँ तक कि जब 1857 में अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए प्रथम विद्रोह हुआ, उसमें भी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, झलकारी बाई, अवंतिबाई लोधी आदि कई स्त्रियाँ थीं, जिन्होनें अंग्रेजों से लड़ने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया, और उसके बाद भी हमें पढ़ाया जाता है कि हमारा इतिहास ही नहीं था?
हमारी स्त्रियों के पास पढने का अधिकार नहीं था? यह सब झूठ फैलाया जाता रहा और हम अपनी चेतना से मुंह मोड़े बैठे हुए देखते रहे, उन थोपे गए विमर्श के नायकों को, जो वास्तव में नायक और नायिकाएँ थीं ही नहीं। पहले इस विमर्श ने सत्य का ज्ञान छीन लिया। हमारे हाथों में उन पुस्तकों के माध्यम से यह समझाया था कि हिन्दू स्त्रियों का कोई इतिहास था ही नहीं, वह तो मुग़ल आए और उन्होंने जब हिन्दुओं को मारना शुरू किया, और इस्लाम की रोशनी लाए तब हिन्दू स्त्रियों में चेतना आई।
वह यह नहीं बताते कि यह चेतना वह मुस्लिम लड़कियों में क्यों नहीं ला पाए? खैर यहाँ पर हिन्दू मुस्लिम का विमर्श करना, विषय से परे जाना है। जो बिंदु हैं, उसे समझा जाए।
- यदि भारत में स्त्रियों में चेतना नहीं थी तो वेदों में जो ऋषिकाएं लिखकर गयी हैं, वह क्या है?
- यदि हिन्दू स्त्रियों का कोई इतिहास नहीं था चाणक्य के काल में स्त्रियाँ रोजगार कार्य कैसे कर रही थीं?
- यदि स्त्रियों पर जबरन विवाह थोपा जाता था, तो सुलभा सन्यासिनी जैसे उदाहरण क्यों हैं भारत में?
- यदि मुस्लिम आक्रान्ता भारत के लिए वरदान थे, तो कोटा रानी जैसी रानियों के सर्वस्व बलिदान को क्या माना जाए?
- दुर्गावती जैसी रानियाँ, जिन्होनें अकबर की सेना का सामना किया, वह कैसे हमारी पुस्तकों से गायब हो गईं? हमारी चेतना से विस्मृत हो गईं?
- जीजाबाई जैसी स्त्रियों की चेतना को क्यों स्मरण नहीं किया जाता?
- यहाँ तक कि सिनौली में जो उत्खनन हुआ था उसमें महिला योद्धाओं के संकेत प्राप्त हुए हैं, उस इतिहास के विषय में बात क्यों नहीं होती?
- सबसे महत्वपूर्ण, जब यह कहा जाता है कि आक्रमणकारियों के कारण और समय के कारण हिन्दू धर्म में कुछ कुरीतियाँ आईं, तो उन आक्रमणकारियों की बात क्यों नहीं होती?

भारत का इतिहास लेखन हिन्दू स्त्रियों के प्रति बहुत क्रूर रहा है, क्योंकि इसने सबसे पहले हिन्दू स्त्रियों के उनके सत्य को छीन लिया, उनसे उनके इस सत्य को छीना कि तुम्हारा इतिहास किसी सिमोन से शुरू नहीं है, तुम्हारा इतिहास किसी एडम इव से शुरू नहीं हो रहा है, तुम्हारा इतिहास उस शक्ति का इतिहास है जो इस सृष्टि की संचालक है, तुम्हारा इतिहास उस दृष्टि का इतिहास है जो इस धरती पर युगों युगों से है और उसके बाद उस सत्य को छीनने के उपरान्त उसे उसके उसी इतिहास का सबसे बड़ा शत्रु बना दिया, जो उसकी चेतना का संवाहक था।
आप उस इकोसिस्टम की कल्पना कीजिये, जिसने हिन्दू स्त्री के साथ इतना बड़ा छल किया। कोटा रानी, दुर्गावती, जीजाबाई जैसी असंख्य स्त्रियाँ जनमानस से काट कर फेंक दी गईं और प्रक्षेपित कर दी गईं, अंग्रेजों की टूल औरतें, जिनके लिए जो आयातित था, वही सत्य था, जो उनके अंग्रेज मालिकों ने बताया वही सत्य था, और सत्य क्या था? सत्य क्या है? इस पर बात नहीं होती!
फिर से वही प्रश्न कि आखिर हिन्दू स्त्रियों का विमर्श कब मुख्य धारा में आएगा? कहाँ हैं हिन्दू स्त्रियों का सत्य इतिहास?