फेमिनिस्ट औरतों द्वारा घरेलू कार्य को एक प्रकार का शोषण ही बताया जाता रहा है और कई कविताएँ, कहानियां तक इस बात पर लिखी जाती हैं कि क्यों महिलाओं को घर का काम करना होता है। घर के कामों को निम्न मानते हुए, उन्होंने एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण कर दिया है जिसमें महिलाऐं घर के कार्यों को नहीं करना चाहती हैं। एवं घर के कार्यों को शोषण मानते हुए घरेलू हिंसा का मुकदमा तक करती हैं।
ऐसे में यह सभी घटनाएँ परिवार की टूटन के रूप में सामने आती हैं। घर के कार्यों को इस प्रकार नीचा दिखाया गया जैसे कि बाहर ही उनकी दुनिया है, घर में उनकी पहचान गायब है!
उन्हें नहीं जाना बाहर
उन्हें सिर्फ माँ बनना है
बहन बनना है
बहु बनना है
उन्होंने इंतज़ार में छलछलानी हैं आँखें
पथरानी हैं
उन्होंने छिपाए रखना है प्यार ताउम्र
उन्होंने देखना है घूँघट की ओट से साजन।
इतना ही नहीं, उनके ऑफिस जाने को एक ऐसी घटना बनाया गया, जैसे कि घर से बाहर निकलने पर उनका घर के कामों से नाता टूट गया। कविताएँ लिखी गईं कि एक स्त्री घर के काम के कारण चैन से ऑफिस से नहीं लौट पाती हैं
“स्त्री है।।। जो प्रायः स्त्री की तरह नहीं लौटती
पत्नी, बहन, माँ या बेटी की तरह लौटती है
स्त्री है।।। जो बस रात की
नींद में नहीं लौट सकती
उसे सुबह की चिंताओं में भी
लौटना होता है।“
ऐसी कविताओं के साथ साथ विज्ञापनों एवं मीडिया तथा सीरियल्स में भी महिला की ऐसी छवि बना दी गयी है, कि जिसमें घर के काम को एकदम निकृष्ट बताया गया है एवं घर का कार्य एक प्रकार का मानसिक एवं शारीरिक शोषण सा प्रमाणित किया जाता है।
एवं महिलाएं विवाह के उपरान्त घर के कार्यों से विमुख होती हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में यह शोषण है। परन्तु अभी मुम्बई उच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया है, वह महत्वपूर्ण है।उसे समझना बहुत महत्वपूर्ण है। मुम्बई उच्च न्यायालय ने दिनांक 28 अक्टूबर को एक मामले में निर्णय देते हुए कहा कि
“अगर एक विवाहित महिला को निश्चित रूप से परिवार के उद्देश्य के लिए घर का काम करने के लिए कहा जाता है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि यह एक नौकरानी की तरह है। अगर उसे अपने घर के काम करने की इच्छा नहीं थी तो उसे शादी से पहले बताना चाहिए था ताकि दूल्हा शादी के बारे में सोच सके या अगर ऐसा शादी के बाद हुआ है, तो इस तरह की समस्या को पहले सुलझा लिया जाना चाहिए था।”
न्यायालय ने यह भी प्रश्न किया कि यह भी एफआईआर से स्पष्ट नहीं होता है कि महिला के मायके में बर्तन आदि धोने के लिए कोई सहायिका थी या नहीं!
यह निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें यह स्पष्ट बताया जा रहा है कि घर का कार्य करने के लिए कहा जाना नौकरानी जैसा होना नहीं है, जैसा वामपंथी फेमिनिज्म वाली कविताएँ कहती हैं।
एक कविता देखते हैं, जो लड़कियों को भ्रमित करती है,
साँप पालने वाली लड़की साँप काटे से मरती है
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जिसके माथे पर ज़हीन लिखा वह उसके ज़हर से
जो लोकल में चढ़ काम पर जाती है वह लोकल में
जो घर में बैठ भिंडी काटती है वह घर में ही
दुनिया में खुलने वाली सुरंग में घुसती है जो
वह दुनिया में पहुँचने से पहले ही मर जाती है
बुरी लड़कियाँ मर कर नर्क में जाती हैं
और अच्छी लड़कियाँ भी स्वर्ग नहीं जातीं
ऐसी अजीबोगरीब कविताओं को ही बार-बार विमर्श में लाया गया एवं एक ऐसी स्थिति ही आ गयी है कि घर के कामों को एवं पर्व के कार्यों को समस्या ही माना जाने लगा है, और यहाँ तक कि बीबीसी में तो यहाँ तक लेख आ गया था कि दिवाली: घर की सफ़ाई की परंपरा कैसे महिलाओं की मुसीबत बढ़ाती रही है
पहले इस लेख का शीर्षक मात्र दीवाली तक ही सीमित कर दिया था, अत: बाद में इस लेख का शीर्षक बदल दिया गया था!
तो एक ऐसा विमर्श ही बना दिया गया है कि जैसे घर के काम करना जैसे स्त्रियों का शोषण। परन्तु यह जो मुम्बई उच्च न्यायालय का निर्णय आया है, वह तमाम उस विकृत विमर्श को आईना दिखाता है जो बार-बार वामपंथी मीडिया और वाम साहित्य हिन्दू महिलाओं के दिल में भर रहा है।
क्या था यह मामला
इस मामले में एक महिला ने अपने घरवालों पर आरोप लगाया था कि
शादी के बाद एक महीने तक उसके साथ ठीक से व्यवहार किया गया और फिर उसके साथ नौकरानी जैसा व्यवहार किया गया। उसके पति के परिवार ने चार पहिया वाहन खरीदने के लिए उसके पिता से 4 लाख रुपये की मांग की। जब उसने कहा कि उसके पिता इतने रुपये देने में सक्षम नहीं हैं तो उसके पति ने उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया।
इस पर न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि मात्र मानसिक एवं शारीरिक रूप से उत्पीड़न शब्द का प्रयोग आईपीसी की धारा 498ए को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं है!
यह निर्णय कई अर्थों में महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दिमागी कालिख को मिटाने के लिए महत्वपूर्ण है जो घरेलू कार्यों को शोषण मानकर परिवार तोड़ती है।