आज एक कहानी एक ऐसी भक्ति में लीन महिला संत की, जिन्हें भगवान ने रूप, गुण एवं ऐश्वर्य सभी कुछ भरपूर दिया, परन्तु वह तो भक्ति के लिए आई थीं। जिन्होनें हर प्रकार की विलासिता को त्यागकर भक्ति का मार्ग चुना एवं कहा जाता है कि बीदर के बादशाह के आगे घुटने न टेककर अपने विट्ठल की प्रतिमा में ही एकाकार हो गईं!
आइये पढ़ते हैं आज संत कवि कान्होपात्रा की कहानी:
पंद्रहवीं शताब्दी में जन्मी थी कान्होपात्रा!
उनका नृत्य अप्सरा के नृत्य से कम न था, उनका सौन्दर्य अप्सरा के सौन्दर्य से कहीं बढ़कर था। उन्होंने जब जन्म लिया नाचने वाली के घर तो माँ को लगा जैसे किसी अप्सरा ने ही उस पर तरस खा लिया हो और आ गयी हो उसकी समृद्धि में और वृद्धि करने! वह जब नृत्य करतीं तो घुँघरू रुकने से मना कर देते और आकाश से जैसे देव उतर आते, उन्होंने जन्म तो लिया श्यामा के घर परन्तु उनकी मृत्यु हुई विट्ठल मंदिर में!
यह कहानी है एक नाचने वाली श्यामा की संत पुत्री कान्होपात्रा की! जिन्हें भूलवश भगवान ने गलत परिवार में भेज दिया होगा या फिर संभवतया कोई अप्सरा किसी दंड के चलते आ गयी हो! रूपसी, और गुणवान पुत्री पाकर श्यामा बहुत हर्षाई होगी, जैसा कोई भी उस वर्ग की स्त्री करती! कान्होपात्रा के पास दासियों की कोई कमी न थी, परन्तु धनधान्य से पूर्ण होने के उपरान्त भी उनके ह्रदय में एक कसक रहती थी।
उनका सामाजिक स्तर अपेक्षाकृत निम्न था। सामाजिक बहिष्कार सा था उनका! परन्तु उनके कंठ में साक्षात सरस्वती विराजती थीं। पंद्रहवीं शताब्दी में श्यामा का सपना था अपनी रूपवान पुत्री को किसी बादशाह की कृपापात्र बनाना, मगर कान्होपात्रा का ह्रदय तो कहीं और ही था। उसे इस संसार से कोई मोह नहीं था, उसे मोह था विट्ठल से! माँ बोली बादशाह की शरण में जाओ, बेटी ने मना कर दिया!
बेटी को पंढरपुर बुला रहा था। बेटी को देह की दुनिया से कोई मोह नहीं था, देह का सुख बेटी के लिए कुछ नहीं था। माँ बोली “अच्छा विवाह ही कर ले!” बेटी फिर न मानी! बेटी को इस दुनिया में कोई स्वयं के योग्य लगता ही नहीं था।
फिर जब माँ की धन दौलत कम होने लगी तो उसने बेटी से बीदर के बादशाह के पास जाने के लिए कहा, जो उनके सौन्दर्य के बदले में स्वर्ण आदि से लाद देता! पर कान्होपात्रा ने इंकार कर दिया क्योंकि वह तो थी ही नहीं, इस भौतिक जगत के लिए और फिर एक दिन दासियों के बीच पली कान्होपात्रा चल पड़ीं एक अनजान यात्रा पर! पर जाने से पहले ही उन्होंने सोच लिया था कि जाना कहाँ है!
हुआ यह था कि एक दिन उनके घर के बाहर से पंढरपुर की तरफ जाते हुए विट्ठल भक्त उन्हें मिले थे। कहा जाता है कि उन्होंने एक विट्ठल भक्त से पूछा “ऐसा कौन है जिसके कारण इतना प्रसन्न हो!” उस भक्त ने कहा “विट्ठल महाराज! जो उन्हें देखता है बस उनका हो जाता है!”

“तो क्या वह मुझे अपने भक्त के रूप में स्वीकारेंगे?” उन्होंने प्रतिप्रश्न किया
“विट्ठल क्यों न स्वीकारेंगे? विट्ठल के घर पर कोई भेदभाव नहीं है! तुम भी आना, देखना विट्ठल को ही सब कुछ न मान लो तो कहना” और वह जैसे उसे वह संकेत देकर चला गया जिसकी तलाश में कान्होपात्रा अब तक भटक रही थीं।
कान्होपात्रा अपने घर से उन्हीं विट्ठल की तलाश में चल दीं। पंढरपुर पहुँचते ही उन्हें लगा जैसे उनकी प्रतीक्षा पूर्ण हुई। उन्होंने विट्ठल की मूर्ति को देखा! उन्हें लगा जैसे इस दुनिया में विट्ठल जैसा कोई नहीं! यही हैं जिनके सम्मुख वह नृत्य कर सकती है, यही हैं जिनके सम्मुख वह गा सकती है! वह गा सकती हैं अपनी पीड़ा को, अपनी आध्यात्मिक पीड़ा को वह विट्ठल से कह सकती हैं!
कल तक दासियों के साथ रहने वाली खुद विट्ठल की दासी बन गयी और पंढरपुर में ही कुटिया बनाकर रहने ललगीं। भजन गातीं, नृत्य करतीं, परन्तु किसी और के लिए नहीं! उनका नृत्य तो मात्र अपने विट्ठल के लिए ही था। और विट्ठल को ही अपना पति मान लिया उन्होंने! उनसे बढ़कर कौन हो सकता था जिसे वह स्वयं को सौंप पाती! देह के प्रति लिप्सा भरे इस जगत में कौन था जो उनके इस सच्चे और आध्यात्मिक सौन्दर्य को पूर्णता दे पाता!
विट्ठल के लिए वह बावरी हो गईं। भारत में भक्ति संतों की जो परम्परा है, उसमें कान्होपात्रा ने एक नाम बनाया, परन्तु हाय रे! बीदर के बादशाह तक उनके सौन्दर्य की कहानी पहुँची और उसने तय कर लिया कि उसे कान्होपात्रा चाहिए ही चाहिए! कुछ ही दिनों में बादशाह के सैनिक मंदिर में पहुँच गए!
अब कान्होपात्रा कहाँ शरण लेतीं? कहते हैं वह विट्ठल की मूर्ति के पास स्वयं को बचाने की गुहार लेकर गईं और विट्ठल जी ने अपनी इस भक्त को अपनी शरण में ले लिया!
सैनिकों को मृत देह भी नहीं मिली!
कुछ कहते हैं कि वह पेड़ बनकर उसी मंदिर में अपने विट्ठल जी के साथ रहने आ गईं!
मगर कान्होपात्रा कहाँ गयी यह पता नहीं, हाँ, वह मजहबी सोच अभी तक है, जो कान्होपात्रा जैसी महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाना चाहती है। क्योंकि ऐसी लडकियां रूपवान हैं, गुणवान हैं एवं भगवान की भक्ति करना चाहती हैं, अर्थात अपना आकाश स्वयं चुनना चाहती हैं। परन्तु स्वतंत्र स्त्रियाँ मजहबी सोच को कहाँ पसंद हैं?
मजहबी सोच के तले असमय लुप्त होती रही हिन्दू स्त्रियाँ और यह ताना भी हिन्दू स्त्रियों को मारा जाता रहा कि उनका अपना इतिहास ही नहीं था, चेतना ही नहीं थी! जबकि चेतना और इतिहास दोनों था, जागृत था, सजग था!
स्रोत: http://medievalsaint।blogspot।com/2014/03/saint-kanhopatra।html