उच्चतम न्यायालय ने एक बहुत ही हैरानी भरा निर्णय देते हुए एक चार साल की बच्ची का बलात्कार और हत्या करने वाले मोहम्मद फ़िरोज़ की मौत की सजा को उम्र कैद में बदल दिया। इस निर्णय ने नहीं बल्कि इस निर्णय के पीछे जो तर्क दिया गया है, लोग उससे हैरान हैं। आम जनता इस बात से हैरान है कि यदि उच्चतम न्यायालय भी पापी के ही दृष्टिकोण से देखेंगे तो न्याय की आस लिए लोग कहाँ जाएंगे?
जानते हैं मामला क्या है:
यह मामला है 17 अप्रेल वर्ष 2013 का। रामकुमारी अपना काम समाप्त करके घर वापस आई तो उसने देखा कि उसके घर के बाहर एक आदमी बैठा हुआ है (फिरोज) और साथ ही राकेश चौधरी (सह-आरोपी) भी बरामदे में बैठा हुआ है। राकेश चौधरी ने अपनी अम्मा हिम्माबाई से कहा कि “अम्मा, भाईजान यहें सोएंगे!” हालांकि अम्मा ने मना कर दिया। इस बातचीत के बाद वह चौधरी तो कहीं चला गया, मगर भाईजान (फिरोज) वहीं पर बैठा रहा। उस समय उसकी बेटियाँ, मधु, पूजा और उसके भाई का बेटा रामकिशन और उसकी बहन का बेटा नीलेश सभी बरामदे में खेल रहे थे।
वह घर के भीतर गयी और जब कुछ देर बाद वह घर से बाहर आई तो उसने देखा कि उसकी बेटी पूजा और उसके भाई का बेटा रामकिशन नहीं है। और वह कथित भाईजान भी मौजूद नहीं है। उसने पूजा को खोजना शुरू किया और फिर उसने केलों के साथ रामकिशन को आते हुए देखा। जब उसने पूछा कि पूजा कहाँ है तो उसने कहा कि भाईजान पूजा को लेकर गए हैं।
उसके बाद रामकुमारी ने अपनी बेटी की तलाश की, पर उसे पूजा कहीं नहीं मिली। वह फिर अपनी बहन ज्योति के साथ पुलिस स्टेशन गयी और उस रिपोर्ट के अनुसार रात को साढ़े आठ बजे यह रिपोर्ट दर्ज की गयी थी। उसने न्यायालय को भी बताया कि अगले दिन जब लोग शौच के लिए खेतों में गए तो उन्होंने एक बच्ची को अचेत देखा, और फिर वह लोग वहां पर पहुंचे। उन्होंने देखा कि पूजा अचेत पड़ी हुई है और उसकी नाक और यौनांगों से खून आ रहा है। उसके बाद वह अपनी माँ हीमाबाई और भी श्याम के साथ पूजा को लेकर पुलिस स्टेशन गयी और वहां से उसे घन्सौर अस्पताल से जबलपुर मेडिकल कॉलेज लेकर गयी, जहाँ पर भी उसे होश नहीं आया और उसके बाद पूजा को नागपुर लेकर जाया गया, जहाँ पर उसका आईसीयू में उसका इलाज आठ दिन तक चला मगर उसे बचाया नहीं जा सका!
रामकुमारी ने कहा कि जिस भी डॉक्टर ने पूजा का इलाज किया, उसने यही बताया कि पूजा के साथ बलात्कार किया गया था और गला दबाकर उसकी हत्या का प्रयास किया गया था।
चार साल की बच्ची इस प्रकार की मृत्यु की हक़दार नहीं थी!
प्रश्न यह उठता है कि क्या वह चार साल की बच्ची इसी प्रकार की मृत्यु की हकदार थी? क्या उसे जीवन जीने का कोई अधिकार नहीं था? उसके जीवन को इस प्रकार नष्ट करने वाले और उससे पहले उसे असहनीय पीड़ा देने वाले को क्या जीवित रहने का अधिकार है? क्या न्याय की परिभाषा इतनी संकुचित हो गयी है कि हमारे समाज की बच्चियों के कातिलों को न्यायालय से यह कहते हुए सजा में माफी दे दी जाएगी कि “हर पापी का एक भविष्य होता है!” और वह भी उस बेंच द्वारा जिसमें एक महिला भी है?
यह परिभाषा लोगों को परेशान कर रही है, उन्हें मथ रही है, उन्हें यह समझ नहीं आ पा रहा है कि इस प्रकार क्षमा करने का अधिकार कैसे किसी के पास हो सकता है? लोग प्रश्न कर रहे हैं कि यदि एक पापी का भविष्य हो सकता है, मगर उस चार साल की बच्ची का नहीं:
लाइव लॉ के अनुसार न्यायालय ने निर्णय देते हुए अपनी टिप्पणी में कहा कि
“अपीलकर्ता को उसके खिलाफ आरोपित अपराधों के लिए दोषी ठहराए जाने के संबंध में नीचे की अदालतों द्वारा लिए गए दृष्टिकोण की पुष्टि करते हुए इसे कम करने के लिए उचित समझें, और तदनुसार दंडनीय अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा के लिए मौत की सजा को कम करें। धारा 302 आईपीसी के तहत चूंकि, धारा 376 ए आईपीसी मामले के तथ्यों पर भी लागू होती है, अपराध की गंभीरता और गंभीरता को देखते हुए, अपीलकर्ता के शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास की सजा एक उपयुक्त सजा होती। हालांकि, हम ऑस्कर वाइल्ड ने जो कहा है, उसे याद दिलाया जाता है – “संत और पापी के बीच एकमात्र अंतर यह है कि प्रत्येक संत का एक अतीत होता है और प्रत्येक पापी का एक भविष्य होता है।”
कोर्ट ने आगे कहा, “इस न्यायालय द्वारा वर्षों से विकसित किए गए पुनर्स्थापनात्मक न्याय के मूल सिद्धांतों में से एक अपराधी को हुई क्षति की मरम्मत करने और जेल से रिहा होने पर सामाजिक रूप से उपयोगी व्यक्ति बनने का अवसर देना भी है। अपराधी के अपंग मानस की मरम्मत के लिए हमेशा निर्धारक कारक नहीं हो सकता है। इसलिए, प्रतिशोधात्मक न्याय और पुनर्स्थापनात्मक न्याय के पैमाने को संतुलित करते हुए, हम अपीलकर्ता-अभियुक्त पर धारा 376ए, आईपीसी के तहत अपराध के लिए उसके शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास के बजाय बीस साल की अवधि के कारावास की सजा देना उचित समझते हैं। IPC और POCSO अधिनियम के तहत अन्य अपराधों के लिए नीचे की अदालतों द्वारा दर्ज दोषसिद्धि और सजा की पुष्टि की जाती है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि लगाई गई सभी सजाएं साथ-साथ चलेंगी।”
इस निर्णय को यहाँ पढ़ा जा सकता है!
इस निर्णय से सोशल मीडिया पर लोग बहुत नाराज हैं, और इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं
लोगों ने आशाराम बापू के साथ इस केस की तुलना करते हुए कहा कि एक चार साल की बच्ची का बलात्कारी छोड़ा जा सकता है, मगर आसाराम बापू को एक निष्पक्ष सुनवाई भी नहीं मिलनी चाहिए
लोग कह रहे हैं कि हर पापी का भविष्य हो सकता है, परन्तु क़ानून का पालन करने वाले नागरिकों का नहीं
फेमिनिस्ट इस मामले पर एक बार फिर से मौन हैं
भारत में एक बड़ा वर्ग वामपंथी फेमिनिस्ट मादाओं का है, यह वर्ग तब जागता है जब कोई सुल्ली बाई एप जैसा हंगामा होता है, या फिर भाजपा या विश्व हिन्दू परिषद वालों के किसी छोटे से छोटे कार्यकर्ता पर उंगली उठानी हो, जिसमें हिन्दू धर्म को बदनाम करने का मसाला हो आदि आदि! परन्तु यह लोग न्यायालय के इस निर्णय पर अपना मुंह नहीं खोल रही हैं, क्योंकि इसमें दोषी उनके प्रिय मजहब का है, वैसे उनका यह इतिहास रहा है अपने लोगों के साथ खड़ा होना, फिर चाहे वह तरुण तेजपाल हों या फिर अब ऐसे फ़िरोज़ जैसे मामले!
परन्तु आम लोगों का विश्वास हिल गया है, वह प्रश्न कर रहे है कि अंतत: न्याय क्या है? और क्या आम लोगों का भविष्य यूं ही मरने में है?