भारत में 23 फरवरी 2020 से 26 फरवरी तक हुए दंगों के घाव अभी तक ताजे हैं क्योंकि अब सुनवाई हो रही है और साथ ही साजिशों के तार खुलते जा रहे हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में हुए इन दंगों ने दिल्ली की आत्मा को छलनी किया था। यद्यपि इसकी आशंका लग ही थी कि दंगे होंगे। परन्तु दंगों को भड़काने वाले जो वामपंथी चेहरे थे, उनमें से अधिकतर अभी भी वही जहर फैला रहे हैं, कभी किसी मामले पर तो कभी किसी। हाल ही में वही वर्ग दुबारा सक्रिय हुआ था, और वह भी उस मुद्दे को लेकर जो हिन्दुओं के साथ साथ किसी भी उदार समाज के लिए हानिकारक है।
खैर, उस विषय में फिर कभी। आज हम इस विषय में बात करेंगे कि कैसे साहित्य और कला के नाम पर हिन्दुओं के खिलाफ माहौल बनाया गया, सरकार के खिलाफ माहौल बनाया गया और उस पर कपिल मिश्रा जैसे एक हिन्दू को मोहरा बनाने का असफल प्रयास किया गया। कला को दंगों को भड़काने के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है, भारत अब उसका भी एक उदाहरण बनने जा रहा था।
कैसे कला और कलाकारों का प्रयोग एजेंडा बनाने में किया जाता है, वह हमने कठुआ काण्ड में देखा था। जैसे ही गैंग एक्टिव हुआ था, वैसे ही दिल्ली विश्वविद्यालय के कई प्रोफेसर्स खुलकर हिन्दू विरोध में उतर आए थे और अचानक से ही तस्वीरें जारी होने लगी थीं। उसके बाद जैसे यह सिलसिला हो गया। परन्तु वह एक छोटा प्रयोग था, बड़ा प्रयोग हुआ दिल्ली दंगों में।
नागरिकता विरोधी अधिनियम के खिलाफ आन्दोलन में जिस प्रकार से वामपंथी प्रोफेसर्स और पत्रकार खुलकर विद्यार्थियों पर अपनी वैचारिकता थोपते हुए नजर वह अभूतपूर्व था। दिल्ली दंगों की आरोपी और यूएपीए अधिनियम में गिरफ्तार गुलफिशा उर्फ़ गुल ने पुलिस को दिए गए एक बयान में दिल्ली विश्वविद्यालय के ही ही प्रोफ़ेसर अपूर्वानन्द ने दंगो की ही साज़िश की थी।
यह भी ध्यान दिया जाए कि पिंजड़ा तोड़ जो एनजीओ है, वह दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राओं का है, और फिर इसमें विश्वविद्यालय से निकली हुई छात्राएं भी सम्मिलित होती हैं। यह ग्रुप केवल हॉस्टल के नियमों का विरोध करने के लिए बना था, फिर इसमें नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध कैसे साम्मिलित हुआ? इसका उत्तर गुलफिशा के बयान में मिलता है। उसके अनुसार दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद पिंजरा तोड़ के मेंटर थे। और उसके अनुसार
““हम सीक्रेट जगह पर मीटिंग करते थे जिसमे प्रोफेसर अपूर्वानंद, उमर खालिद और अन्य सदस्य शामिल होते थे। उमर खालिद ने कहा था कि उसके PFI और JCC से अच्छे सम्बंध है। पैसों की कमी नहीं है। हम इनकी मदद से मोदी सरकार को उखाड़ फेंकेगे। प्रोफेसर अपूर्वानंद को उमर खालिद अब्बा सामान मानता है।”
अर्थात यह कहा जा सकता है कि हिन्दुओं से घृणा करने वाले प्रोफेसर्स अपने जहर को निकालने का माध्यम छात्रों को बना रहे थे और जो काम वह खुद नहीं कर सके, कि सरकार को नहीं बदल सके तो क्या यह कहा जाए कि उन्होंने छात्रों और युवाओं को फंसाया, क्योंकि एक छात्र कई तरह से प्रोफेसर्स के कब्ज़े में होता है, जैसे कि अंक आदि।
परन्तु दुखद यह है कि एक ओर ऐसे प्रोफेसर्स सरकार से वेतन भी लेते हैं और स्वयं को सुरक्षित रखते हुए छात्रों को फंसाते हैं और छात्रों को जेल होती है, एवं वह और उनके बच्चे सुरक्षित रहते हैं। और ऐसे एक नहीं कई प्रोफेसर्स और लेखक थे, जिन्होनें अपने जहर के लिए छात्रों का प्रयोग किया! और स्थानीय लोगों का भी, जैसा अभी सुनवाई के दौरान भी पता चला!
क्या कला के क्षेत्र का भी प्रयोग इसी प्रकार के ब्लैकमेल के कारण हुआ?
क्या कला के क्षेत्र में भी इसी प्रकार की ब्लैकमेलिंग की गयी होगी? यह तो शोध का विषय है, परन्तु यह देखना अभूतपूर्व था कि कैसे छात्रों की प्रतिभाओं को इन प्रोफेसर्स के माध्यम से गलत दिशा दी गयी और कला, जो कभी समाज को जोड़ने का माध्यम हुआ करता था, उसे हिन्दुओं के विरुद्ध प्रयोग किया जाने लगा।
और एक भड़काऊ नज़्म साझा की जाने लगी,
“सब याद रखा जाएगा!” जिसे आमिर अज़ीज़ ने लिखा था और उसे एकदम से ऐसे गाया जाता था, जैसे हिन्दुओं के प्रति गुस्सा व्यक्त किया जा रहा है।
सरकार के खिलाफ बार बार बोलकर मुस्लिम समुदाय के भीतर एक क्रोध भरा गया, जिसकी परिणिति अंतत: दंगों में हुई। परन्तु उनकी साज़िश बहुत गहरी थी। और इस साज़िश में कला और वाम प्रोफेसर्स ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। चित्रकला, कविता और चित्र, यह सभी एक एजेंडे के अंतर्गत प्रयोग किए जाने लगे। इनके माध्यम से हिन्दुओं के प्रति गुस्सा भरा गया।
जिस स्वास्तिक का कोई लेना देना नहीं था, उसे तोड़ने के माध्यम से यह प्रमाणित किया गया कि हिन्दू ही दोषी हैं, और हिन्दुओं को मारना ही है। हालांकि हिन्दू का स्पष्ट नाम नहीं लिया “जुल्मी, उन लोगों ने, तुम लोग” आदि आदि कहा गया। परन्तु उनके निशाने पर कौन थे यह स्पष्ट था।
यह दंगे इसलिए भी चौंकाने वाले थे क्योंकि इनकी परतदार योजना बनाई गयी थी और कपिल मिश्रा को फंसाने की योजना बहुत पहले से बना ली थी, जैसा अब चैट से स्पष्ट होती जा रही है। पाठकों को स्मरण होगा कि कैसे हिन्दू स्त्रियों को हिजाब में दिखाया गया और कैसे माँ काली को भी हिजाब में दिखाया गया था।
और फैज़ की उस नज्म को तो जैसे प्रतीक गान ही बना लिया था
क्रांतिकारी गान बना था। परन्तु यह आन्दोलन छात्रों के लिए कैसे हानिकारक था यह आज तक नहीं पता चल पाया है। हाँ, इस आन्दोलन की कथित आड़ में कथित बौद्धिकों ने कपिल मिश्रा के माध्यम से हिन्दुओं पर ही दंगों को थोपने का जो षड्यंत्र किया, उसकी उपमा कहीं नहीं मिल सकती है।
छात्रों को बार बार बुत अर्थात मूर्ति तोड़ने के लिए भड़काया गया, उनके हृदय में हिन्दुओं के प्रति द्वेष भरा गया।
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
उन्हें कंठस्थ कराया गया।
कैसे कला देश तोड़ने के लिए और उदार बहुसंख्यक समाज को अपमानित करने, उनके खिलाफ हिंसा फैलाने के लिए प्रयोग की जा सकती है, दिल्ली दंगे 2020 उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इसलिए अब समय आ गया है कि कला पर बात को, उन पुस्तकों पर बात हो, जो राष्ट्र के साथ युवाओं को जोड़ें!
उन प्रोफेसर्स के नैरेटिव पर भी खुलकर बात हो जो छात्रों को अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग कर रहे हैं, और कपिल मिश्रा के साथ साथ हर हिंदूवादी नेता के खिलाफ भड़का रहे हैं। समय आ गया है कि अब नैरेटिव पर खुलकर बात हो, और चर्चा हो, जिससे कला का अर्थ मात्र हिन्दू वध ही न हो! हिन्दुओं के प्रति हिंसा ही न हो!
It is a wake up call to PM Modi! Stop minority appeasement and take action to control them.