पिछले सप्ताह दो ऐसी घटनाएं हुईं, जिनपर धूल डालने का प्रयास मीडिया द्वारा किया गया। वर्ष 2020 में दिल्ली में हुए भीषण दंगों पर सुनवाई चल रही है और उमर खालिद, दिलशाद सिफ़ी, सफूरा और शर्जिल इमाम जैसे लोगों के चैट के स्क्रीन शॉट सामने आ रहे हैं, जिनमें यह पूरी तरह से स्पष्ट लिखा हुआ है कि दिल्ली दंगों में हिंसा भड़काने की योजना कपिल मिश्रा के कथित भाषण से बहुत पहले ही बन गयी थी।
यहाँ तक कि भीम आर्मी तक पर भी हिंसा का ठीकरा फोड़ने की योजना बनाई गयी थी। यह सारी योजना इस्लामिस्ट समूहों ने पहले ही बना ली थीं। जो बहस हो रही है, उस पर चर्चा होनी चाहिए थी, परन्तु मीडिया से यह सारे मामले एक सिरे से गायब हैं।
न्यायालय में जो ग्रुप चैट प्रस्तुत किए गए हैं उनके अनुसार इस्लामिस्ट षड्यंत्रकारियों ने एक व्हाट्सएप समूह बनाया, जिसका नाम रखा गया “दिल्ली प्रोटेस्ट्ससपोर्ट ग्रुप (डीपीएसजी), जिसमें वह लगातार दंगों की योजना बनाते रहते थे। ऐसी ही एक चैट में ओवैस नामक आदमी ने अपने क्षेत्र में हिन्सा की गलत योजना की शिकायत की। उसने दावा किया कि “षड्यंत्रकारियों के “गैर जिम्मेदार व्यव्हार के कारण स्थानीय लोगों को बस के नीचे धकेला जा रहा है!”
इतना ही नहीं इस समूह में जो ग्रुप चैट था, उसमें 17 फरवरी को यह भी लिखा है “भाई कुछ नहीं हुआ, कपिल मिश्रा गया, पुलिस ले गयी उसे!”
ओवैस एक सदस्य से पूछता है कि पुलिस पर हमला करने के लिए लाल मिर्च के पाउडर क्यों दिए जा रहे हैं? और वह यह भी कहता है कि आयोजकों के कारण स्थानीय लोगों को नुकसान हो रहा है।
इसी व्हाट्सएप पर एक और आदमी है जो पूछता है कि “यह लड़ाई, हिन्दुस्तान की लड़ाई से मुसलमानों की लड़ाई क्यों बनती जा रही है?” और फिर राहुल रॉय आता है और कहता है कि यह रणनीति में बदलाव है
एक गवाह के हवाले से न्यायालय में कहा गया कि उमर खालिद ने गुल से कहा कि सरकार मुसलमानों के खिलाफ है, भाषण से कुछ काम नहीं चलेगा, खून बहाना पड़ेगा।
इस ग्रुप के लोगों ने आपसी बातचीत में लिखा कि आग लगवाने की पूरी तैयारी है।
सबसे रोचक बात इसमें यही है कि एक स्थानीय व्यक्ति ओवैस ने विरोध किया और उसने कहा कि “पिंजरा तोड़ की मोब मेंटेलिटी के कारण लोगों की जान खतरे में है, हमारे घर लजाने के बाद सोलिडीटरी मीटिंग और राहत कार्य करेंगे क्या?” और फिर हिंसा का विरोध करने वाले ओवैस ने वह समूह छोड़ दिया
एडवोकेट अनस तनवीर ने भी हिंसा के विषय में चिंता जताई:
यह समूह कितनी दबाव की तकनीकें जानता है कि उसने कहा कि हमें अरविन्द केजरीवाल पर एक प्रेस कांफ्रेंस करने का और दिल्ली पुलिस के इनएक्शन और अपनी मजबूरी दबाव डालना चाहिए।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने कई नैरेटिव पहले से ही बना रखे थे जैसे कपिल मिश्रा, पुलिस का इनएक्शन और साथ ही भीम आर्मी! अर्थात भीम और मीम की बात करने वाले यह लोग भीम आर्मी को भी दंगों के लिए जिम्मेदार बनाने के लिए तैयार थे।
परन्तु आपको इस सुनवाई की एक भी बात मुख्यधारा की मीडिया में नहीं सुनाई देगी, क्योंकि इससे उनका एजेंडा प्रभावित होता है। हम इस विषय में कपिल मिश्रा से बात करने के प्रयास में हैं, क्योंकि उन पर सबसे अधिक आरोप लगे थे और उन्होंने उन्हीं बुद्धिजीवियों के सबसे अधिक प्रहार झेले हैं, जो आज कर्नाटक में उस समय हिजाब को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं, जब उनकी कलई न्यायालय में उतर रही है।
प्रश्न मीडिया से भी है कि कपिल मिश्रा को खलनायक बनाते समय उन्होंने सभी का पक्ष लिया था, परन्तु अब जब उन्हीं के झूठ की कलई खुल रही है, तो वह मौन क्यों हैं? क्यों विमर्श और चर्चाएँ उनके चैनल में आयोजित नहीं हो रही हैं?
मीडिया अपने ही झूठ के तले दबकर मर रहा है और उसने जीवित होने का एक नया चेहरा तलाशा। मीडिया और कथित लेखकों ने, जिन्होनें कपिल मिश्रा को अर्थात एक हिन्दू को उस दंगे का कारण बता दिया था, जिसकी पृष्ठभूमि पहले ही तैयार की जा चुकी थी और जब कपिल मिश्रा पुलिस के साथ चले गए तो वह निराशा व्यक्त कर रहे हैं कि वह चला गया और कुछ नहीं हुआ।
यह बहुत ही दुर्भाग्य का विषय है कि जिन मुद्दों पर मीडिया द्वारा बात की जानी चाहिए थी, उन्हें नेपथ्य में धकेल दिया गया और एक ऐसा बनावटी मुद्दा विमर्श में आ रहा, जिसकी परिणिति अंतत: कट्टरता से भरी दुनिया में होगी।
एक ऐसे समय में इस्लामी कट्टरता ने गुजरात में कृष्ण भरवाड़ की हत्या कर थी और ईसाई कट्टरता ने तमिलनाडु में लावण्या को लील लिया था। यह दोनों हत्याएं धर्म की हुई थीं और एक हत्या की थी मजहबी कट्टरता ने तो दूसरी रिलिजन ने! मगर रिलिजन और मजहब के नाम पर की गयी इन हत्याओं पर विमर्श न पैदा होकर मीडिया ने अपनी नाक बचाने के लिए नया विमर्श चुन लिया, और जो एक और शाहीन बाग़ की याद दिला रहा है।
प्रश्न तो उठता ही है कि क्या यह जबरन बनाया गया मुद्दा गुजरात में कृष्ण भरवाड़ और तमिलनाडु की लावण्या की आत्हमत्या को ढाकने के लिए उठाया गया है या फिर कथित बुद्धिजीवियों के दिल्ली दंगों के हाथ होने के प्रमाणों को छिपाने के लिए उठाया गया है?
दंगों की इस्लामिस्ट हिंसा में स्थानीय लोगों के विरोध को छिपाने के लिए कर्नाटक में एक कट्टर कदम के समर्थन में वह लोग आ गए हैं, जो कपिल मिश्रा के पीछे पड़े थे, जबकि प्रमाण कुछ और ही कह रहे हैं!