अल्लामा इकबाल, जो कथित सेक्युलर बिरादरी में लोकप्रियता की सीमा से अधिक लोकप्रिय हैं, उनकी सर्वाधिक विवादास्पद नज़्म शिकवा में कई ऐसी बाते हैं, जिन पर सहज बात नहीं होती है। अल्लामा इकबाल की एक नज्म है तराना-ए-हिन्द जिसमें लिखा है “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा”
परन्तु फिर वह बदल कर हो गया था
चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा
तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे
आसाँ नहीं मिटाना नाम-ओ–निशाँ हमारा
परन्तु हिन्दुओं को अल्लामा इकबाल के इस रूप की कोई नज़्म नहीं पढ़ाई जाती है। हिन्दुओं के बच्चों को इकबाल का सारे जहाँ से अच्छा तराना सुनवाया जाता है। यह सहज नहीं बताया जाता है कि उन्होंने 29 दिसंबर 1930 को मुस्लिम लीग के सम्मलेन में कहा था कि
“हो जाये अगर शाहे खुरासां का इशारा ,सिजदा न करूं हिन्द की नापाक जमीं पर“
अर्थात यदि तुर्की का खलीफा इशारा कर दे, तो मैं हिन्द की नापाक जमीन पर सिजदा भी न करूँ! इसी सम्मेलन में उन्होंने मुस्लिमों के लिए एक अलग देश की मांग की थी।
हिन्दुओं को यह तो रटाया जाता रहा कि इकबाल ने तराना-ए-हिन्द लिखा था कि
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तान हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी यह गुल्सितां हमारा।
ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा
वहीं बाद में वह एकदम मजहबी होकर गाने लगे थे, तराना ए मिल्ली, जिसमें केवल मुस्लिम का ही गौरव गान है। हिन्दुस्तानी स्वर गायब है, और जैसे सभी को धमकाया जा रहा है कि हम यहाँ यहाँ शासन कर चुके हैं, और हम मुस्लिम हैं, और हमारा वतन कोई एक नहीं है बल्कि सारा जहाँ हमारा है। और मजहब नहीं सिखाता कहने वाले तौहीद की बात करने लगे थे। उन्होंने लिखा कि
चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा
तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे
आसाँ नहीं मिटाना नाम-ओ-निशाँ हमारा
दुनिया के बुत-कदों में पहला वो घर ख़ुदा का
हम इस के पासबाँ हैं वो पासबाँ हमारा
अर्थात वह कह रहे हैं, कि चीन भी उन्हीं का है, अरब भी उन्हीं का है और हिन्दोस्तान भी उन्हीं का है और चूंकि वह मुस्लिम हैं, इसलिए उनका वतन सारा जहां है। उनकी अमानत है तौहीद अर्थात एक अल्लाह और मुस्लिमों का नामो-निशाँ मिटाना आसान नहीं है।
यह अत्यंत हैरान करने वाली बात है कि अल्लामा इकबाल, जिन्होनें भारत को इतना बड़ा घाव दिया, उनका सम्मान आज तक एक बहुत बड़ा वर्ग करता है। इस नज़्म में तो उन्होंने मात्र मुस्लिमों का गौरव गान किया है, परन्तु एक उनकी और नज़्म है, नया शिवाला। इसमें वह कितनी सुन्दरता से ब्राह्मणों के विरुद्ध विषवमन करते हुए, हिन्दुओं को ही दोषी ठहरा रहे हैं, और लिख रहे हैं,
सच कह दूँ ऐ बिरहमन गर तू बुरा न माने
तेरे सनमकदों के बुत हो गये पुराने
अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
अर्थात, हे ब्राह्मण अगर तुम बुरा न मानो तो यह कहूँगा कि तुम्हारे सनमकदों अर्थात मंदिर के बुत पुराने हो गए हैं, और इन बुतों से ही तुमने नफरत करना सीखा है। हालांकि इसमें वह बैलेंस बनाते हुए कहते हैं कि खुदा ने वाइज़ को लड़ाई सिखा दी, इसलिए मैंने मंदिर और काबे की चारदीवारी को छोड़ दिया है।
पर इक़बाल हिन्दुओं से अपनी नफरत नहीं छोड़ पाए हैं और कहते हैं
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
पत्थर की मूरतें वह तोड़ना चाहते हैं, बिना यह जाने कि हिन्दुओं के लिए प्रतिमा का अर्थ क्या है? वह ख़ाक ए वतन के हर जर्रे को देवता बता रहे हैं, तो क्या मूर्तियों में अपना खुदा नहीं देख सकते?
फिर वह कहते हैं कि एक नया शिवाला इस देस में बना दें! पर शिवाला अर्थात शिवालय कैसा होगा, जिसमें हिन्दुओं की प्रतिमा नहीं होगी?
खैर अल्लामा इकबाल ही हैं, जो धर्म के जीवंत प्रतीक को “इमाम-ए-हिन्द” कह देते हैं। दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दुओं ने इसे गौरव का विषय मान लिया है और अल्लामा इकबाल की प्रशंसा इसलिए करते हैं कि उन्होंने प्रभु श्री राम को इमामे हिन्द कहा है।
परन्तु वर्ष 1909 में लिखी गयी शिकवा नज़्म मुस्लिमों की पहचान को लेकर ही प्रश्न उठाती है। इस नज़्म में न्होंने इस्लाम के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की तात्कालिक हालत के बारे में शिकायत की है। और तमाम बातों के साथ अंत में आकर लिखा है
अजमी ख़ुम है तो क्या, मय तो हिजाज़ी है मेरी।
नग़मा हिन्दी है तो क्या, लय तो हिजाज़ी है मेरी।
इसके अर्थ को समझना होगा। अजमी अर्थात अरब का न रहने वाला, खुम: शराब रखने का घडा, मय: शराब, परन्तु यहाँ पर मय का अर्थ शराब तो है ही, परन्तु इसकी जो प्रकृति है वह अरबी है। और फिर है हिजाजी: इसका अर्थ है, हिजाज का निवासी, हिजाज सऊदी अरब का प्रांत है, हिजाजी का अर्थ है ईरानी संगीत में एक राग!
अब समझना होगा कि जब अल्लामा इकबाल मुसलमानों की तत्कालीन बुरी स्थिति की शिकायत खुदा से कर रहे थे तो अंत में उन्होंने मुस्लिमों की पहचान अरब से जोड़ दी है। उन्होंने लिखा है
कि
घड़ा अरबी नहीं है तो क्या हुआ मय तो अरबी है। यहाँ पर घड़े का अर्थ है भारतीय मुस्लिम! अल्लामा इकबाल ने कहा “मैं कहने के लिए देशी मुसलमान हूँ, मगर मैं मय अर्थात स्वभाव, प्रकृति, और अपनी जीवन पद्धति से तो अरबी हूँ!”
मैं नगमा जरूर हिंदी का हूँ, पर लय तो अरबी ही है! लय का अर्थ हम सभी जानते हैं, नगमे की आत्मा!
अल्लामा इकबाल ने भारतीय मुसलमानों की पहचान को वतन अर्थात भारत से कहीं दूर अरब से जोड़ दिया था।
और भारतीय मुसलमानों को उनके वतन से दूर काटने वाले अल्लामा इकबाल को हिन्दुओं के मध्य एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो मानवता की बात करता था, जबकि वास्तविकता यही है कि हिन्दुओं को एक अजीब चरस पिलाई गयी है, और अल्लामा इकबाल जैसों के वास्तविक चेहरे को छिपाया गया है।