जहाँ एक ओर इस्लाम की वकालत करने वाले लोग भारत में बार बार यह कहते हैं कि इस्लाम में औरतों को दर्जा है, वह किसी भी और पंथ में नहीं है। मगर जहाँ पर इस्लाम सत्ता में है, वहां पर समानता की बात करना किसी भी अपराध से कम नहीं है। वहां पर जब औरत और आदमियों के बीच समानता वाला बिल लाया जाता है तो उसका यह कहकर विरोध किया जाता है कि यह तो इस्लाम विरोधी है!
भारत में यह सुनकर कई लोगों को आघात लग सकता है, परन्तु ऐसा हो रहा है और यह नाइजीरिया में हो रहा है। नाइजीरिया में एक ऐसे बिल को सीनेट से पास होने से रोका जा रहा है, जो यह कह रहा है कि औरत और मर्द दोनों बराबर हैं। जो बिल लैंगिक समानता को बढ़ावा देता है। इसमें जो मूल बात छिपी है वह यह है कि इस्लाम औरतों और मर्दों को समान नहीं मानता है तो हम कैसे मान सकते हैं?
दिनांक 15 दिसंबर 2021 को यह समाचार आता है कि बुधवार को उत्तरी सीनेटर्स ने नाइजीरिया में महिला सशक्तिकरण के लिए प्रस्तावित कानून का विरोध किया और वह भी यह कहते हुए कि इसके विषय इस्लाम और उत्तरी सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ हैं।
सीनेटर एबिओदम ओलुजिमी वर्ष 2016 से ही संसद में बिल पारित करवाने के लिए हर सम्भव प्रयास कर रही हैं, परन्तु कुछ सीनेटर्स ने बिल को वापस लेने या फिर कम से कम आरंभिक चरणों में वापस लाने के लिए कहा है।
ओलुजिमी ने कहा कि यह बिल महिलाओं के खिलाफ हर प्रकार के भेदभाव से रक्षा करेगा और सभी व्यक्तियों को समानता प्रदान करेगा।”
मगर कुछ उत्तरी सीनेटर्स ने कहा कि इस बिल पर सही से काम नहीं किया गया है, विशेषकर इसके शीर्षक में समानता के स्थान पर न्यायप्रियता या निष्पक्षता लिखा जाए; और यह भी जोर देकर कहा कि यह सभी इस्लाम के सिद्धांत के विरुद्ध हैं।
अपनी बात रखते हुए अलीयु वमाको ने कहा कि वह बिल का इस रूप में समर्थन नहीं करेंगे। उन्होनें कहा “जब सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं की बात होती है तो यह पूरी तरह से गलत है। और जब निष्पक्षता की बात की जा रही हैं तो आपकी बात ठीक है, परन्तु समानता की बात नहीं! मैं इसका समर्थन नहीं करूंगा।”
तो वहीं उत्तरी पठार से सीनेटर इस्तिफनुस ज्ञांग ने इसे नाइजीरिया के सामजिक और आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने कहा कि महिलाओं को समान अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। महिला होने का अर्थ कम इंसान होना नहीं होता है।”
वहीं सीनेट के अध्यक्ष अहमद लवन का कहना है कि इस बिल को क्रियान्वित करने से पहले उत्तरी सीनेटर्स की चिंताओं का ध्यान रखा जाएगा।
इस बिल को पास करने का प्रयास वर्ष 2015 से हो रहा है। परन्तु अभी तक यह प्रास नहीं हो पाया है। इसीलिए क्योंकि कुछ मुस्लिम सीनेटर्स को समानता का अधिकार इस्लाम विरोधी लगता है।
यदि वह न्याय या निष्पक्षता की बात करते हैं, तो यह न्याय या निष्पक्षता किसके आधार पर होगा? क्या न्याय की परिभाषा इस्लाम के अनुसार होगी या वास्तव में न्याय होगा? वर्ष 2016 में कुछ सीनेटर्स ने इस बिल का यह कहते हुए विरोध किया था कि यह महिलाओं को समलैंगिक और वैश्या बना देगा।
हालांकि इन तर्कों का विरोध नागरिक समूहों द्वारा किया गया था और जिन्होनें यह कहा था कि यदि इस बिल को पास नहीं किया गया तो नाइजीरिया महिला अधिकारों के मामले में पिछड़ जाएगा।
यह अत्यंत हैरान करने वाला समय है, कि जहाँ सऊदी अरब में महिलाओं को समान अधिकार देने के लिए अब दिनों दिन नए कदम उठाए जा रहे हैं, और हाल ही में अबाया या हिजाब की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी गयी है, तो वहीं नाइजीरिया, या एशिया में अफगानिस्तान जैसे देशों में मुस्लिम समाज में औरतों पर और भी पाबंदियां लगाई जा रही हैं।
यह भी हैरान करने वाली बात है कि जैसे ही इस्लाम की किसी कुरीति की बात आती है, वैसे ही भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के तमाम बुद्धिजीवी इस्लामोफोबिया का राग गाने लगते हैं, परन्तु जब इस्लाम की कट्टरता की बात खुद उन्हीं के मुंह से आती है, तब सभी को सांप सूंघ जाता है और कोई बोलने के लिए तैयार नहीं होता।
भारत में रहने वाले पिछड़े बुद्धिजीवी इस्लामोफोबिया का हल्ला मचाते हैं, और इस्लाम को औरतों का उद्धारक बताते हैं और ऐसी बातों पर चुप्पी साध जाते हैं!