बिहार इन दिनों चर्चा में है। चर्चा में इसलिए क्योंकि वहां पर जातिगत जनगणना कराई जा रही है। परन्तु बीते एक सप्ताह में एक ऐसी घटना हुई है जो सरकार के लिए लज्जाजनक हैं ही, परन्तु विमर्श के आधार पर यह अधिक लज्जाजनक है कि इस त्रासदी पर मौन पसरा है!
एक ही परिवार के पांच लोगों द्वारा आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या करना और मीडिया में इस घटना का अधिक उल्लेख न होना
समस्तीपुर में पिछले सप्ताह एक ही परिवार के पांच लोगों ने आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या कर ली थी। इस परिवार के सभी सदस्य रस्सी से टंगे हुए मिले थे। हालांकि इस समाचार पर शोर मचना चाहिए था, विमर्श होना चाहिए था और उन कारणों पर भी बात होनी चाहिए थी कि अंतत: ऐसा क्यों हुआ? परन्तु ऐसा कुछ कुछ भी नहीं हुआ। पिछले सप्ताह से लेकर आज तक इस पर कोई विमर्श नहीं हुआ है।
मात्र राजनीतिक आधार पर अवश्य तेजस्वी यादव ने एक ट्वीट किया था, परन्तु उसमें से भी परिवार की पहचान गायब थी, जिसके कारण इतनी बड़ी त्रासदी बस कहीं पिछले पन्नों में दबी रह गयी।
जिन्होनें आर्थिक विपन्नता के चलते आत्महत्या की दरअसल वह उस जाति के थे, जिस जाति ने कथित रूप से इतने अत्याचार अन्य जातियों पर किए हैं, कि उनका जीवित रहना ही अब जैसे इस जगत में अभिशाप है। वह ब्राह्मण थे! मीडिया के अनुसार मनोज झा, अर्थात परिवार के मुखिया ऑटो चलाते थे, परन्तु ऑटो से परिवार को चलाना मुश्किल हो रहा था।
ऋण ले लिया, परन्तु ऋण चुकाते कैसे, और उस पर ब्राह्मण? ब्राह्मण को भी कोई आपदा हो सकती है। उनके विरुद्ध तो नारे लगाए जा सकते हैं, अकादमिक शोध किये जा सकते हैं, उनके विरोध में अनर्गल लिखकर शोधपत्रों को आकार देकर विदेशी फंडिंग पाई जा सकती है और उनके विरोध में अनर्गल लेखों से हमारे बच्चों के मन में उनके ही लोगन और परिवार के प्रति विष भरा जा सकता है।
इसलिए किसी ब्राह्मण परिवार के लिए रोना चाहिए था क्या? नहीं नहीं! सामाजिक समरसता में व्यवधान नहीं उत्पन्न हो जाता? सामाजिक समरसता का सार यही है कि ब्राह्मणों ने अत्याचार किए, तभी तो कथित दलित वर्ग मुस्लिम बन गया? अगर वह लोग अत्याचार न करते तो मुगल आते ही नहीं!
ऐसे में वह तमाम लोग जो मृत्यु की कहानी को उठा सकते थे और न्याय मांग सकते थे, वह सभी शांत हो गए। मात्र एक सूचना, जिसमें सरकार को कोसना, और उससे अधिक कुछ नहीं!
यदि वह और किसी ऐसी जाति से होते, जिनका उन्होंने कभी अतीत में शोषण किया था, तो उन्हें वह तमाम योजनाओं का लाभ नहीं मिला होगा, जो उनके जैसी आर्थिक स्थिति वाले दूसरे वर्गों के लिए होती हैं। हमारे तमाम अकादमिक पाठ और साहित्य ब्राह्मण विरोधी विषय सामग्री से भरे पड़े हैं, परन्तु ब्राह्मण ने कितना बलिदान दिया है, वह विलुप्त है। उन लोगों को महान बताया गया जिन्होनें ब्राह्मणों को असुरों से भी बढ़कर बताया और बच्चों को पाठ्यक्रम के माध्यम से यह बताया जा रहा है कि यह चोटी वाले ब्राह्मण ही थे, जिनके कारण अंग्रेज आए और शासन कर पाए।
कक्षा आठ की अंग्रेजी की पुस्तक में glimpse of the past नामक अध्याय में यही किया गया है। एक चित्र उस अध्याय का पाठकों के लिए प्रस्तुत है।
तो ऐसे वर्ग के लिए जिसके अंत की कामना दलित कविताओं में इस प्रकार की गयी है कि
हमारी दासता का सफ़र
तुम्हारे जन्म से शुरू होता है
और इसका अंत भी
तुम्हारे अंत के साथ होगा।
जबकि मेगस्थ्नीज़ ने इंडिका में यह स्पष्ट लिखा है कि भारत में slavery अर्थात गुलाम की प्रथा नहीं थी। अर्थात जब तक हिन्दुओं का पूर्ण राज्य था, तब तक भारत में दास का अर्थ वह था ही नहीं जो slave का होता है। परन्तु हमारे बच्चों को कथित दलित कविताएँ तो पढ़ाई जाती हैं, परन्तु भारत में वास्तविक छुआछूत कब और कैसे आरम्भ हुई, इसका कोई भी न ही कारण देता है और न ही इस सम्बन्ध में कोई बात करता है। इस विषय में कोई बात नहीं होती कि जब धर्मपाल जी की ब्यूटीफुल ट्री के अनुसार हर वर्ग के विद्यार्थियों को देशज विद्यालयों में शिक्षा एवं उच्च शिक्षा प्राप्त होती थी, तो ब्राह्मण कैसे दोषी हुए?
धर्मपाल अपनी पुस्तक ब्यूटीफुल ट्री में कार्लमार्क्स का वह वक्तव्य लिखते हैं कि “अंग्रेजों को भारत में दो अभियान पूरे करने हैं, एक तो विध्वंसात्मक और दूसरा प्राचीन एशियाई समाज को नीचा दिखाना, उसका शनै: शनै: पतन करना। तथा एशिया में पश्चिमी समाज की भौतिक नींव को रखना!”
इसमें सबसे बड़ी बाधा थे ब्राह्मण तो समाज में उन्हें ही खलनायक घोषित कर दिया गया। कार्लमार्क्स के सपने को यदि किसी ने पूरा किया तो वामपंथी इतिहासकार और साहित्यकार ही थे, जिन्होनें ब्राह्मणों को खलनायक ठहराकर पश्चिमी समाज की भौतिकतावादी नींव को स्थापित करने को लेकर दिन-रात अथक प्रयास किये।
उन्होंने ऐसे ब्राह्मण विरोधी साहित्य एवं विमर्श की स्थापना की कि आज बिहार में मनोज झा का पूरा परिवार आत्महत्या कर लेता है और कहीं कुछ भी हलचल नहीं होती! यही वामपंथी विमर्श की जीत है, यही अभी तक चले आ रहे ईसाई और मैकाले विमर्श की जीत है!