केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने शुक्रवार को बहुत ही चौंकाने वाली बात करते हुए कहा कि वर्ष 1993 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया आदेश जिसमें दिल्ली में मस्जिदों के इमामों एवं मौलानाओं के वेतन को सरकार से अनुमत कर दिया था, संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है। सूचना के अधिकार कार्यकर्ता की आरटीई अर्जी की सुनवाई करते मुख्य सूचना आयुक्त उदय माहुरकर ने यह टिप्पणी की ।
केन्द्रीय सूचना आयोग ने यह टिप्पणी करते हुए कहा कि करदाताओं के पैसों से इमामों को वेतन नहीं दिया जा सकता है। इस टिप्पणी के बाद उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय कठघरे में आ गया है।
बार-बार यह प्रश्न उठता है कि आखिर इमामों को सरकारी खर्च से वेतन दिया जा सकता है, परन्तु पुजारियों को नहीं। और यह भी प्रश्न है कि आखिर करदाताओं का धन किसी विशेष मजहब पर व्यय क्यों हो? क्या आम करदाताओं का धन इस प्रकार निजी व्यय पर खर्च किया जाएगा?
इन्हीं तमाम प्रश्नों के साथ आरटीआई कार्यकर्त्ता सुभाष यादव ने याचिका दायर की थी। आयोग ने दिल्ली वक्फ बोर्ड को यह भी आदेश दिया कि वह आरटीआईकार्यकर्त्ता सुभाष अग्रवाल को 25000 रूपए का मुआवजा भी दें। क्योंकि सुभाष अग्रवाल को जानकारी प्राप्त करने में काफी संसाधन और समय बर्बाद करना पड़ा।
क्या था मामला?
उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1993 में ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन की ओर से दाखिल याचिका पर आदेश दिया था। इसमें वक्फ बोर्ड को उन मस्जिदों के इमामों को वेतन के भुगतान को कहा, जिनका प्रबंधन उसके हाथ में है।
सुभाष यादव की सुनवाई के दौरान सूचना आयुक्त ने यह कहा कि इस निर्णय से एक गलत उदाहरण प्रस्तुत हुआ क्योंकि इससे अनावश्यक विवाद उत्पन्न हुआ तथा साथ ही सामाजिक रूप से लोगों के बीच बैर भाव भी फैला।
यह प्रश्न स्वयं में बुनियादी है कि आखिर क्यों केवल मौलानाओं को आम करदाताओं के धन से वेतन दिया जा रहा है? अभी हाल ही में दिल्ली में कांस्टीट्यूशनल क्लब में दिल्ली के मंदिरों के पुजारियों की दुर्दशा पर कार्यक्रम हुआ था।
यह बहुत ही हैरान करने वाला एवं विरोधाभासी दृश्य है कि एक ओर हिन्दू करदाताओं के धन से मजहब विशेष के मौलानाओं को वेतन मिल रहा है तो वहीं मंदिरों के पुजारियों की इस प्रकार दुर्दशा है। आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा था और क्यों किया जा रहा है? यह हिन्दुओं की चेतना को झकझोरने के लिए पर्याप्त है कि आखिर धार्मिक रूप से उसके साथ इतना अन्याय एवं असमानता का व्यवहार क्यों किया जा रहा है?
विमर्श में पंडित हार रहा है एवं मौलाना जीत रहे हैं, ऐसा क्यों हो रहा है? जब लोग इस विषमता को देखते हैं तो उनके मन में आक्रोश उत्पन्न होता है।
इसी आक्रोश के विषय में चर्चा करते हुए सूचना आयुक्त ने कहा था कि केवल मस्जिदों में इमामों व अन्य लोगों को पारिश्रमिक देना, न केवल हिंदू समुदाय और अन्य गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक धर्मों के सदस्यों के साथ विश्वासघात है।
यही बात आम हिन्दू भी कहता है, कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? क्या यह बात सत्य नहीं है कि इस प्रकार के मजहबी क़दमों ने देश का एक विभाजन पहले ही करा दिया है। इसी बात को इंगित करते हुए केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने कहा कि वर्ष 1947 से पहले मुस्लिम समुदाय को जो विशेष लाभ देने की नीति थी उसके कारण देश एक विभाजन पहले ही देख चुका है। इसलिए केवल मस्जिदों में वेतन देना, केवल हिन्दू एवं अन्य धर्मों के सदस्यों के साथ विश्वासघात है बल्कि साथ ही भारतीय मुस्लिमों के भीतर भी पैन-इस्लामवादी प्रवृत्ति को बढ़ा रहा है।
एक और विशेष बात केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने कही, जिसे पढ़ना और समझना सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि बहुसंख्यकों को भी सुरक्षा का अधिकार है।
जबकि कथित अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर बहुसंख्यक समुदाय की सुरक्षा को लेकर कोई बात ही नहीं करता है। उन्होंने कहा कि यदि किसी विशेष धार्मिक अल्पसंख्यक को सुरक्षा का अधिकार है तो बहुधार्मिक देश में बहुसंख्यक एवं अन्य समुदायों को भी सुरक्षा का अधिकार होता है।
भारत में यह मानसिकता है कि बहुसंख्यकों के अधिकारों पर कोई बात नहीं होती है। बहुसंख्यक होना अर्थात एक ऐसा जीव, जिसके पास न ही रोजगार का अधिकार है और सुरक्षा तो उसकी होनी ही नहीं चाहिए! यदि वह अपने शोषण या उत्पीडन के शिकायत करता है, या फिर यदि उसकी बेटियों के साथ जो गलत होता है तो उनके विरोध को इस्लामोफोबिया कहकर कोसा जाता है।
नुपुर शर्मा का समर्थन करने वालों को जिस प्रकार से मारा गया, गला रेत दिया गया, उनके विषय में चर्चा करने से एक बड़ा वर्ग डरता है उसे लगता है कि इस्लामोफोबिया फ़ैल जाएगा। यह विडंबना ही है कि हिन्दू केवल इस कारण कथित अल्पसंख्यकों से कुछ नहीं कह सकता कि क्योंकि ऐसा करने से इस्लामोफोबिया फ़ैल जाएगा!
सूचना आयुक्त के इस कथन का सोशल मीडिया पर स्वागत हुआ है, क्योंकि यह अन्याय ही था, जिसे हिन्दू समाज इतने वर्षों से स्वयं के साथ होते हुए देख रहा था।
परन्तु प्रश्न यही है कि जो बात सूचना आयोग को गलत लग रही है, वह संविधान की शपथ लेने वाले राजनेताओं को क्यों गलत नहीं लगी? यह प्रश्न तो उठेगा ही कि ऐसा छल क्यों किया जा रहा है?