नेटफ्लिक्स पर फिल्म आरआरआर काफी देखी जा रही है। यह फिल्म कई सन्दर्भों में शानदार फिल्म है। यह फिल्म बॉलीवुड की उस परम्परागत जड़ता पर प्रहार करती है जहाँ पर जनेऊ का अर्थ खलनायक था, जहाँ पर स्वतंत्रता सेनानियो का अर्थ मात्र एक परिवार विशेष या कहें मात्र नेहरू और गांधी तक है, वह जड़ता जो जातिगत भेद उत्पन्न किया करती थी और वह जड़ता जहाँ पर वन्देमातरम बोलना अपराध था।
अंग्रेजों से संघर्ष का सीधा सम्बन्ध अहिंसा या गांधी के साथ जोड़ना जहाँ अनिवार्यता थी और सबसे महत्वपूर्ण कि जहाँ बॉलीवुड में प्रभु श्री राम को खलनायक बनाकर प्रस्तुत किया जाता था, वहीं इस फिल्म में प्रभु श्री राम के माध्यम से एक अद्भुत विमर्श प्रदान किया गया है। किसी ने नहीं सोचा होगा कि अंग्रेजों के साथ लड़ाई में राम और भीम, दो ऐसे नाम मुख्य भूमिका निभाएँगे जिनका हिन्दी जगत तिरस्कार करता आया है, उपेक्षा करता आया है।
यह फिल्म जाति पर गर्व करना सिखाती है, जाति का अर्थ कास्ट नहीं होता, यह अवधारणा इस फिल्म में प्रदर्शित की गयी है। एवं इसमें ज्ञान और शक्ति दोनों के ही परस्पर सामंजस्य से शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
जो औपनिवेशिक सोच भारत में निरंतर चली आ रही थी, उसकी काट यह फिल्म करती है। इस फिल्म को लेकर भारत में भी कई आपत्तियां थीं, परन्तु अब आपत्ति आई है, वह मजेदार है। कॉफ़ी हाउस लन्दन ने 19 जुलाई को एक ट्वीट किया कि अंग्रेजों को भारत में बहुत अधिक खलनायक दिखाया जा रहा है, परन्तु नेटफ्लिक्स की आरारआर, इसे बहुत दूर तक ले गयी है!
इस ट्वीट पर तमाम भारतीयों ने कॉफ़ी हाउस को आईना दिखाया है। भारत की भौतिक सम्पदा को नष्ट करने के पाप के साथ, भारत की बौद्धिक सम्पदा को नष्ट करने का पाप जो अंग्रेजों ने किया है, उसे कभी भी मापा नहीं जा सकता है। भारत की बौद्धिक सम्पदा को ट्रांसलेशन के माध्यम से नष्ट करके जड़ विहीन करने का पाप भी अंग्रेजों ने किया है। परन्तु कॉफ़ी हाउस को लोगों ने अंग्रेजों द्वारा भारत पर किए गए तमाम अत्याचारों के विषय में याद दिलाया।
एक यूजर ने अकाल से पीड़ित लोगों की तस्वीर साझा करते हुए लिखा कि, हाँ पूरी तरह से सहमत हूँ। आरआरआर के निर्माता अंग्रेजों का वर्णन करने में बहुत उदार थे। उन्हें ऐसे सभ्य अंग्रेजों का असली व्यवहार सम्मिलित करना चाहिए था, जो वह भारतीयों के साथ करते थे:
अंग्रेजों के अत्याचार तो राज्य हड़प नीति से लेकर भारत के विभाजन तक तक फैले ही हुए हैं। परन्तु मिशनरी स्कूल्स के माध्यम से कथित ज्ञान, जिसे वह लोग ईसाई रिलिजन का ज्ञान कहते थे, उसके माध्यम से हिन्दुओं को उनकी जड़ों के प्रति आत्महीनता से भरने का कुकृत्य किया है, उसकी कहीं भी क्षमा नहीं हो सकती है।
हिन्दुओं को उनके धर्म और उनके धर्मग्रंथों का शत्रु बनाकर खड़ा कर दिया। जो अवधारणात्मक शब्द से उनका अत्यंत एकपक्षीय भाषांतरण कराया, एवं इस भाषांतरण को एपने एजेंडे के अनुसार प्रयोग करवाया। जिन्हें संस्कृत नहीं आती थी, उन्हे मात्र अंग्रेजों द्वारा कराए गए भाषांतरण के आधार संस्कृत एवं हिन्दू धर्म का विद्वान घोषित करवाया।
मिशनरी लेखकों ने जो भी भारत के विषय में लिखा, उसे ही अंतिम सत्य माना गया। 1857 से लेकर 1947 तक न जाने कितने लोग अंग्रेजों का कई प्रकार से शिकार हुए। युद्ध में, युद्ध से बाहर और यहाँ तक कि अकाल में भी।
जिस भारत में मेग्स्थ्नीज़ ने फसल चक्र की प्रशंसा की थी, उस भारत में अंग्रेजों के आने के बाद लाखों लोग खाद्यान्नों की कमी से मारे गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारत में जो अकाल पड़ा था, उसके कारण लाखों लोग असमय मारे गए थे, उस समय अकाल इसलिए पड़ा था क्योंकि खाद्यान्नों को अंग्रेजों के लिए बचाया जा सके।
जब द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की ओर से सेनाएं जा रही थीं तो ऐसे में यह भी सुनिश्चित किया जा रहा था बंगाल में अनाज न पहुंचे।
इस विषय में मधुश्री मुखर्जी ने अपनी पुस्तक चर्चिल्स सीक्रेट वॉर में बताया है कि किस तरह भारत के अपने अतिरिक्त खाद्यान्न सीलोन निर्यात किए गए थे; ऑस्ट्रेलियाई गेहूं को कलकत्ता के भारतीय बंदरगाह के ज़रिए (जहां सड़कों पर भुखमरी से मरने वालों के शव पड़े थे) भू-मध्यसागर और बाल्कन देशों में भंडारण के लिए भेजा गया ताकि युद्ध के बाद ब्रिटेन में खाद्यान्न संबंधी दबाव कम किया जा सके। इस बीच अमेरिकी और कनाडाई खाद्य सहायता के प्रस्ताव ठुकरा दिए गए थे। एक कॉलोनी के रूप में भारत के पास अपने लिए भोजन आयात करने या अपने भंडार खर्च करने की अनुमति नहीं थी। यहां तक कि अपने स्वयं के जहाजों का उपयोग कर खाद्य सामग्री आयात करने की अनुमति भी नहीं थी। आपूर्ति और मांग के कानून भी मददगार साबित नहीं हुए: अन्य जगहों पर तैनात अपने सैनिकों के लिए खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने भारतीय बाज़ार में अनाज के लिए बढ़ी कीमतें तय कीं, जिससे यह अनाज आम भारतीयों के लिए महंगा और उनकी पहुंच से बाहर हो गया।
twitter पर लोगों ने कॉफ़ी हाउस को कई आंकड़े प्रस्तुत किये:
लोगों ने जलियावाला हत्याकांड के दोषी जनरल डायर के पक्ष में लिखने वालों के विषय में भी बताया
कॉफ़ी हॉउस ने जो लेख साझा किया है उसमे वही लिखा है, जो अम तौर पर कोई भी ऐसा वामपंथी लिखता, जो हिन्दुओं से दिल से घृणा करता है। इस लेख में लिखा है कि
इस फिल्म से भारत को सबसे ज्यादा दुष्परिणाम भुगतना होगा क्योंकि आरआरआर प्रतिक्रियावादी और हिंसक हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देती है, जो मोदी सरकार द्वारा भारतीय संस्कृति और राजनीति पर हावी हो रहा है।
इससे पीड़ित होने वाले कोई अंग्रेज नहीं है बल्कि भारतीय अल्पसंख्यक हैं, सबसे ऊपर मुस्लिम, लेकिन ईसाई भी हैं, और वास्तव में कोई भी उदारवादी हैं जो उग्रवाद, उत्पीड़न और कट्टरता के खिलाफ खड़े होते हैं। वास्तव में, आरआरआर 1920 के ब्रिटिश शासन की कुटिलता को नहीं बताई है वह आज के भारत की बढ़ती कुटिलता को दर्शाता है। नेटफ्लिक्स को इसे बढ़ावा देने के लिए शर्म आनी चाहिए।“
परन्तु जब रॉबर्ट टोम्ब यह लिख रहे हैं, उस समय वह अंग्रेजों के उन तमाम कुकृत्यों पर शर्मिंदा नहीं हैं, जिनके कारण भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ने कष्ट झेला। यह वही दादागीरी वाली मानसिकता है कि हम आप पर अत्याचार भी करेंगे, परन्तु आपको उन अत्याचारों को बताना भी नहीं है क्योंकि यदि आप अपने ऊपर हुए अत्याचारों को बताते हैं तो आप प्रतिक्रियावादी और हिंसक हिन्दू हैं।
और जब तक आप यह कहते हैं कि अंग्रेज आए और उन्होंने हमें “सभ्य” बनाया तो आप समावेशी हैं? यह कितने छिछले स्तर का उपहास है और वह भी उन गोरों के द्वारा जिन्होनें भारत से उसका सब कुछ छीन लिया, यहाँ तक कि उसकी मूल व्यवस्था भी, समाज की चेतना भी और लड़ने की शक्ति भी!
शिक्षा छीन ली और दी औपनिवेशिक गुलामी, जिसने हिन्दुओं को जड़ विहीन करने के लिए हर संभव प्रयास किए और चेतना विहीन करने का प्रयास किया! परन्तु हिन्दुओं की चेतना मृत नहीं हुई है, वह जागृत है और अब जब वह प्रश्न कर रही है तब आप उसे प्रतिक्रिया वादी कह रहे हैं, चर्चिल के नायकत्व की छवि को भारत के मरते हुए लोग ही तोड़ते हैं और आईना दिखाते हैं, लोग कह रहे हैं कि हम आपको आपके अपराध भूलने नहीं देंगे:
भारत के ही नहीं बल्कि विदेशों के भी हिन्दू विरोधी तत्व हैरान हैं कि आखिर आरआरआर जैसी फ़िल्में कैसे लोग बना लेते हैं? क्या चेतना की मृत्यु नहीं होती?
हिन्दू तो पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं, इतिहास को जीकर जाते हैं, इतिहास बनाकर जाते है और प्रतिमाओं में इतिहास उकेर कर जाते हैं,जिससे जब भी ध्वंस के उपरान्त निर्माण का समय आए तो हमारे ही अवशेष मिलेंगे, हमारा ही इतिहास मिलेगा!
इसी चेतना से वामपंथ और हिन्दू विरोधी तत्वों से चिढ है और यही चिढ अब आरआरआर जैसी फिल्मों के विरोध में उन्हें ले आई हैं!