हिन्दी पट्टी का वामपंथी साहित्य स्वयं को मूल्यों से जुड़ा हुआ और कथित रूप से बाजार से परे बताता है और हमेशा उसने बाजार के उन अवसरों का विरोध किया है, जिससे आम जनता को लाभ होता है। उसने हर विकास की परियोजना का विरोध किया है। उसकी दृष्टि में फैक्ट्री शोषक हैं और काम करने वाला आम आदमी बेचारा शोषण का शिकार। विकास की हर परियोजना का वह लोग विरोध करते हैं। और खुद जाकर किस बैनर के तले सामाजिक सरोकार की बात करते हैं? खुद के आयोजनों के लिए इन्हें ऐसे प्रायोजक चाहिए जो इनकी अय्याशियों का खर्च उठा सकें!
और इनकी प्रगतिशीलता और जनवादिता केवल और केवल भारतीय जनता पार्टी एवं हिन्दुओं को गाली देने तक है, उन्हें “रजनीगन्धा” पान मसाले के बैनर के नीचे बैठने में भी कुछ शर्म नहीं है। आज एक दो ऐसे कथित कवियों की कविताओं पर नजर डालेंगे जो बहुत ही बेशर्मी से हिन्दुओं को गाली देते हुए कहते हैं कि “सुनो कवि!”! इनका सच क्या है, इनका हिन्दू परम्परा विरोधी चेहरा क्या है, आइये देखते हैं।
नरेश सक्सेना को यह कहते हुए साझा किया गया है कि “सुनो कवि!”
और आइये देखते हैं कि नरेश सक्सेना की कविताएँ कैसी हैं?
नरेश सक्सेना भी उन्हीं कवियों में से एक हैं जिनके लिए जीवन और क्रान्ति हिन्दुओं को कोसने तक सीमित है। और जरा सोचिये ऐसे दुराग्रही लोगों का परिचय हमारी युवा पीढ़ी से क्या कहकर कराया जा रहा है? सुनो कवि! तो आइये इनकी गुजरात पर कविता पढ़कर देखते हैं कि कवि क्या कहना चाहता है?
नरेश सक्सेना ने गोधरा में जिन्दा जलाए गए उन हिन्दुओं पर कुछ नहीं लिखा कि क्यों उन्हें जलाया गया? क्यों यह कहा नहीं जाता कि “ऐ राम भक्तों, जरा होशियार रहिएगा, किससे, ओह मैं बता नहीं पाया!”
दरअसल कथित प्रगतिशील कवियों के लिए प्रभु श्री राम का नाम लेने वाले लोग कीड़े मकोड़ों से बढ़कर नहीं हैं, और साहित्य आजतक ऐसे कवियों को क्या कहकर हमारी पीढ़ी के सामने परोसता है?
अब आते हैं एक और कवि, जिनका नाम है मदन कश्यप! वह भी कथित रूप से प्रगतिशील हैं और वह भी “रजनीगंधा” के मंच पर गए! उनकी प्रगतिशीलता भी पानमसाले के बैनर के नीचे एक लेखक के रूप में बैठने तक है। उनकी प्रगतिशीलता में उन बेचारे कांवड़ियों को हत्यारा भी ठहराना है, जो बिना खाए पिए अपने महादेव के लिए जल लाते हैं।
हमारे युवाओं के सामने कैसे कवियों को रजनीगन्धा आजतक साहित्य में परोसा जा रहा है, वह देखिये! कवि क्या कहेगा? कवि की प्रगतिशीलता देखिये, कांवड़ के लिए क्या लिख रहे हैं:
“जल्दी-जल्दी ख़ाली कर दो रास्ते
बेटे-बेटियों को घरों में छुपा लो
स्थगित कर दो सभी यात्राएँ
काँवरिए आ रहे हैं !
धरती को पाँवों से
जूतों से बाइकों से
ट्रकों से ट्रैक्टरों से रौंदते हुए
गाँजा-शराब के नशे में धुत्त
फ़िल्मी गीतों की फूहड़ पैरोडियों पर नाचते
काँवरिए आ रहे हैं !
ध्वनि-विस्तारकों की चीख़ और शोर से
ईश्वर को डराते हुए
रास्ते में ग़लती से आ गए बच्चों और
बूढ़ों को कुचलते हुए
राहगीरों के वाहनों में आग लगाते हुए
काँवरिए आ रहे हैं !”
कवि से पूछा जाना चाहिए कि आज तक कितने ऐसे मामले आए हैं, जिनमें इस प्रकार का हुड्दंग महादेव का कांवड़ लाने वालों ने किया है? क्या कवि को यह नहीं पता है कि कांवड़ के नियम क्या हैं? कितने काँवरिए आग लगाते हुए पकडे गए हैं?
कवियों को तथ्यों से भय क्यों लगता है? वह अपनी व्यक्तिगत हिन्दू घृणा को कविता का नाम देकर क्यों परोसते हैं?
मजे की बात यह है कि कवि अपनी एक कविता में लिखता है कि
“हमें शान्त छोड़ दीजिए अपने जंगल में
हम हरियाली चाहते हैं आग की लपटें नहीं
हम माँदल की आवाज़ें सुनना चाहते हैं
गोलियों की तड़तड़ाहट नहीं”
मगर बैठता है जाकर शहरी जीवन की विलासिता वाले “रजनीगन्धा पानमसाला” के मंच पर! यह विद्रूपता नहीं है तो और क्या है? इन कवियों ने अपने मूल्यों को बनाए रखने के लिए क्या किया है अभी तक? अपनी एक कविता सलवा जुडूम में कवि लिखता है कि
“इतिहास गवाह हैं क़त्ल के उत्सव में
मंत्रोच्चार करनेवालों को कभी हत्यारा नहीं कहा गया”
मन्त्रों को हत्यारों से क्यों जोड़ा जा रहा है?
कवि मदन कश्यप रीढ़ की हड्डियां में लिखते हैं कि
मैं एक बच्चे के सामने झुकना चाहता हूँ
कि प्यार की ऊँचाई नाप सकूँ
और तानाशाह के आगे तनना चाहता हूँ
ताकि ऊँचाई के बौनेपन को महसूस कर सकूँ !
मगर गोदी मीडिया के पानमसाले वाले बैनर के नीचे बैठना है, उसके लिए रीढ़ की हड्डी का झुकना या लेटना तय नहीं कर सके?
प्रश्न यह है कि कविताओं में इस हद तक हिन्दू विरोध करने वाले लोगों का परिचय कथित प्रगतिशील कवि के रूप में क्यों कराया जा रहा है? ऐसी क्या विवशता है कि आजतक ऐसे लोगों को आमंत्रित कर रहा है जिनकी कविताओं में हद तक हिन्दू विरोध है, भारत विरोध है!
और सबसे बड़ा प्रश्न तो इन जैसे कवियों से ही है कि आजतक जैसे चैनलों को गोदी मीडिया कहने वाले लेखक और कवि इन चैनलों में होने वाले साहित्योत्स्वों के लिए इतने लालायित क्यों हो जाते हैं, क्या गोदी मीडिया उस समय प्रगतिशील मीडिया बन जाता है? या फिर क्या?
क्या कथित प्रगतिशीलों के मूल्य केवल हिन्दुओं को और भाजपा को गाली देने तक ही सीमित हैं?
हम साहित्य आजतक में आने वाले लेखकों एवं कवियों की तमाम रचनाओं को अपने पाठकों तक पहुंचाते रहेंगे जिससे पाठक समझें कि इन कथित प्रगतिशीलों की प्रगतिशीलता केवल और केवल हिन्दू धर्म या हिन्दुओं को कोसने तक है एवं उनके लिए पानमसाले के बैनर तले उस मीडिया में बैठना प्रगतिशीलता है जिसे वह गोदी मीडिया कहता है!
हिन्दी साहित्य का यह बेशर्म काल है और हिन्दी साहित्यकारों की यह बेशर्मी है!
इन दोनों कवियों की यह कविताएँ कविताकोश पर पढी जा सकती हैं