जब भी कविता की बात आती है तो सहसा ही हम लोगों के हृदय में एक अजीब सी छवि बनने लगती है, एवं कविता का अर्थ स्त्री के रोने-धोने से लेकर भगवान की निंदा तक ही जैसे सीमित हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सांस्कृतिक मूल्यों को नष्ट करने का जैसे कविताओं ने अनुबंध ले रखा है। परन्तु ऐसे समय में जब कविताओं के माध्यम से सांस्कृतिक प्रदूषण को विस्तारित किया जा रहा है, तो उस समय एक ऐसा काव्य संकलन जिसमें सांस्कृतिक मूल्यों का विस्तार हो, उसे पढ़ना सुखद है।
बिम्ब-प्रतिबिम्ब से प्रकाशित डॉ सरोज गुप्ता का काव्य संकलन सूर्या सावित्री ऐसा ही काव्य संकलन है, जो सांस्कृतिक मूल्यों को समेटकर पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। डॉ सरोज गुप्ता की कविताएँ ऐसी हैं जो बौद्धिक छल नहीं करती हैं, वह गणपति स्तुति करती हैं, वह सरस्वती वंदना करती हैं एवं धरती माता की भी वंदना करती हैं। सबसे महत्वपूर्ण है कि उनकी इन रचनाओं में ऐसा कुछ नहीं है जिसे एजेंडा कहा जाए। उनकी कविताओं में उद्देश्य है और वह सांस्कृतिक मूल्यों से समझौता न करना।
उनकी भाषा में वह लोक है, जो कभी भारत की ज्ञान परम्परा को प्रतिबिंबित करता था। वह लिखती हैं
“हे सूर्यदेव, भुवन भास्कर,
प्राची के भाल पर मोहक छवि लिए,
पूर्वाकाश में स्वर्णिम छटा बिखेर,
इन्द्रधनुष रंग में रंगे उदित हो,
सम्पूर्ण विश्व को सौन्दर्य से उद्भासित कर,
असीम निश्चिंतता से आप्लावित होकर अपनी
महानता का देते हो सर्वश्रेष्ठ प्रमाण,
हे सूर्य देव, हे भुवनभास्कर!”
ऐसे शब्द सुनकर हृदय वास्तव में आह्लादित हो उठता है। कविताओं में ऐसे शब्द जिन्हें पढ़कर अपने वृहद अस्तित्व का बोध हो, बहुत दिनों के उपरान्त दिखाई दिए हैं। इन कविताओं में वह मूल्य परिलक्षित होते हैं, जो भरत मुनि से लेकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बार-बार बताए हैं।
वामनाचार्य ने काव्य के दो प्रयोजन बताए हैं, दृष्ट और अदृष्ट। दृष्ट लौकिक कीर्ति, तो अदृष्ट आलौकिक फल के लिए है।
रुद्रट: रुद्रट ने काव्य प्रयोजन का विस्तार करते हुए छः तत्वों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार: काव्य का उद्देश्य है: यश की प्राप्ति (कवि के लिए), चरित्रनायकों के यश का विस्तार, कवि काव्य-सृष्टि कर चरित्र नायक के यश को फैलाता है, धन एवं असाधारण सुख तथा अभीष्ट कामनाओं की प्राप्ति, रोग मुक्ति, अभीष्ट वरदान की प्राप्ति, चतुर्वर्ग की सिद्धि ही काव्य रचना के उद्देश्य हैं।
वहीं यदि हम महावीर प्रसाद द्विवेदी की बात करें तो वह कहते हैं कि काव्यानंद ही काव्य का प्रयोजन है। वे नैतिक मूल्यों की स्थापना को काव्य का उद्देश्य स्वीकार करते हैं और आनंद और शिक्षा ही वे काव्य के प्रयोजन बताते हैं। “जिस कविता से जितना ही अधिक आनंद मिले, उतना ही ऊंचे दर्जे की समझना चाहिए।”
जबकि इन दिनों जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, उन्हें पढ़कर हृदय में विकृति का स्वरुप उभर कर आता है, ऐसे में डॉ सरोज गुप्ता की कविताएँ उसी काव्यानंद से पाठकों को भरती हैं, जिसका उल्लेख महावीर प्रसाद द्विवेदी करते हैं। क्योंकि जब सरोज गुप्ता लिखती हैं
अयोध्या में ध्वज फहराने, श्री राम आ रहे हैं।
मानवीय उदात्ता, संकल्प शक्ति,
सद्गुणों की खान हैं श्री राम,
अत्तीत का गौरव, निष्ठा पराकाष्ठा,
भारतीयता की शान है श्रीराम,
तब हृदय उसी आनंद से भर उठता है, जो काव्य का प्रयोजन है।डॉ सरोज गुप्ता की कविताएँ उस उद्देश्य को परिलक्षित करती हैं जो आचार्य राम चन्द्रशुक्ल बताते हैं। रामचंद्र शुक्ल काव्य के उद्देश्य या प्रयोजन को सामाजिकता से जोड़ते हैं। उनके अनुसार कविता कुछ ऐसी चीज़ है जो मनुष्य के ह्रदय को संकुचित भूमि से उठाकर एक वृहद सामाजिक स्थिति तक ले जाती है। सामाजिकता के साथ कविता को जोड़ते हुए वे लिखते हैं: “कविता का अंतिम लक्ष्य जगत के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य ह्रदय का सामंजस्य स्थापन है। इतने गंभीर उद्देश्य के स्थान पर,केवल मनोरंजन का हल्का उद्देश्य सामने रखकर जो कविता का पठन पाठन या विचार करते हैं, वे रास्ते मं, ही रह जाने वाले पथिक के समान है।”
यह कविताएँ लोक की भावभूमि पर विस्तार होने वाली एवं लोक के विमर्श को अंतर्राष्ट्रीय विमर्श तक ले जाने वाली कविताएँ हैं।
इस संकलन में वीर हनुमान पर तो कविता है ही, साथ ही उन परशुराम पर भी कविता है जिन्हें विमर्श में लगभग खलनायक ठहरा दिया गया है। डॉ सरोज गुप्ता की कविताएँ प्रचलित विमर्श के हर दायरे को तोड़ती हैं। वह मूल्यों के साथ चलती हैं, वह कथित आयातित मूल्यों के साथ भारतीय लोक को अनुकूलित नहीं करती है, अपितु वह ऐसी रचनाएं रच रही हैं जिनके कारण अंतर्राष्ट्रीय विमर्श उनके लोक के अनुसार अनुकूलित हो।
और अपना वह विमर्श वह लिखती भी हैं, जब वह कोरोना संकट पर कविता लिख रही हैं। वह लिखती हैं कि
“आया समय परिवर्तन का देखो,
स्वदेशी अपनाओ, स्व को पहचानों,
जो जहां हैं, वहीं से कार्य शुरू करो,
प्रकृति ने समझने का मौका दिया!”
यह कहा जा सकता है कि विकृत विमर्श के दौर में यह कविताएँ मूल्यों का ठंडा झोंका लाती हैं