जीवन जो जिया, देश के लिए जिया, देश हित हर संभव कदम उठाया,
उस दिन भी रोज़ की तरह सूरज निकला था। भारत का सूरज उन दिनों इसी आस में निकलता था कि एक दिन वह उसी स्वतंत्र भूमि का चरणस्पर्श करेगा जिस भूमि से ज्ञान का प्रकाश पूरे विश्व में फैला था। शासन के स्तर पर दास भारत के स्वतंत्र पुत्र नित की भांति एक उम्मीद से उठे थे कि आज फिर कोई योजना बनाई जाएगी और भारत शीघ्र स्वतंत्र होगा। उस समय हवा में भगत सिंह की फांसी को लेकर एक दबाव था। महात्मा गांधी और लार्ड इरविन के मध्य भगत सिंह को फांसी से माफी देने को लेकर बैठक विफल हो चुकी है, और उसके बाद देश एक अवसाद में चला गया था। क्या होगा और कैसे होगा, यह सब क्रांतिकारियों की चर्चा का हिस्सा होता था।
क्या फिर से हम अपने नायक खो देंगे? क्या इन नायकों के भाग्य में स्वतंत्र भारत का सूर्य देखना नहीं लिखा है? क्या गंगा, जमुना और सरस्वती के संगम वाले देश का भाग्य यही होगा? यह प्रश्न अब सबके चेहरे पर छा रहा था।
फरवरी 1931 का महीना बहुत कुछ निराशा को लेकर आ रहा था। इसी निराशा को छिटकने के प्रयास में इलाहाबाद में प्रयास किए जा रहे थे। उन दिनों अंग्रेजी सरकार द्वारा की जा रही सख्ती के कारण पंडित चन्द्र शेखर आज़ाद छिप छिप कर कार्य कर रहे थे।
“क्या भगत को छुड़ाने का कोई भी रास्ता नहीं शेष रहा है?” आज़ाद ने सीतापुर जेल जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी से बात की थी। उन्हें उम्मीद थी कि विद्यार्थी जरूर ही भगत सिंह को बचाने में सफल रहेंगे।
“पंडित जी, काकोरी काण्ड में तो काम मुझसे हो गया था, मगर इस बार मुझसे नहीं हो पाएगा।”
उन्होंने हाथ खड़े करते हुए कहा।
पंडित जी अर्थात पंडित चंद्रशेखर आज़ाद निराश हुए, यह निराशा उन्हें कचोट रही थी। उन्होंने एक एक कदम बहुत सोच समझकर उठाया था। मगर यह कदम थोड़ा गलत हो गया था। भगत ही नहीं रहेगा तो वह इस संग्राम में और आगे कैसे जाएंगे?
आज़ाद ने बहुत दबे स्वरों में पूछा “क्या अब कुछ नहीं हो सकता?”
“हो क्यों नहीं सकता?”
“क्या हो सकता है?”
“देखिये पंडित जी, अभी कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला है, और इस समय भगत सिंह और तुम लोगों को लेकर जो आक्रोश है, उसे देखकर यही लगता है कि गांधी जी पर दबाव होगा कि वह भगत सिंह और राजगुरु और सुखदेव की फांसी की माफी की बात करें। यही समय की मांग है और यदि तुम खुद कहो तो हो सकता है इसका प्रभाव और हो।”
“मैं? मैं कैसे? मैं गांधी जी से कैसे बात कर सकता हूँ?” चन्द्र शेखर आज़ाद हिचकिचा गए थे।
“सुनिए पंडित जी, आप न पंडित नेहरू के पास जाइए। इलाहाबाद में जाकर उनसे मिलिए। आपको ज्ञात ही है कि महात्मा गांधी उनकी बात मानते हैं, वह उनकी बात नहीं टालेंगे। और आप लोगों ने जो कदम उठाया था वह लाला लाजपत राय की मृत्यु के प्रतिशोध के चलते ही उठाया था, यह उन्हें समझाना ही होगा। आप जाएं पंडित जी, और पंडित नेहरू से बात करें। मुझे आशा है कि अगली भेंट मेरी आपके और भगत सिंह दोनों के साथ होगी।”
कहकर गणेश शंकर विद्यार्थी ने हाथ जोड़ लिए।
पंडित चंद्रशेखर आज़ाद, भी एक क्षीण मुस्कान लिए वहां से चले आए। आजकल उनके दिमाग में आज़ादी और भगत सिंह के अलावा कुछ नहीं चलता। और अगर चलते हैं तो केवल और केवल उनके द्वारा किए गए काम! आज़ाद जब अपने कामों के बारे में सोचते हैं तो उनके चेहरे पर एक गर्वीली मुस्कान आ जाती है। यह मुस्कान उन्हें कई दुखों से दूर रखती है। मगर यह दुःख कौन से हैं, क्या उन्हें यह दुःख है कि उनका भी अंतिम समय भगत सिंह जैसे कैद में न बीते या उनका भी अंतिम समय आ गया है।
क्या होगा? उनके द्वारा उठाए गए क़दमों का यही नतीजा होना था, यह उन्हें पता ही था कि होगा और यह वह बार बार अपनी माँ को भी बोलते रहते थे।
सीतापुर की सड़कों पर चलते चलते वह भाबरा गाँव में पहुँच गए थे, जहाँ उनका जन्म हुआ था। और माँ जगरानी का प्रेम याद आने लगा। इस मोड पर क्यों यह सब याद आ रहा है। सब कुछ तो उन्होंने तज दिया था भारत के लिए। यह भारत ही तो है जिसके प्रेम में ऐसे पड़े कि फिर सारे प्रेम छोड़ दिए। और उन्होंने अकेले ने नहीं बल्कि भगत सिंह और राजगुरु सभी ने तो छोड़ दिए थे।
इस देश को आज़ाद कराने के लिए अब वह सब कुछ करने के लिए तैयार थे।
कदम इलाहाबाद की तरफ बढ़ रहे थे मगर आँखों में वही रात थी जब बाबा से क्रोधित होकर घर से निकल गए थे। और वह झगड़ा क्यों हुआ था? उन्हें हंसी आ गयी।
“क्या पंडित जी, किस बात पर हंस रहे हैं?” उनके साथी ने पूछ लिया।
आज़ाद तो भूल ही गए थे कि वह है कहाँ! उनके कदम चल रहे थे और वह अतीत के सफ़र पर बढ़ रहे थे। उन्हें याद है कि उनके पिता बहुत क्रोध करने वाले हुआ करते थे। उनके क्रोध से सभी भयभीत हुआ करते थे। प्रेम यदि उनके हिस्से का मिलता था तो वह उन्हें अपनी माँ से मिलता था। वह सारा प्रेम उड़ेल देतीं थी। पंडित सीता राम तिवारी, अर्थात पंडित चन्द्र शेखर आज़ाद के पिता के तीन विवाह हुए थे। जगरानी उनकी तीसरी पत्नी थीं। पंडित सीता राम तिवारी अपने लड़के को अपनी ही निगरानी में रखा करते थे। वह सरकारी अफसर थे तो रुआब था।
सरकारी अफसर?” एकदम से जैसे पंडित जी के सफ़र पर ब्रेक लग गया।
“इलाहाबाद कितना दूर है अभी?”
“अभी देर लगेगी! मगर आप छिपकर रहिये।”
अचानक से ही पंडित चंद्रशेखर आजाद फिर से हंस पड़े। और यह हंसी उन्हें समय के इस चक्र पर आई कि कहाँ एक तरफ उनके पिता सरकारी अधिकारी हुआ करते थे और कहाँ वह अब सरकार से छिपकर भाग रहे थे।
पर अब तो उन्होंने कफ़न बाँध लिया था अपने सिर पर, तो चलना तो था ही!
उन्हें चलते चलते आज बम्बई तक का भी वह सफ़र याद आ रहा था जब वह भाग कर चले गए थे और चावलों के ठेले पर बर्तन तक मांजे थे।
13 साल के आज़ाद जब घर से कुपित होकर भाग गए थे और भाग्य ने उन्हें बंबई पहुंचा दिया था। मगर जिसके भाग्य में देश के लिए मरने की बात लिखी हो वह ऐसे छोटे मोटे काम कैसे कर सकता था। आज़ाद को आज तक याद है कि कैसे एक अजीब सी तड़प के कारण भाग गए थे वह बनारस! उन्हें याद था कि कैसे सब उनकी जिद्द से परेशान हो जाते थे। मगर अम्मा को हमेशा यकीन रहा कि उनका बेटा एक दिन इतिहास की प्रेरणा बनेगा।
पंडित जी थोड़ी ही देर बाद बनारस की गलियों में भटकने लगे। 15 बरस की आयु में वह बनारस पहुँच गए थे।
ओह बनारस!” वह क्यों आए थे बनारस? क्या महादेव की नगरी में आना उनकी नियति थी। आज चंद्रशेखर सोचते हैं तो वह हंस पड़ते हैं। कहीं न कहीं महादेव ने ही उनके लिए तय कर रखा था, कि वह देश के लिए काम करेंगे, नहीं तो वह ऐसी चेतना क्यों डाल देते? यह महादेव हैं ही औघड़, जो न खुद चैन से बैठते हैं और न ही भक्तों को बैठने देते हैं। पंडित जी को एक बार फिर से हंसी आ गयी।
चंद्रशेखर आज़ाद आज इतने व्यथित थे कि उनके मन में सारी बातें रील की तरह चल रही थीं। अपने देश की देह और आत्मा दोनों पर इतने घाव देखना और उन घावों से रिसते घावों से खून को देखना। उन जैसे लाखों युवाओं ने जैसे ठान लिया था कि जो कुछ भी हो जाए, अब तो माँ को आज़ाद कराकर ही रहेंगे।
कई बार तो वह खुद ही नहीं सोच पाते थे कि जो स्वप्न उनकी आँखों में है वह कब तक साकार रूप में आएगा? और यदि आएगा भी तो कब तक आएगा? क्या उनके जीवित रहते रहते आ जाएगा? चन्द्रशेखर कभी कभी सोचते कि क्या वह कभी गोरों के बगैर भारत की कल्पना कर सकते हैं?
आज़ाद अब इस पड़ाव पर सोचते हैं कि वह सुबह जल्द आएगी। और इस सुबह की तलाश में वह इतना चल आए हैं, या कहें कि जन्मों से चले आ रहे हैं।
कहा जाता है कि स्मृति है जो शरीर को चेतनामयी रखती है, पूर्वजन्म में वह कोई देश के लिए मरने वाले ही रहे होंगे और उद्दंड भी! उद्दंड सोचते ही उनके चेहरे पर हंसी फ़ैल गयी। वह एक बार फिर से यथार्थ में आ गए। और उन्हें ध्यान आया कि वह तो अभी इलाहाबाद के रास्ते में हैं। उसी इलाहाबाद के रस्ते में जहाँ पर जाकर उन्हें जवाहर लाल नेहरू से मिलना है और फिर अपने भगत सिंह के बारे में बात करना है।
भगत का नाम याद आते ही वह फिर से उसी समय में चले गए जब बनारस में उन्हें अपना सब कुछ तज कर आन्दोलन में कूदने की प्रेरणा मिली थी और उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ था जैसे कोई है जो उन्हें बार बार आकर कह रहा है कि क्या कर रहे हो, यही समय है! यही समय है जब चले जाना है तुम्हें समर में! यही समय है जब चलना है तुम्हें उस पथ पर जिस के लिए तुम बने हो!
यही समय है जब देश पुकार रहा है और इसी पुकार को सुनना है!
ओह! मेरे देश! आह मेरे देश! कैसे गौरवमयी थे तुम और क्या हो गए हो? ऐसा कैसे हुआ और क्यों हुआ? कई बार सोचते थे आज़ाद कि चन्द्रशेखर से चन्द्र शेखर आज़ाद तक का सफ़र कैसा रहा और कैसे हुआ यह सब? उनका दिमाग कई बार फिर से दिल की उसी गहराई में चला जाता जहाँ उन्हें भारत माँ का लहराता आँचल नज़र आता!
जिस आँचल में कभी सोने चांदी के तारों से कढाई हुआ करती थी, उस आँचल में अब गरीबी के धब्बे लग चुके थे, और वह उस राह पर चल चुकी थी जहाँ पर अब निर्जनता ही निर्जनता थी।
चंद्रशेखर सोचते हैं कि क्या होता अगर अंग्रेज न आते? क्या होता अगर वह पूंजी जो बाहर चली गयी है वह यहीं होती और क्या होता अगर इस जमीन पर यह गोरे और काले अंग्रेज न होते! आज़ाद हंसने लगते, काले अंग्रेज शब्द पर! हाँ काले अंग्रेज! कितना अजीब शब्द है, मगर है तो है ही न! अब वह क्या करें? कितने लोग उन्हें मिलते थे जो बार बार इसी देश की बुराई करते, इसी में कमियाँ निकाल देते! न जाने क्या क्या कहते! मगर वह तो खुद को इस मिट्टी की संतान मानते हुए अपने देश के लिए कुछ भी सुनने से इंकार करते।
ऐसा ही एक दिन था जब विचारों की इस यात्रा में उन्हें महात्मा गांधी जी के विचार सुनाई दिए। वह महात्मा गांधी के विचारों की तरफ खिंचे चले गए थे।
आज के चंद्रशेखर आज़ाद उन दिनों केवल चंद्रशेखर ही हुआ करते थे। मन में बहुत कुछ करने के चाह थी मगर कैसे करें? और क्या करें समस्या यही थी। आज जब वह इतने महत्वपूर्ण दिन पर पहुँच गए हैं, वह अपने उसी दिन को याद कर रहे हैं, जब वह काशी विद्यापीठ में अध्ययन रत थे। हिंदी और संस्कृत का अध्ययन किया करते थे। परन्तु यह अवश्य सोचते कि क्या वाकई उनका जन्म इसी लिए हुआ है कि वह हिंदी और संस्कृत का अध्ययन करें या फिर उनका जन्म किसी और उद्देश्य हेतु हुआ है। क्या उनके ह्रदय से जो आवाज़ आ रही है वह वही आवाज़ है जो वह कर रहे हैं या संकेत कुछ और हैं?
मन ही मन में उलझ जाते और धागे उन्हें और बाँध देते।
ऐसे ही एक दिन काशी की सड़कों पर गांधी जी के आन्दोलन की चर्चा करते हुए कुछ लोग मिले। सभी आन्दोलन और आज़ादी की बातें कर रहे थे। पंद्रह वर्ष के चंद्रशेखर, गांधी जी के विचारों के चलते कूद पड़े जंग में और फिर वह हुआ जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी।
पंद्रह वर्ष की उम्र कुछ होती है क्या? वह बार बार सोचते, मगर कभी कभी कहते “समय नहीं है मेरे पास, जो करना है अभी ही करना है!” हर समय उन्हें कुछ न कुछ करने की ललक लगी ही रहती थी। ऐसे में गांधी जी के आन्दोलन में झंडा लेकर कूद गए थे। न कुछ सोचा बस अपने देश के बारे में सोचा, करना ही क्या था, बस झंडा लेकर नारे ही तो लगाने थे और फिर वह कूद ही पड़े। आज जब उनका बेचैन है तो वह यह नहीं सोच पा रहे हैं कि उस दिन क्या हुआ था जब झंडा लेकर कूद पड़े थे।
वह कोई अनुभवी क्रान्तिकारी तो थे नहीं कि पकड़ में न आते। पहली बार आए मैदान में और पकडे गए।
खारेघात आईसीएस की अदालत में पेश किया गया। पन्द्रह साल के बालक को देखकर सब हैरान रह रहे। उसके मासूम चेहरे को देखकर सभी को महसूस हो रहा था कि क्या वह दंड की सजा झेल पाएगा? और अगर झेल गया तो क्या जीवित रह पाएगा?
चंद्रशेखर पहुंचें, स्वदेश और स्वराज्य के पथ पर प्रथम पग धरते हुए, जब वह अदालत में प्रस्तुत हुए तब उन्हें खुद में एक अजीब सी शक्ति का अहसास हुआ। यह अहसास होते ही कि वह आज आज़ादी की दिशा में प्रथम कदम धर चुके हैं, उनके बदन में झुरझुरी दौड़ गयी।
चंद्रशेखर आज भी उस दिन को याद करते हैं तो झुरझुरी दौड़ जाती है, क्या इतना सरल था सब कुछ कह देना और कर देना। उन्हें तो उस दिन केवल अपनी भारत माता का आँचल लहराता हुआ दिखा और जैसे ही अदालत की तरफ से सवाल आया कि उनका नाम क्या है, चंद्रशेखर का उत्तर आया
“मेरा नाम आज़ाद है!”
और ऐसा कहते ही सारी हवाएं उसी अदालत की देहरी पर सिर झुकाने आ गईं। कितनी मधुर मुस्कान फ़ैल गयी, जो जहाँ था वहीं अटक गया। जो जहां था वहीं से कहने लगा “आज़ाद, आज़ाद!”
अदालत में इस तरह तौहीन के स्वर फैले नहीं थे, अदालत ने अभी तक अपनी तौहीन को पीना सीखा नहीं था, मगर उसे नहीं पता था कि आज उसका सामना आज़ादी के मतवाले से हुआ है। जिसने खुद को आज आज़ाद घोषित कर दिया। वह तो सारी ज़िन्दगी आज़ाद ही रहने का सपना लेकर आया था।
“आज़ाद? यह कैसा नाम है, पूरा नाम बताओ!”
“मेरा नाम आज़ाद है!” वह बालक एक बार फिर से सिंह रूप में दहाड़ा!
“और पिता का नाम?” एक बार फिर से प्रश्न आया
“पिता का नाम है, स्वाधीन!” और फिर तौहीन का माहौल छा गया, अदालत में बैठे हुए लोगों में हर्ष की लहर दौड़ गयी। यह कैसा अद्भुत बालक है, इस बालक में क्या साहस है, यह साहस ही जनता में स्वाधीनता के भाव को जगाएगा! लोग हर्ष से पुलकित होने लगे थे।
“अच्छा, फिर तुम कहीं रहते तो होगे? तुम्हारे घर का पता?” फिर से प्रश्न आया
फक्कड़ से चंद्रशेखर कहाँ रहते होंगे? वह फिर हंसने लगे! अब कुछ न सूझा तो बोले “मेरा घर है जेल खाना!”
यह अदालत की सबसे बड़ी तौहीन थी। मगर इंसानों की और ख़ास तौर पर अंग्रेजों की यह अदालत यह नहीं देख पा रही थी कि महाकाल के नगर में केवल महाकाल का ही न्याय चलता है, इन लोगों का नहीं!
उस रोज़ अदालत ने अपनी हद पार करते हुए उस बालक की पीठ पर पंद्रह कोड़ों की सजा दी!
“पंद्रह कोड़े! मात्र! क्या जेल नहीं?” चन्द्रशेखर ने परिहास किया
यह उद्दंड परिहास अदालत को यह बताने के लिए पर्याप्त था कि बहुत हुआ! अब उनके बोरिया बिस्तर सम्हालकर जाने का समय निकट आ रहा है।
चंद्रशेखर ने जब अपना नाम आज़ाद बताया था तभी उनकी किस्मत में लिख गया था कि वह जेलखाने नहीं जाएंगे, अब चंद्रशेखर फिर हँसते हैं कि देखो क्या हुआ!
तो उस दिन जैसे ही पंद्रह बेंतों की सजा दी गयी, बालक के चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी। वाह माँ के आँचल को अपने खून से रंगने का समय आ गया? कितना तेज था उस समय उनके मुख पर! बनारस जेल का जेलर सरदार गैंडा सिंह, उस बालक से बहुत प्रभावित हुआ। उसके दिल में चंद्रशेखर के लिए प्यार उमड़ आया। जब चंद्रशेखर आज़ाद को कोड़े पड़ रहे थे तो खुले मैदान में वह हर कोड़े पर वन्देमातरम कहते!
लोग हैरान थे कि आखिर यह पंद्रह बरस का लड़का इतना मजबूत कैसे है कि वह टूट ही नहीं रहा। वह टूटने के लिए था ही नहीं! वह तो केवल जूझने के लिए था, इतना जूझने के लिए कि जो मार रहा है उसके हाथ थक जाएं मगर वह न थकें! जैसे ही कोड़ा पड़ता वह बोलते वन्देमातरम!
माँ के लिए कोड़ा खाने का जूनून उस बालक में जैसे एक शक्ति भरता जा रहा था। उस बालक के भीतर विचारों का प्रवाह भी बदलता जा रहा था। खाल उधड गयी थी, खून बहने लगा था, मगर मजाल कि उसके मुंह से उफ़ निकल जाए! माँ के लिए इस शरीर की एक एक बूँद चढ़ा दूंगा, अपनी माँ की याद भी आई, मगर हर कोड़ा चन्द्रशेखर की चंद्रशेखर आज़ाद की तरफ की यात्रा की तरफ एक कदम बढ़ा रहा था। आँखों में गर्व के आंसू थे, जैसे कह रहे हों, माँ सब कुछ तुम्हारा है, यह खून, यह खाल, यह चमड़ी! सब कुछ! लोगों को लगा जैसे वह दर्द के आंसू थे, मगर आंसू थे और चेंहरे पर मुस्कान! यह मुस्कान लोगों को भ्रमित कर रही थी, जैसे ही ग्यारहवां कोड़ा पड़ा चंद्रशेखर के मुहं से निकला “महात्मा गांधी की जय!”
यह पीड़ा से उपजी जय जयकार नहीं थी,। यह सहज थी! बालक के विचारों का व्यास बढ़ गया था, जैसे ही पंद्रह कोड़े खत्म हुए, वह चंद्रशेखर से चंद्रशेखर आज़ाद बनकर जेल से बाहर निकले! सरदार गन्डा सिंह ने उन्हें गर्मागर्म दूध का एक गिलास पिलाया। जैसे ही चंद्रशेखर ने जेल से बाहर कदम रखा, बाहर चंद्रशेखर आज़ाद के नाम से नारे लग रहे थे। यह नारे और जयजयकारा उन्हें भा तो रहा था मगर उन्हें यह पता था कि इससे कुछ नहीं होगा!
“मार्ग बदलना होगा!” वह बुदबुदाए!
“क्या कह रहे हो पंडित जी?” कोई बोला
“कुछ नहीं!” चंद्रशेखर आज़ाद आज में आ गए, जब वह एक निर्णायक सफ़र पर चल निकले हैं।
“कुछ सोच रहा था! अब तो भेष बदल बदल कर चलते चलते अपना खुद का नाम ही जैसे भूल गए, और केवल यही याद है कि आज़ाद हैं और आज़ाद रहेंगे!”
“हाँ पंडित जी!”
और फिर से चंद्रशेखर चंद्रशेखर आज़ाद की यात्रा की तरफ चल पड़े। उन्हें याद है कि उस दिन बेंत की मार खाकर लौटे थे तो पूरे शहर में मशहूर हो गए थे। मगर उन्हें लोकप्रियता बहुत ही खोखली लग रही थी। ग्राम सभा में उनका चित्र लिया गया, और उनके लिए जुलूस भी निकला, मगर चंद्रशेखर आज़ाद को लग रहा था कि यह सब ठीक है, मगर ऐसे नहीं हो सकता! कैसे हो सकता है कुछ? क्या कुछ दिन जेल जाकर और भारत माता की जय बोलकर या महात्मा गांधी की जय बोलकर ही देश आज़ाद हो जाएगा। क्या जेल के डंडे आक्रोश को ठंडा नहीं कर देंगे या फिर भय का संचार नहीं कर देंगे? क्या पुलिस की अंधेरगर्दी से वह डरकर शांत नहीं बैठ जाएंगे? क्या दमन से लोग अपने पैर पीछे नहीं खींच लेंगे? वह न जाने कितनी देर तक इन्हीं विचारों में डूबे रहे! उनके दिमाग में तर्क और वितर्क चलते रहे। कई लोगों से बात की!
जिससे भी बात करें वह हैरान रह जाए कि क्या वह महज़ पंद्रह वर्ष के बालक से बात कर रहा है? उसकी उम्र इन सब तर्क वितर्क के योग्य नहीं थी, मगर उनकी चेतना ऐसी थी जो शायद कई जन्मों की यात्रा करके पहुँची होगी। यह वही चेतना थी जो उन्हें यहाँ तक लाई थी और अब आगे की रूपरेखा बना रही थी। हिंसा और अहिंसा के बीचे झूलते झूलते वह अंतत: इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए केवल और केवल हिंसा का सहारा लेना होगा।
अहिंसा से जेले भरने का कोई फायदा नहीं है, और जब मरना ही है तो शान से मरा जाए!
क्या करें, या तो कांग्रेस का हिस्सा बन जाएं कुछ सालों तक जेल में रहें, बाहर आकर नेता बनें या फिर संगठन शुरू करें!
संगठन के लिए पैसे और लोग कहाँ से आएँगे? लीडर तो सभी बनना चाहते हैं मगर नेतृत्व कौन लेगा? ऐसे कई सवाल उनके मन में उठे और फिर उठते रहे। वह बार बार खुद को कहते रहे कि अभी यह सब बहुत जल्दी है, मगर उनके भीतर से जैसे कोई कह रहा था “आज़ाद, यही समय है, यही समय है!”
उन्होंने आयरलैंड की आज़ादी के बारे में भी सुना था, और पढ़ा था। वहां से अंग्रेजों को भागना पड़ा था। और वहां पर अहिंसा जैसी कोई बात नहीं थी, महज़ जेलें भरकर क्या होगा? निहत्थे गोली खाने का क्या फायदा? क्यों वह एक ऐसे मार्ग पर चलें जिस पर चलकर उनका नाम तो होगा मगर संतोष नहीं मिलेगा!
और फिर कई दिनों की इसी कशमकश ने उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुंचाया कि यदि उनका स्वप्न भारत की स्वतंत्रता और स्वाधीनता है तो उन्हें कुछ कड़े कदम उठाने होंगे। संगठन बनाना ही होगा, और सबसे बड़ी बात कि परिवार को भूलना होगा!
आँखों के सामने माँ की तस्वीर घूम रही थी, एक ऐसे पड़ाव पर थे जब देह में कई उमंग उठती थीं, जब शरीर एक नए सफ़र पर चलने की तैयारी में होता है और जब शरीर की कई इच्छाएं होती हैं, तब उन्होंने प्रतिज्ञा की। यह प्रतिज्ञा भीष्म की प्रतिज्ञा जितनी दृढ थी। जैसे ही यह निश्चय हुआ, वैसे ही सारे धुंध हट गए और चंद्रशेखर, पंडित चंद्रशेखर आज़ाद के रूप में बदल गए।
संगठन
जब आज़ाद ने मैदान में कूदने का तय किया तब तक यह सरकार दमन का रास्ता पकड़ चुकी थी, मगर उसे यह नहीं पता था कि उसका दमन का रास्ता कहीं और नहीं जाएगा, यह मन में बगावत का मार्ग तय करेगा। जितना ज्यादा लाठियां पड़ती लोगों के, लोग उतना ही आगे बढ़ते। सरकार की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? मगर समस्या यह भी थी कि लोग लाठी तो खाते, मगर दिशा नहीं थी। क्रांतिकारियों के तमाम दल बन गए थे। और सब स्व-संचालित थे। एक ही तमन्ना कि बस देश के लिए सब कुछ लुटाकर आगे बढ़ जाना है। ऐसा ही एक क्रांतिकारी दल था हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन। बिस्मिल के साथ जुड़ना उनके जीवन का सबसे बड़ा दिन था। उन्हें ऐसा लगा जैसे उनके सपने को पर लग गए हों। पहलवानी चलती रहती, क्योंकि उन्हें पता था कि जब तक शरीर स्वस्थ रहेगा तभी तक वह अपने देश की सेवा कर पाएंगे। ऐसा क्या कि सेवा करते करते, उपवास करते करते खुद ही बीमार हो जाए और लोग उनकी सेवा में लग जाएं। तो पहलवानी करते, दंड पेलते और खुद को एकदम स्वस्थ रखने के लिए तैयार रहते।
आज़ाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में सबसे कम उम्र के थे, मगर उनका तेज और उनके विचार सुनकर सब उनके मुरीद थे।
मगर शीघ्र ही सबकी समझ में आ गया था कि इस मार्ग के लिए सबसे आवश्यक जो है वह ही उनके पास नहीं है अर्थात धन! उनके पास पैसा ही नहीं है कि वह आगे बढ़ पाएं, कदम पीछे करने से देश पीछे चला जाता और आगे कैसे बढ़ें?
“आज़ाद, हमारे दल में कोई अमीर व्यक्ति तो है नहीं, कोई अमीर घर का लड़का नहीं, जो है हमीं हैं और हमारे पास उत्साह और स्वयं के सिवा कोई नहीं है। आगे बढ़ने के लिए हमें संसाधन चाहिए अर्थात हमें धन चाहिए!”
“लोग तो ऐसे देंगे नहीं और भारतीयों का धन लेकर भी क्या होगा? उनसे तो यह सरकार ही वसूल लेती है तो क्या किया जाए? एक ही रास्ता है डकैती?”
“बात तो तुम ठीक कह रहे हो, मगर डकैती में जोखिम है!”
“जोखिम तो सभी में है! घर जाते समय कोई ह्त्या कर सकता है, कुछ भी हो सकता है!”
फिर योजना बनाकर डकैती की तरफ कदम बढ़ाए गए। यद्यपि राम प्रसाद बिस्मिल ने बहुत प्रयास किए कि डकैती न डालनी पड़े मगर ऐसा संभव नहीं था। अब देश के सामने वह काण्ड आने वाला था, जिसके बारे में अब तक किसी ने सोचा न था, अब राजनीति को बदलने वाला तूफ़ान आने वाला था।
“हम किसी भारतीय को नहीं लूटेंगे! पहले से लुटे हुए लोगों को क्या लूटना!” बिस्मिल ने कहा
योजना बन रही थी, और साथ ही यह भी ध्यान रखा जा रहा था कि जनता में क्या सन्देश जाना है।
जनता में केवल यह सन्देश जाए कि यह डकैती केवल और केवल जनता के लिए है और जनता के खिलाफ नहीं!
काकोरी काण्ड
बहुत सोच विचार कर यह तय किया गया कि डकैती ट्रेन में डालनी है और उस ट्रेन में डालनी है जिसमें खजाना जा रहा है, अब यह खजाना देश से बाहर नहीं बल्कि देश के भीतर ही रहेगा। उन्हें उनके सूत्रों से पता चला कि ट्रेन खजाना लेकर गुजर रही है और अब यह तय हो गया है कि उन्हें इसे लूटना है।
आज चंद्रशेखर आज़ाद सोचते हैं तो उन्हें हैरानी होती है कि कैसे यह योजना बनी और कैसे इसका क्रियान्वयन हुआ। यह सब बहुत कठिन था, मगर सरल तो बच्चे का प्रथम बार सांस लेना भी नहीं होता। दरअसल पहले अंग्रेज लोग क्रांतिकारियों को ही डकैत घोषित करके उन्हें ही जनता की निहागों में मुजरिम बना देते थे।
बहुत जल्द यह धारणा बदलने वाली थी।
योजना बनी कि लखनऊ में ही ट्रेन को लूटा जाए, मगर डर यह हुआ कि कहीं हिंसा न करनी पड़ जाए! योजना के अनुसार बिस्मिल ने सभी सदस्यों को कई कई काम सौंपे। चंद्रशेखर आज़ाद का यह प्रथम अभियान था और इस अभियान की सफलता के लिए उन्हें सभी को मिलकर और एकजुट होकर काम करना था। आज़ाद को अपना उत्साह स्थगित नहीं करना पड़ा था और अगस्त माह में ही उन्हें यह कदम उठाना था। इस बार की बारिश उनके लिए एक ऐसी बारिश का सन्देश ला रही थी जो पूरे देश के सामने क्रांतिकारियों की छवि बदलने जा रही थी। योजना बन गयी, मगर समस्या यह थी कि सिक्कों का वजन बहुत भारी होता।
आज़ाद को यह जिम्मेदारी दी गयी जिसमें शामिल था गाडी के साथ खड़े होकर लोगों को बाहर न निकलने के लिए सावधान कर देना और फिर रुपया मिलने के बाद जंगल जंगल होकर लखनऊ पहुँच जाना।
फिर 9 अगस्त 1925 का दिन आया, जब लूट को अंजाम देना था। जैसे ही गाडी काकोरी से लगभग दो मील दूर गयी। वैसे ही जंजीर खींच दी गयी। साथी मौजूद थे, और तभी गाड़ी के दोनों ओर हर दो मिनट में हवा में गोली चलने लगीं। और जनता में अफरातफरी न फैले इसके लिए यह संदेशा दिलाया गया कि लूटने वाले डाकू नहीं बल्कि क्रान्तिकारी हैं। यह संदेशा दिया गया कि वह लोगों को कुछ नहीं कहेंगे मगर वह बाहर न निकलें!
संदेशा पहुँचते ही अशफाक उल्ला खान और चंद्रशेखर आज़ाद ने खजाने के संदूक पर हमला करते हुए उसमें से लगभग दस हज़ार रूपए लूट लिए थे। और आननफानन में लखनऊ पहुंचे।
बिस्मिल ने यह ठीक ही कहा था कि यह डकैती अंग्रेजों के चेहरे पर एक बड़ा तमाचा होगी और आज़ाद तो जैसे यह तमाचा मारने के लिए तैयार ही बैठे थे। यह दुस्साहसी कृत्य चंद्रशेखर आज़ाद के लिए एक वरदान था। वह तो जैसे इसकी प्रतीक्षा में ही थे और इस योजना की सफलता का श्रेय बिस्मिल ने आज़ाद को दिया था।
“यह याद रखा जाए कि क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश राज के विरुद्ध भयंकर युद्ध छेड़ने की खतरनाक मंशा से हथियार खरीदने के लिये हम जो खजाना लूटने की योजना बना रहे हैं, वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अब तक का सबसे दुस्साहसी कारनामा होने जा रहा है, जिसके कारण अंग्रेज सरकार सकते में आ सकती है और उसके बाद जो होगा उसके लिए हमें तैयार रहना होगा! अंग्रेज शांत नहीं बैठेंगे और हमें दमन के लिए भी तैयार रहना होगा!”
चंद्रशेखर आज़ाद ने उनका हाथ पकड़कर कहा था “आप कल्पना करिए, अंग्रेजों के खजाने को लूट लेना वह भी चलती रेल से और वह भी उनकी नाक के नीचे से, पूरे विश्व में उनकी नाक कटाने के लिए पर्याप्त होगा और फिर वह यह सोचने के लिए मजबूर हो जाएंगे कि अब यहाँ पर टिकना मुमकिन नहीं होगा!”
आज़ाद को ध्यान है कि इस घटना के बाद किस तरह थू थू हुई थी, अंग्रेजी सरकार की! जैसे शिवाजी औरंगजेब की कैद से भाग गए थे, औरंगजेब की नाक के नीचे से, और सारे संसार में थू थू होने लगी थी और उसके नेतृत्व पर सवाल उठ खड़े हुए थे, वैसे ही जैसे ही अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैली वैसे ही उसकी थूथू होने लगी। उसकी खुफिया सूचना और सुरक्षा तंत्र पर प्रश्न उठने लगे थे। यह तो इस घटना से तय हो गया था कि यह कार्य करने वाले डाकू नहीं थे बल्कि वह पढ़े लिखे लोग थे और कुशल रणनीतिकार थे। सरकार को साधारण डाकुओं से डर नहीं था, मगर इन पढ़े लिखे डाकुओं से डर रही थी। और जैसा बिस्मिल और आज़ाद को अंदेशा था कि अंग्रेज सरकार इस घटना को गंभीरता से लेगी और इससे निबटने के लिए तत्कार कदम उठाएगी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और सी०आई०डी० इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।
जैसे ही यह पता चला कि यह कार्य पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन ने किया है वैसे ही अंग्रेजी सरकार ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल40 क्रान्तिकारियों पर सरकार के खिलाफ सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड की सजा सुनायी गयी। इस मुकदमें में 16 अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी का दण्ड दिया गया था।
चंद्रशेखर आज़ाद को बिस्मिल और अशफाकउल्ला खान की याद आते ही जैसे कुछ हो जाता! कैसे थे दोनों अद्भुत, दोनों की दोस्ती अद्भुत थी। और इस डकैती के बाद जैसे उनकी दोस्ती पर भगवान की और देश की मुहर लग गयी थी।
अंतत: 19 दिसंबर, 1927 को पं। रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गयी थी। आज़ाद को वह दिन याद आता है तो आज भी आंसू निकल पड़ते हैं। मगर उन्होंने खुद को सम्हाला। उन्हें याद था कि कैसे रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी माता को एक पत्र लिखकर देशवासियों के नाम संदेश भेजा और फांसी के तख्ते की ओर जाते हुए जोर से ‘भारत माता’ और ‘वंदेमातम्’ की जयकार करते रहे। चलते समय उन्होंने कहा –
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही रहे,
बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे
तेरा हो जिक्र या, तेरी ही जुस्तजू रहे।
फांसी के दरवाजे पर पहुंचकर बिस्मिल ने कहा, ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूं।’ और फिर फांसी के तख्ते पर खड़े होकर प्रार्थना और मंत्र का जाप करके वे फंदे पर झूल गए। गोरखपुर की जनता ने उनके शव को लेकर आदर के साथ शहर में घुमाया। उनकी अर्थी पर इत्र और फूल बरसाए।
अशफाक उल्ला खान की कहानी भी उनकी आँखों में आंसू ला देती थी। मगर आज़ाद ने गहरी सांस ली।
साइमन कमीशन
जैसे जैसे वह इलाहाबाद की तरफ बढ़ रहे थे उनकी आँखों के सामने और भी कहानी आती जा रही थी। उन्हें याद आ रहा था कि कैसे 1927 के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच विवाद हो रहा था। वहीं उसी समय अंग्रेजों के दिमाग में कुछ और योजना चल रही थी। वह भारत को लगातार गुलाम बनाए रखने के लिए सतत प्रयासशील थी। भारत में अजीब हालात थे, एक तरफ हिन्दू और मुसलमान के बीच संघर्ष बढ़ रहा था मगर वह अंग्रेजों से भी मुक्ति पाना चाहती थी। अंग्रेजों ने हिन्दू और मुसलामानों के बीच और फूट डालने के लिए एक कमीशन भेजा! वह था साइमन कमीशन!
हुआ यह था कि वर्ष 1927 में वाइसराय लार्ड इरविन ने महात्मा गांधी को दिल्ली बुलाकर यह सूचना दी कि भारत में वैधानिक सुधार लाने के लिए एक रिपोर्ट तैयार की जा रही है जिसके लिए अंग्रेजी सरकार ने एक आयोग बनाया है और जिसके अध्यक्ष जॉन साइमन होंगे। इस कमीशन की सबसे ख़ास और विरोधी बात यह थी कि इसमें सभी लोग अंग्रेज थे।
यहीं से जनता का आक्रोश एक बार फिर से फूट पड़ा। जब उनका आक्रोश फूटा तो इसने हिन्दू और मुसलामानों दोनों को एक कर दिया। गांधी जी सहित अधिकतर नेताओं ने इसे भारतीय जनता का अपमान माना। आज़ाद को यह भी ज्ञात था कि गांधी जी सहित सभी भारतीय नेताओं का यह अनुभव था कि इस तरह के कमीशन स्वतंत्रता की मांग को टालने के लिए बनाये जाते रहे हैं। लगभग सभी भारतीय नेताओं का इस विषय में यही मत था कि यह कमीशन भारतीयों की आँखों में धूल झोकने का एक तरीका है और जले पर नमक छिड़कने का प्रयास है।
मगर फिर भी चारों तरफ से साइमन कमीशन का विरोध होते देख कर भी सरकार अड़ी रही और 3 फरबरी 1928 को साइमन कमीशन/Simon Commission बम्बई के बंदरगाह पर उतर गया। उस दिन देश भर में हड़ताल मनाई गयी और साइमन गो बैक (Simon Go Back) के नारे हर जगह लगाये जाने लगे।
आज़ाद और बाकी सभी सदस्यों का यह मानना था कि यदि भारत के क्रांतिकारी किसी तरह से लार्ड साइमन को मारने में सफल हुए तो भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों की सहानुभूति उनकी पार्टी को मिल जाएगी और इस बारे में सभी ने खूब चर्चा की।
आज़ाद ही यह जानते थे कि उन्होंने कितनी कोशिश की थी लार्ड साइमन को मारने की मगर शायद आयु अभी आई नहीं थी और उनके दल द्वारा किया गया हर प्रयास निष्फल होता गया। जैसे ही एक प्रयास निष्फल होता वह दूसरे प्रयास में लग जाते, मगर कोशिश तो करते। इधर दिन बीतते जा रहे थे और लार्ड साइमन अपने उद्देश्य में सफल होते दिख रहा था।
मगर समस्या एक और भी थी, आज़ाद को याद है कि कैसे काकोरी काण्ड के दिन भी अधिक नहीं बीते थे और उनके दल के लोग निशाने पर थे भी। फिर भी आज़ाद को याद है कि जब भी उन्होंने किसी भी साथी को काम दिया, उन्होंने किया। कभी निराश नहीं किया।
मगर साइमन आगे ही बढ़ता जा रहा था और फिर वह दिन आया जिस दिन कोई अनहोनी होने वाली थी
यह कमीशन जब लाहौर पहुंचा तो वहां की जनता ने लाला लाजपत राय के नेतृत्व में काले झंडे दिखाए और साइमन कमीशन वापस जाओ के नारों से आकाश गूंजा दिया।
पुलिस आपे से बाहर हुई और उसने वहां पर उपस्थित लोगों पर लाठियों की बरसात कर दी। सांडर्स ने समूह पर लाठी चलाई और लाला जी पर तीन लाठियां मारीं। लाला जी को भीषण चोटें आईं और उन्होंने कहा “मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।“ 17 नवंबर 1928 को इन्हीं चोटों की वजह से इनका देहान्त हो गया।
इस खबर ने चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और उनके मित्र क्रांतिकारियों को गुस्से से पागल कर दिया। आज़ाद यह समझ सकते थे कि लाला लाजपत राय को शारीरिक चोटों से अधिक मानसिक चोटें आईं होंगी। लालाजी शायद यह सहन नहीं कर पाए होंगे कि एक राष्ट्रीय स्तर के नेता को भी यह लोग ऐसे मरवा सकते हैं।
आज़ाद को याद है कि इसके कारण उनके दल में सभी एक मत थे कि इसका तो बदला लिया ही जाना चाहिए, यह खाली नहीं जाएगा। पूरे भारत में क्रोध की लहर दौड़ गयी थी।
“अब केवल खून का बदला खून! यह बलिदान बेकार नहीं जाएगा पंडित जी!” भगत सिंह ने कहा
आज़ाद को उस दिन अपनी आँखों में खून उतरता हुआ नज़र आया। समय आ गया था कि अंग्रेजों को उनकी औकात याद दिलाई जाए। उन्हें यह याद दिलाया जाए कि वह केवल सरकार चला रहे हैं और बाकी कुछ नहीं! आज़ाद की आँखों के खून और भगत सिंह की आंखों के जूनून ने यह तय कर लिया कि राष्ट्र के इस अपमान का बदला तो लिया ही जाएगा और अब केवल “खून के बदले खून” के सिद्धांत से ही बात बनेगी। तो हुआ यह कि 10 दिसम्बर 1928 की रात को निर्णायक फैसले हुए। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, जय गोपाल, दुर्गा भाभी आदि एकत्रित हुए।
“मैं उसे मारूंगा!” भगत सिंह ने कहा
पंडित जी को भगत पर यकीन था कि वह यह काम करेगा और उन्होंने अपनी आँखों का खून उसकी आखों में उतार कर कहा “वह बचना नहीं चाहिए” और फिर खुद के साथ राजगुरु, सुखदेव और जयगोपाल सहित भगत सिंह को यह काम सौंपा गया।
१७ दिसम्बर १९२८ को चारों साथी स्कौट ऑफिस के बाहर पहुंचे। साइकिलें होस्टल के अहाते के भीतर रखीं और बाहर वह लोग इंतज़ार करने लगे। को उप-अधीक्षक सांडर्स दफ्तर से बाहर निकला। उसे ही स्कॉट समझकर राजगुरु ने उस पर गोली चलाई, भगत सिंह ने भी उसके सिर पर गोलियां मारीं। अंग्रेज सत्ता कांप उठी। जैसे ही यह खबर फ़ैली कि लाला लाजपत राय की ह्त्या का बदला लिया गया है वैसे ही जनता के मन में थोड़ा रोष ठंडा हुआ।
आज़ाद को याद है कि उन्होंने अगले ही दिन एक इश्तिहार भी बाँट दिया था और उसे लाहौर की दीवारों पर चिपका दिया गया। लिखा था- हिन्दुस्थान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने लाला लाजपत राय की हत्या का प्रतिशोध ले लिया है और फिर योजना के अनुसार साहिब” बने भगत सिंह गोद में बच्चा उठाए वीरांगना दुर्गा भाभी के साथ कोलकाता मेल में जा बैठे। राजगुरु नौकरों के डिब्बे में तथा साधु बने आजाद किसी अन्य डिब्बे में जा बैठे। स्वतंत्रता संग्राम के नायक नया इतिहास बनाने आगे निकल गए।
आगे के कदम
अब आगे के कदम उठाने थे, अब ऐसा कदम उठाना था जिससे यह सत्ता धमाका सुन सके!
कलकत्ते में जब भगत सिंह बाकी और क्रांतिकारियों से मिले तो बम फेंकने की योजना बनाई गयी।
आज़ाद को याद है कि वह भगत सिंह से कहा करते थे कि सत्ता के बहरे कानों में धमाका करना ही चाहिए और यह जरूरी भी है।
“कैसा धमाका पंडित जी!” भगत पूछते और आज़ाद मुस्कराने लगते।
“मौक़ा शीघ्र ही मिलेगा” आज़ाद कहते
समय आ रहा था।
सेन्ट्रल असेंबली में दो बिल पेश होने वाले थे- “जन सुरक्षा बिल” और “औद्योगिक विवाद बिल” जिनका उद्देश्य देश में उठते युवक आंदोलन को कुचलना और मजदूरों को हड़ताल के अधिकार से वंचित रखना था।
पंडित चंद्रशेखर आज़ाद बिलकुल भी इस पक्ष में नहीं थे कि यह बिल पारित हों।
“यह बिल पारित नहीं होने चाहिए!” आज़ाद की आँखों में फिर से खून उतर आया!
“यह बहुत ही घातक बिल है! भारत के लिए यह दोनों ही बिल घातक हैं”
आज़ाद जानते थे कि यह दोनों ही बिल भारत की आत्मा पर प्रहार करेंगे और उनपर अत्याचार की एक और कड़ी साबित होंगे। अब यह तय था कि इस सरकार के खिलाफ निर्णायक कदम उठाने की घड़ी थी, मगर कौन करेगा!
आज़ाद और भगतसिंह दोनों के ही नेतृत्व में दल की बैठक हुई थी और फिर दोनों ने ही फैसला लिया कि 8 अप्रैल १९२९ को जिस समय वायसराय असेंबली में इन दोनों प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करें, तभी बम धमाका किया जाए। इसके लिए श्री बटुकेश्वर दत्त और विजय कुमार सिन्हा को चुना गया, किन्तु बाद में भगत सिंह ने यह कार्य दत्त के साथ स्वयं ही करने का निर्णय लिया।
ठीक उसी समय जब वायसराय जनविरोधी, भारत विरोधी प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करने के लिए उठे, दत्त और भगत सिंह भी खड़े हो गए। पहला बम भगत सिंह ने और दूसरा दत्त ने फेंका और “इंकलाब जिंदाबाद” का नारा लगाया। एकदम खलबली मच गई, जॉर्ज शुस्टर अपनी मेज के नीचे छिप गया। सार्जेन्ट टेरी इतना भयभीत था कि वह इन दोनों को गिरफ्तार नहीं कर पाया। दत्त और भगत सिंह आसानी से भाग सकते थे, लेकिन वे स्वेच्छा से बंदी बने। उन्हें दिल्ली जेल में रखा गया और वहीं मुकदमा भी चला।
“यह तय ही था कि वह लोग टिके रहेंगे,” आज़ाद ने खुद से जैसे बात करते हुए कहा
जल्द ही वह इलाहाबाद की धरती पर पहुँच गए थे। और अतीत से बाहर आए। असेम्बली में बम धमाके के बाद आज़ाद को याद था कि वह फिर से संगठन खड़ा करने में लग गए थे। लोगों को अपने साथ जोड़ने लगे थे। आज़ाद की मेहनत गांधी जी, और जवाहर लाल नेहरू के साथ साथ कांग्रेस के नेतृत्व तक पहुँच चुकी थी।
“इलाहाबाद आ गए हैं पंडित जी! नेहरू जी से कब मिलेंगे?” उनके साथी ने पूछा
“एक और बात कहें पंडित जी, अपनी योजना किसी को नहीं बताइयेगा, आप वैसे तो भेष बदल कर रहे हैं मगर अंग्रेज आपके पीछे हैं और कौन साथी कब बदल जाए, पता नहीं!”
“ठीक है!” कहकर आज़ाद जवाहर लाल नेहरू से मिलने चलने गए।
“पंडित जी, मैं वादा नहीं कर सकता, परन्तु मैं प्रयास करूंगा!” जवाहर लाल नेहरू से आश्वासन पाकर वह लौट आए थे।
आज़ाद को लग रहा था जैसे वह युद्ध में अकेले पड़ गए हैं। उनके साथियों को फांसी की तारीख नज़दीक आ रही थी। क्या होगा?
इन्हीं सब सोच विचार में लगे रहते थे। मार्च का इन्तजार कर रहे थे, चमत्कार का इन्तजार कर रहे थे।
इन्हीं सब सोच विचार में 27 फरवरी का दिन आया। पंडित चन्द्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि 30 गज की दूरी पर अंदर वाली सड़क पर एक कार आकर ठहरी। आज़ाद समझ गए थे कि किसी साथी के विश्वासघात का शिकार वह हो गए हैं। धरती को देखते हुए बोले
“माँ, इतनी ही सेवा लिखी थी क्या?” और फिर उन्होंने देखा कि गाडी में से दो अंग्रेज और चार भारतीय सिपाही नीचे उतरे। तीनों भारतीयों के हाथों में बंदूकें थीं।
ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनके पास पक्की सूचना है कि आज़ाद यहीं पर हैं।
यह क्षण पंडित जी के लिए जैसे व्यथा लेकर आए थे। व्यथा यह नहीं कि वह मरने जा रहे थे। व्यथा यह कि वह माँ की इतनी ही सेवा कर पा रहे थे। अल्फ्रेड पार्क में चारों तरफ से वह घिर गए थे और उन्होंने अपने दोस्त सुखदेव राज से कहा “शिकारी आ गए हैं।”
“तुम जाओ” और सुखदेव राज को विदा कर दिया। उन्होंने देखा कि अंग्रेज उनकी तरफ बढ़ रहा है और उसका दायाँ हाथ उसकी जेब में है। अब पंडित जी को कोई संदेह नहीं था।
“माँ, जितना मौका दिया, सेवा की, फिर बुलाना” कहकर अपने पास पड़े कोट को देखा, जिसमें 32 बोर का पिस्तौल था। उतनी ही देर में नाटबाबर उनसे दस गज की दूरी पर आ गया था और उसने “तुम कौन हो” कहने के साथ ही उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना अपनी गोली आज़ाद पर छोड़ दी।
नाटबाबर की गोली चन्द्रशेखर आज़ाद की जाँघ में जा लगी। आज़ाद ने घिसटकर एक जामुन के वृक्ष की ओट लेकर अपनी गोली दूसरे वृक्ष की ओट में छिपे हुए नाटबाबर के ऊपर दाग़ दी। आज़ाद का निशाना सही लगा और उनकी गोली ने नाटबाबर की कलाई तोड़ दी। एक घनी झाड़ी के पीछे सी।आई।डी। इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह छिपा हुआ था, उसने स्वयं को सुरक्षित समझकर आज़ाद को एक गाली दे दी। गाली को सुनकर आज़ाद को क्रोध आया। जिस दिशा से गाली की आवाज़ आई थी, उस दिशा में आज़ाद ने अपनी गोली छोड़ दी। निशाना इतना सही लगा कि आज़ाद की गोली ने विश्वेश्वरसिंह का जबड़ा तोड़ दिया।
वह निशाना लगाते जा रहे थे, मगर उनके पास कारतूस की कमी हो रही थी। जब उन्होंने देखा कि उनके पास एक ही कारतूस बचा है, तो उनकी आँखों के सामने अपनी प्रतिज्ञा आ गयी जिसमे उन्होंने कहा था कि वह आजीवन आज़ाद रहेंगे।
प्रतिज्ञा के टूटने और बचे रहने में एक कारतूस भर की दूरी थी और उन्होंने कहा “पंडित का धर्म है अपने राष्ट्र पर सर्वस्व न्योछावर कर देना, माँ शरण दो और पुनर्जन्म में यहीं भेजना”
कहते हुए अपनी सधे हाथों से अपनी कनपटी पर गोली चला ली!
पंडित जी के अंतिम शब्द आज़ादी की प्रतिज्ञा थे!
*नंदकिशोर निगम द्वारा लिखी गयी आदरणीय चंद्रशेखर आजाद की जीवनी “बलिदान” के आधार पर