इन दिनों छोटी छोटी बच्चियां भी फेमिनिज्म की देहरी पर खडी दिखाई देती हैं। यद्यपि परिवार का जो खांचा है, वह कहीं न कहीं इस असंतोष को थाम लेता है, परन्तु जहाँ पर परिवार का विकल्प नहीं है, वहां पर छोटी बच्चियां भी फेमिनिज्म के जाल में फंस जा रही हैं, और इनमें बहुत बड़ी भूमिका है एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों की।
एनसीईआरटी की कक्षा 7 की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में इकाई तीन में अध्याय चार और पांच में वह अवधारणाएं प्रस्तुत की गयी हैं, जो बच्चियों के मस्तिष्क को तो भ्रमित करती ही हैं, छात्रों के हृदय में पुरुष होने के प्रति आत्महीनता या कहें आत्मनिंदा की भावना का विकास करती हैं। उनके भीतर इस भाव का विकास यह दो अध्याय करते हैं कि पुरुष होने का अर्थ स्त्रियों पर अत्याचार करना है। समाज के प्रति भी घृणा भरी गयी है।
जैसे इसमें मध्यप्रदेश के एक स्कूल का उदाहरण देते हुए लिखा गया है कि लड़के और लड़कियों के स्कूल अलग ढंग से बनाए जाते थे। उनके स्कूल के बीच एक आंगन होता था, जहाँ पर वह स्कूल की सुरक्षा में खेलती थीं, जबकि लड़कों के स्कूल में ऐसा आँगन नहीं था।”
ऐसा कहकर पुस्तक में क्या कहने का प्रयास किया गया है, समझ नहीं आता। परन्तु क्या यह बात सही नहीं है कि लड़कियों की सुरक्षा करना स्कूल का कार्य है? यदि वह स्कूल के भीतर खेलती हैं तो समस्या क्या है?
परन्तु इस अध्याय के माध्यम से जैसे बच्चियों के कोमल मस्तिष्क में यह बात बैठाने का प्रयास किया गया है कि स्कूल के भीतर सुरक्षा कोई ठीक बात नहीं हैं। इसी अनुच्छेद की अंतिम पंक्ति कहती है कि “जो सड़क लड़कों के लिए खेल या यूंही खड़े होने के लिए थी तो वहीं लड़कियों के लिए गली सीधे घर पहुँचने का माध्यम थी!”
इस पंक्ति से भी क्या समझाया जा रहा है, पता नहीं चलता! क्यों लड़कियों के मन में बालपन से यह भरा जा रहा है कि घर बुरा है और सड़क भली है? क्या इसी आयु से ही उन्हें उपलब्ध होने की तकनीक सिखाई जा रही है?
फिर इसमें जो सबसे घातक लिखा है वह यह कि “समाज लड़के और लड़कियों में स्पष्ट अंतर करता है। यह बहुत कम आयु से ही शुरू हो जाता है। उदाहरण के लिए उन्हें खेलने के लिए भिन्न खिलौने दिए जाते हैं, लड़कों को कारें दी जाती हैं, और लड़कियों को गुडिया!”
यह भारतीय समाज के प्रति विष घोलने के लिए और परिवार के समस्त सदस्यों को कठघरे में खड़ा करने वाली पंक्ति है। यह बात इसलिए लिखी गई है क्योंकि जिन्होनें यह पाठ लिखा होगा, उन्हें स्त्रियोचित एवं पुरुषोचित प्रवृत्ति या तो पता नहीं होगी या फिर भारत की स्त्रियों का इतिहास ही नहीं पता होगा। भारत में ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, जिनमें स्त्रियों को युद्ध आदि में भाग लेते हुए दिखाया गया है। यहाँ तक कि यशोदा देवी जो वैद्य थीं, उन्हें भी उनके पिता ने ही वैद्य होने की शिक्षा दी थी। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के युद्ध कौशल का तो कोई उत्तर ही नहीं था। कैकई से लेकर दुर्गावती तक योद्धा महिलाओं के उदाहरण हैं। वेदों में स्त्रियों की शिक्षा के उदाहरण हैं, फिर न जाने क्यों भारतीय या कहें हिन्दू समाज के प्रति इतना विष घोला गया है। यह भी बात सत्य है कि स्त्रियों की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है एवं हिन्दू धर्म में स्त्रियों को जो स्थान प्राप्त है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
फिर उन्होंने एक कहानी के माध्यम से घरेलू कार्य को महत्वपूर्ण एवं पति के कार्य को निकृष्ट बताने का प्रयास किया है।
इतना ही नहीं अगले अध्याय का तो शीर्षक ही अत्यंत आपत्तिजनक है। उसमे लिखा गया है “औरतों ने बदली दुनिया!”
हम सभी जानते हैं कि “औरत” शब्द का मूल क्या है और इसका वास्तविक अर्थ क्या है? रेख्ता के अनुसार इसका अर्थ होता है गुप्तांग, अर्थात वह हर चीज जिसे देखने से लज्जा आए!
अर्थात उसे ढककर रखा जाना होता है।
इतना ही नहीं इसमें आगे लिखा गया है कि “आज हमारे लिए कल्पना करना भी कठिन है कि कुछ बच्चों के लिए स्कूल जाना और पढ़ना “पहुँच के बाहर” की बात या अनुचित बात भी मानी जा सकती है, परन्तु अतीत में लिखना और पढ़ना कुछ लोग ही जानते थे। अधिकाँश बच्चे वही काम सीखते थे जो उनके परिवार में होता था या उनके बुजुर्ग करते थे। लड़कियों की स्थिति और भी खराब थी। लड़कियों को अक्षर तक सीखने की अनुमति नहीं थी।”
यह किस शिक्षा की बात बच्चों के कोमल मस्तिष्क में डाली गयी है, नहीं पता। जबकि वास्तविकता इससे विपरीत थी।
जो कार्य परिवार में किया जाता था, उसमें शताब्दियों का कौशल एवं अनुसन्धान निहित होता था, जिसके कारण भारत का व्यापार, भारत का चिकित्सा विज्ञान और धातु विज्ञान यूरोप से कहीं बेहतर स्थिति में था। भारत का स्वधर्म पुस्तक में धर्मपाल विस्तार से बताते हैं कि भारत में शिक्षा व्यवस्था लागू करने से पहले अंग्रेजों ने हर गाँव का सर्वे कराया था और एडम ने अपने 1835 एवं 1838 की सर्वे रिपोर्ट में बंगाल और बिहार के विषय में लिखा था कि वहां पर लगभग एक लाख के करीब विद्यालय थे, जिनमें गरीब से गरीब और अमीर से अमीर विद्यार्थी अध्ययन किया करते थे।
एडम का कहना था कि इन स्कूलों में अंकगणित से लेकर खेत की नाप जोख, खेती और वाणिज्य संबंधी लेखा जोखा सिखाया जाता है और साथ हे कवितायेँ और आख्यान लिखना सिखाया जाता है, परन्तु रिलीजियस शिक्षा नहीं दी जाती है।”
बच्चों के कोमल मस्तिष्क में जिस कौशल के विरुद्ध विष भरा जा रहा है, वही दरअसल हिन्दू भारत की सबसे बड़ी शक्ति थी। क्योंकि जो शोध कौशलों में एक व्यक्ति करता था, उसे उनकी नई पीढ़ी आगे बढ़ाती थी। परन्तु हमारे बच्चों के मस्तिष्क में पूरे सुनियोजित तरीके से वह विष भरा गया है, जिसे सहज निकालना संभव नहीं है। बच्चे कब तक धर्मपाल आदि के विस्तृत शोध से वंचित रहकर आत्महीनता के सागर में डूबकर बड़े होते रहेंगे, यह भी नहीं पता!
कब तक फेमिनिज्म का यह विष उन्हें बचपन से ही पुरुषों और समाज से दूर करता रहेगा, पता नहीं और कब तक इस आधिकारिक रूप से पढाए जा रहे फेमिनिज्म के चलते वह अपने ही भाइयों और पिता को शत्रु मानती रहेंगी, नहीं पता!