हाल ही में हमने तमिलनाडु में लावण्या की मृत्यु को देखा है और यह भी देखा कि उसने इस कारण से आत्महत्या कर ली थी क्योंकि उसे बार बार ईसाई धर्म अपनाने के लिए बाध्य किया जाता था। परन्तु उसके पीछे और क्या कारण हो सकता है? ऐसा क्या कारण है कि शिक्षा का अर्थ हिन्दू धर्म से विमुख होना हो गया है? आखिर ऐसा क्या कारण है जिसके कारण मिशनरी स्कूल या कथित आधुनिक स्कूल यह अधिकार मान बैठते हैं कि अंग्रेजी का अर्थ ही है आधुनिकता? जबकि आधुनिकता का भाषा से कोई भी लेनादेना नहीं है।
इसकी जड़ों में थोड़ा पीछे चलते हैं। हम कई लेखों के माध्यम से आपको यह बार बार बताने का प्रयास कर रहे हैं कि कैसे अंग्रेजी शिक्षा का अर्थ ईसाइयत की ओर भारत को धकेलना था। भारत में जो कथित रूप से पुनर्जागरण का काल था, जब हिन्दू धर्म में कुरीतियों के खिलाफ कई आन्दोलन हो रहे थे, तो उसके मिशनरी पहलू क्या थे, यह सीएफ एंड्रूज़ ने अपनी पुस्तक द रेनेसां इन इंडिया, इट्स मिशनरी आस्पेक्ट में पूरी तरह से स्पष्ट करके लिखा है।
और जब 2 फरवरी 1835 को मैकाले ने भारतीयों की शिक्षा के विषय में जो मिनट्स प्रस्तुत किए, उससे कहीं पहले से ही भारत में हिन्दू धर्म को मिशनरी के चश्मे से देखे जाने की शुरुआत हो गई थी, जिसका उल्लेख इस पुस्तक में पूरी तरह से दिया है कि कैसे चरणबद्ध तरीके से हिन्दुओं की शिक्षा प्रणाली को नष्ट किया गया।
इसी में वह कहते हैं कि मैकाले ने जो भारतीय शिक्षा के विषय में जो मिनट्स प्रस्तुत किए हैं, वह इस दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे अब पश्चिम के रिलिजन और पश्चिम की सभ्यता का विस्तार हो सकेगा। वह कहते हैं कि जो काम सिकंदर तलवार के बल पर नहीं कर सका था, वह अब होने जा रहा था। मिशनरियों के मनोवैज्ञानिक एवं अकादमिक कार्यों पर आधारित यह पुस्तक यह भी बताती है कि पश्चिम की शिक्षा पाए हुए कुछ ऐसे भी विद्वान थे, जो संस्कृत भाषा की संपदा से बहुत प्रभावित थे और वह नहीं चाहते थे कि अंग्रेजी शिक्षा भारत में आए।
क्योंकि यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका था कि
“अंग्रेजी शिक्षा, जो इस सभ्यता को व्यक्त करती है, वह मात्र एक सेक्युलर चीज़ नहीं है बल्कि वह ईसाई रिलिजन में पगी हुई है। अंग्रेजी साहित्य, अंग्रेजी इतिहास और अर्थशास्त्र, अंग्रेजी दर्शन, सभी में जीवन की जरूरी ईसाई अवधारणाएं साथ चलती हैं, जो अब तक ईसाइयों ने बनाई हैं।”
जबकि संस्कृत में जो था वह हिन्दू धर्म का समृद्ध ज्ञान था।
यही कारण था कि मैकाले ने जब अपने मिनट्स प्रस्तुत किए तो उसमें कहा कि हमें ऐसी भाषा को माध्यम बनाना है जो देशज न हो। और ऐसी कौन सी भाषा हो सकती है, तो आधी कमिटी का कहना है कि यह अंग्रेजी होनी चाहिए, तो वहीं आधे लोगों का कहना है कि याह अरबी और संस्कृत हो सकती है।
फिर मैकाले ने कहा कि मुझे संस्कृत या अरबी की जानकारी नहीं है, और फिर कहा कि जितना इन भाषाओं में ज्ञान है, वह यूरोप की एक लाइब्रेरी की एक अलमारी में सिमट सकता है। और पश्चिम साहित्य की महत्ता को जब कमिटी स्वीकार कर चुकी है, तो अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए।
मैकाले का कहना था कि हमें लोगों को यह विश्वास दिलाना है कि वह अपनी भाषा के माध्यम से ज्ञान नहीं पा सकते हैं।
भारत में अंग्रेजी शासनकाल के दौरान भी गुरुकुल में बच्चे पढ़ रहे थे
धर्मपाल अपनी पुस्तक “द ब्यूटीफुल ट्री: इंडीजीनियस इन्डियन एडुकेशन इन द एटटीन सेंच्युरी” में भारत में मिशनरी के आने से पहले उन तमाम गुरुकुलों के विषय में बताते हैं, जिनके माध्यम से बालक और बालिकाओं दोनों को ही शिक्षा प्रदान की जा रही थी। इस पुस्तक की प्रस्तावना में धर्मपाल जी ने महात्मा गांधी के विचारों को व्यक्त करते हुए लिखा है, जो उन्होंने 20 अक्टूबर 1931 में कैथम हाउस लंदन में व्यक्त किए थे
“ब्रिटिश प्रशासन ने, भारत आने पर मूल चीज़ों को जड़ों से उखाड़ना आरम्भ कर दिया, उन्हें उनके मूल रूप में नहीं अपनाया। पहले उन्होंने मिट्टी को खोदा, और जड़ों की ओर देखना शुरू किया, एवं फिर जड़ों को ऐसे ही खुला छोड़ दिया। और फिर यह खूबसूरत पेड़ नष्ट हो गया!”
वास्तव में भारतीय या कहें हिन्दू शिक्षा का यह खूबसूरत वृक्ष नष्ट हो गया। क्योंकि उसे जड़ों से ही उखाड़ दिया गया। क्योंकि अंग्रेजी शिक्षा, जिसके मूल में जड़ में ईसाई विश्वास थे, ईसाई रिलिजन के मत थे, वह कैसे भारत आकर हिन्दू चेतना को देशज रूप से समृद्ध कर सकती थी?
मैकाले कहता है कि उसने अधिकतर संस्कृत ग्रन्थों के ट्रांसलेशन को पढ़ा है। यहाँ पर ट्रांसलेशन की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। दरअसल संस्कृत ऐसी भाषा है, जिसमें हर शब्द के कई अर्थ हैं। हिन्दू धर्म की अवधारणाएं हैं, वह कैसे दूसरी भाषा में जा सकती थीं, यह भी प्रश्न था।
क्योंकि एक ऐसी भाषा जिसमें स्वर्ग की अवधारणा अंग्रेजी की हेवेन की अवधारणा से भिन्न है, उसे हेवेन की अवधारणा समझने वाला क्या समझ पाएगा?
यदि मैकाले ने कहा कि उसने ट्रांसलेशन के माध्यम से हिन्दू धर्म के पाठ को समझ लिया है, तो यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि उसके भीतर केवल और केवल पश्चिम का अहंकार था।
फिर भी 2 फरवरी 1835 को प्रस्तुत किए गए इन मिनट्स ने पूरे भारत की शिक्षा पर जो प्रहार किया, वह आज तक अनवरत जारी है क्योंकि यदि अंग्रेजी को एक भाषा के रूप में स्वीकार किया जाता है तो वह सहज है, परन्तु अंग्रेजी को जब उद्धारक और उस अंग्रेजी के उद्गम रिलिजन को हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ मानकर कार्य किया जाता है, समस्या तब आती है और तभी “लावण्या” जैसे मामले होते हैं, क्योंकि तब अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य हिन्दू धर्म को जड़ से उखाड़ना हो जाता है, वह उस प्रकाश की राह ताकना हो जाता है, जो मात्र ईसाई रिलिजन से मिल सकता है।
जो इस मिशनरी शिक्षा का वह उद्देश्य था, जो सीएफ एंड्रूज़ अपनी पुस्तक में लिखते हैं, और मैकाले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा को ही माध्यम बनाने से संस्कृत भाषा का ज्ञान तो पिछड़ा घोषित कर ही दिया गया, बल्कि उसे संरक्षित करने के हर प्रयास को “ब्राह्मणवादी” कहकर नीचा दिखाया गया।
सीएफ एंड्रूज़, लिखते हैं कि “सीले के अनुसार ‘ वह लोग ब्राह्मणवादी थे और वह यह स्वीकार नहीं कर सकते थे कि पश्चिम से कुछ सीखा जा रहा है!”
फिर कहते हैं कि पश्चिमी सभ्यता के सम्बन्ध में सबसे बड़ा परिवर्तन मैकाले के साथ आया। जिसने यह स्थापित किया कि हम यहाँ पर सुधारने के लिए आए हैं।
मैकाले ने भारतीय विज्ञान, भारतीय इतिहास आदि की शिक्षा को अप्रमाणिक कर दिया, और अंग्रेजी माध्यम से पाई गयी शिक्षा को ही रोजगार या कहें नौकरी का माध्यम बना दिया।
सीएफ एंड्रूज़ लिखते हैं कि “मैकाले के मिनट” सभ्यता के संस्थान के रूप में हमारे साम्राज्य के इतिहास में एक मील का पत्थर माने जाते हैं। क्योंकि इसी ने यह बताया कि हम एशिया में वह कार्य करने के लिए तत्पर हो चुके हैं, जो रोम ने यूरोप में किया था।”
दुर्भाग्य नहीं है कि अंग्रेजों से कथित रूप से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी हम शिक्षा के मामले में उसी रेखा पर चल रहे हैं, जो मैकाले ने 2 फरवरी 1835 को निर्धारित कर दी थी। और यही कारण हैं कि अब तक लावण्या शिक्षा के चंगुल से अपने धर्म की रक्षा करने के लिए आत्महत्या कर रही हैं!