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Wednesday, May 8, 2024

25 मार्च 1931: जब गणेश शंकर विद्यार्थी, एक महान पत्रकार को दंगाइयों ने मजहबी आधार पर मार डाला था, मगर आज तक दंगाइयों की पहचान छिपाई जाती है

गांधीवादी गणेश शंकर विद्यार्थी, एक समाज सुधारक एवं विचारक। जिन्होनें जहाँ महाराणा प्रताप के विषय में लिखा, तो वही गांधी जी के विषय में भी। उन्होंने वर्ष 1913 में “प्रताप” नामक समाचार पत्र उन्होंने आरम्भ किया था। अंग्रेज सरकार के विरुद्ध वह समाचार लिखते थे। प्रताप का अर्थ ही था महाराणा प्रताप जैसा प्रखर। उन्होंने महाराणा प्रताप के विषय में जो लिखा था, उससे उनके विचारों का भान होता है। विद्यार्थी जी राष्ट्रवादी विचारों के पत्रकार थे और वह समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करना चाहते थे।

महाराणा प्रताप पर लिखे गए निबंध “कर्मवीर महाराणा प्रताप” में वह लिखते हैं कि “सारा संसार तुझे आदर की दृष्टि से देखेगा। संसार के किसी भी देश में तू होता, तो तेरी पूजा होती और तेरे नाम पर लोग अपने को न्योछावर करते। अमेरिका में होता तो वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन से तेरी कम पूजा न होती। इंग्लैण्ड में होता तो वेलिंग्टन और नेल्सन को तेरे सामने सिर झुकाना पड़ता। स्कॉटलैंड में बलस और रोबर्ट ब्रूस तेरे साथी होते।  फांस में जॉन ऑफ आर्क तेरे टक्कर की गिनी जातीं  और इटली तुझे मैजिनी के मुकाबले में रखती। लेकिन हा! हम भारतीय निर्बल आत्माओं के पास है ही क्या, जिससे हम तेरी पूजा करें और तेरे नाम की पवित्रता का अनुभव करें। एक भारतीय युवक आँखों में आंसू भरे हुए, अपने हृदय को दबाता हुआ लज्जा के साथ तेरी कीर्ति गा नहीं- रो नहीं, कह भर लेने के सिवा, और कर ही क्या सकता है?”

गणेश शंकर विद्यार्थी आरम्भ में लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे और उन्हीं के पद चिन्हों पर चला करते थे। परन्तु बाद में उन पर गांधी जी विचारों की छाया पड़ी और वह लोकमान्य के भक्त तो रहे ही, गांधी जी के अनुयायी हो गए। “प्रताप” के माध्यम से वह जनता की समस्याओं को उठाते रहे। इस कारण उनका कार्यक्षेत्र बढ़ने लगा।  बार बार वह जेल जाते, मगर बाहर आते ही फिर से काम पर लग जाते।

विद्यार्थी जी को कानपुर का गांधी कहा जाता था।

उनके अधिकतर निबंधों में समरसता की बातें होती थीं।  अन्याय का विरोध होता था। उन्होंने अमानवीय कुली प्रथा के विरोध में लिखा था, कि कैसे कुछ लोगों का भला करने के लिए औपनिवेशिक सरकार ने भारतीयों को पूरी दुनिया में कुली बनाकर भेज दिया था।  किस प्रकार से भारतीयों पर अत्याचार किए गए, उन्होंने सब कुछ लिखा। उस समय जातिगत आधार पर जो भी छुआछूत फ़ैली थी, उन्होंने उसका भी विरोध किया।

अपने निबंध चलिए गावों की ओर में उन्होंने बताया कि अब गाँवों की ओर ही लौटने का समय आ गया है। शहर में जितना होना था काम हो चुका, अब वापसी का समय है। गांधी जी से वह बहुत प्रभावित थे, तथा वह समाज में सभी सम्प्रदायों के बीच सौहार्द रहे, इसका भी प्रयास करते थे। परन्तु उनकी मृत्यु एक ऐसी घटना है जो प्रश्नचिन्ह लगाती है।

उनकी मृत्यु कानपुर में भड़के साम्प्रदायिक दंगों में हुई थी। हालांकि उन्हें साम्प्रदायिकता छू तक नहीं गयी थी। साम्प्रदायिकता वैसे भी हिन्दुओं का मूल चरित्र नहीं है। वह तो सदा ही सभी के कल्याण का ही स्वप्न देखता है, वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी आदि सभी को एक ही दृष्टि से देखते थे। यही कारण था कि उनका आदर भी था।

कानपुर में मार्च 1931 में भीषण साम्प्रदायिक दंगे फैले।  इन दंगों के भड़कने का कोई ऐसा कारण नहीं था। ऐसा नहीं था कि किसी हिन्दू ने किसी मुस्लिम को मारा हो, या कुछ गलत किया हो या फिर कुछ और! दरअसल 23 मार्च को जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गयी थी, तो लोगों के मन में गुस्सा था। कांग्रेस ने एक दिन की हड़ताल का आयोजन किया था। इसी क्रम में जब कानपुर में हड़ताल की तो उन्होंने मुस्लिम दुकानदारों से भी दुकान बंद करने का अनुरोध किया, जिसका विरोध मुस्लिम दुकानदारों ने किया।

इसके बाद झड़प आरम्भ हुई और देखते ही देखते इसने दंगों का रूप धारण कर लिया। देखते ही देखते पूरा शहर जल उठा। चौबीस मार्च से शुरू हुए दंगों में शहर में न ही कोई पुलिस दिखाई दे रही थी और न ही प्रशासन।

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विद्यार्थी जी इस समय में निकल पड़े और दंगाग्रस्त स्थानों पर जाने लगे। वह पूरे दिन मकानों और दुकानों को दंगों में जलने से बचाते रहे।

उन्हें लगा रात में शान्ति हो जाएगी, परन्तु 24 मार्च की रात में दंगे और उग्र हो गए और 25 मार्च की सुबह दंगे और भी भड़क गए। हर ओर से लोगों के मरने, घायल होने और मकानों-दुकानों को जलाने के समाचार सामने आने लगे। वह फिर निकले। उनकी पत्नी ने उनसे अनुरोध किया कि वह न जाएं। परन्तु विद्यार्थी जी ने एक भी न सुनी। उन्होंने कहा कि वह जरूर जाएंगे।

वह मुस्लिमों को सुरक्षित निकालते रहे। उन्होंने लगभग 150 मुसलमान स्त्री, पुरुष और बच्चों को बचाकर बाहर निकाला। न जाने कितने मुस्लिमों को उन्होंने अपने विश्वासपात्र हिन्दुओं के यहाँ टिकवाया।

वह खुद भी घायल होते रहे। इसी बीच उन्हें किसी ने कहा कि कुछ मुसलमानी मोहल्ले में कुछ हिन्दू परिवार फंसे हुए हैं। यह जानते हुए भी कि वह जहाँ जा रहे हैं, वहां पर मुस्लिम ही मुस्लिम हैं। वह चल पड़े। वहां पर फंसे हुए कई हिन्दुओं को उन्होंने सुरक्षित निकलवाकर बचाया। और फिर जब वह आगे बढ़े और वहां पर फंसे हुए और हिन्दुओं के विषय में पूछने लगे। इतने में ही मुसलमानों की भीड़ आ गई और उस भीड़ ने गणेश शंकर विद्यार्थी पर हमला बोल दिया।

विद्यार्थी जी के साथ एक मुस्लिम स्वयं सेवक भी था। उसने मुस्लिमों की भीड़ से कहा कि वह उन्हें क्यों मार रहे हैं, क्योंकि विद्यार्थी जी ने तो कई मुस्लिमों की जान बचाई है तो उस भीड़ ने जाने दिया। इसी बीच दूसरी भीड़ आई, और उसने किसी बात पर विश्वास नहीं किया। जब उन पर भीड़ आक्रमण करने लगी तो एक व्यक्ति ने उन्हें बचाने के लिए खींचा तो उन्होंने इंकार कर दिया और कहा कि अगर मेरे मारने से इन लोगों के दिल की प्यास बुझती है तो अच्छा है मैं यहीं अपना कर्तव्य पालन करते हुए आत्मसमर्पण कर दूं!

वह यह कह ही रहे थे कि मुसलमान उन पर टूट पड़े और लाठियां, छुरे, एवं न जाने कौन कौन से हथियार चले। एक हिन्दू स्वयंसेवक की मृत्यु हो गयी तो वहीं दूसरे की जान बच गयी। जो उनके साथ दूसरे स्वयंसेवक थे, जिनकी जान बच गयी थी, उन्हें जब होश आया तो उन्होंने कहा कि “आतताइयों के दिल में लेश मात्र भी दया का संचार न हुआ। मैं घायल पड़ा हुआ था। मुसलमान स्वयंसेवक पर मुसलमान होने के कारण थोड़ी ही मार पड़ी। पर विद्यार्थी जी के सिर पर लाठी पड़ी, खून निकलने लगा। मुझे चक्कर आ गया। मैं विद्यार्थी जी का नाम लेकर चिल्ला पड़ा। इस पर किसी ने पीछे से आवाज दी, “गणेश जी जहन्नुम में गए!” मेरे सिर पर फिर से लाठियां पड़ने लगीं। एक वृद्ध मुसलमान ने दया करके मुझे घसीटकर आपस की गली में डाल दिया और मैं बेहोश हो गया, होश आने पर स्वर्दार नारायण सिंह के मकान में पाया!”

नवयुग प्रकाशन से प्रकाशित गणेश शंकर विद्यार्थी की जीवनी – आत्मोत्सर्ग अध्याय

27 मार्च को उनकी निर्जीव देह मिली। जो फूल गयी थी, काली पड़ गयी थी। उनके कपड़ों और जेब में पड़े पत्रों से उनके शव की पहचान हुई।

 

गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु पर बार बार बातें होती हैं, उनके नाम पर तमाम सम्मान दिए जाते हैं, परन्तु जिस मानसिकता ने दंगे कराए, जिस मानसिकता ने उनकी जान ली, जिन लोगों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जी के बलिदान पर कुछ क्षणों के लिए दुकान बंद करने से इंकार कर दिया, जिस मानसिकता ने यह मानने से इंकार कर दिया कि गणेश जी ने उन्हीं के भाइयो के प्राण बचाए, और वह मानसिकता जो अपने भाइयों की जान बचाने वाले गणेश जी के जहन्नुम जाने की बात करती है, उस पर बात नहीं होती!

जब भी गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु की बात होती है तो यह कहा जाता है कि उन्होंने दोनों पक्षों में शांति के लिए जान दी, परन्तु उन्होंने क्यों जान दी थी? क्यों आत्मोत्सर्ग किया था, उसके वास्तविक कारणों पर बात नहीं होती है! यही अब तक बौद्धिक छल है!

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