फुटबाल के विश्वकप में अफ्रीकी देश मोरक्को का सफल प्रदर्शन कल समाप्त हो गया, जब फ्रांस के हाथों उसकी पराजय हुई और वह बाहर हो गया। वैसे तो किसी भी खेल में हार जीत लगी रहती है। परन्तु न ही यह हार साधारण थी और न ही यह जीत साधारण थी। मोरक्को के सेमीफाइनल में प्रवेश के साथ ही यह कहा जाने लगा था कि यह उम्मा की जीत है। इस जीत में जबरन मजहब को लाया गया। इस जीत को लेकर पकिस्तान तक के पूर्व प्रधानमंत्री उत्साह में आ गए थे थे उन्होंने इसे अरब, अफ्रीकी और मुस्लिम टीम बता दिया था।
इमरान खान दरअसल उसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पकिस्तान के अब्बा इकबाल की थी, जिसमें वह खुद को अरब का बताते हैं। वह लिखते हैं:
अजमी ख़ुम है तो क्या, मय तो हिजाज़ी है मेरी।
नग़मा हिन्दी है तो क्या, लय तो हिजाज़ी है मेरी।
इसके अर्थ को समझना होगा। अजमी अर्थात अरब का न रहने वाला, खुम: शराब रखने का घडा, मय: शराब, परन्तु यहाँ पर मय का अर्थ शराब तो है ही, परन्तु इसकी जो प्रकृति है वह अरबी है। और फिर है हिजाजी: इसका अर्थ है, हिजाज का निवासी, हिजाज सऊदी अरब का प्रांत है, हिजाजी का अर्थ है ईरानी संगीत में एक राग!
अब समझना होगा कि जब अल्लामा इकबाल मुसलमानों की तत्कालीन बुरी स्थिति की शिकायत खुदा से कर रहे थे तो अंत में उन्होंने मुस्लिमों की पहचान अरब से जोड़ दी है। उन्होंने लिखा है
कि
घड़ा अरबी नहीं है तो क्या हुआ मय तो अरबी है। यहाँ पर घड़े का अर्थ है भारतीय मुस्लिम! अल्लामा इकबाल ने कहा “मैं कहने के लिए देशी मुसलमान हूँ, मगर मैं मय अर्थात स्वभाव, प्रकृति, और अपनी जीवन पद्धति से तो अरबी हूँ!”
मैं नगमा जरूर हिंदी का हूँ, पर लय तो अरबी ही है! लय का अर्थ हम सभी जानते हैं, नगमे की आत्मा!
अल्लामा इकबाल ने भारतीय मुसलमानों की पहचान को वतन अर्थात भारत से कहीं दूर अरब से जोड़ दिया था और पकिस्तान के अब्बा कहलाते हैं। उसी सोच को आगे लेकर इमरान खान चल रहे हैं, जिसमें उन्होंने मोरक्को की टीम को अरब, अफ्रीका और मुस्लिम कह दिया है।
स्पेन पर मोरक्को की टीम की जीत के बाद से ही इसे इस्लाम की जीत बताकर प्रसारित किया जाने लगा था। ऐसे लग रहा था जैसे कोई युद्ध हो रहा था और उसमें इस्लाम जीत गया है। बिना यह सोचे कि यदि मुस्लिम बाहुल्य देश की जीत यदि इस्लाम की जीत बताई जा रही है, तो क्या उसकी हार को इस्लाम की हार कहा जाएगा? यूजर्स ने खालेद बेयदौं के इस ट्वीट का उत्तर देते हुए लिखा कि क्या फ्रांस की मोरक्को टीम पर जीत 2 बिलियन मुस्लिमों की हार है?
जाहिर है लोगों को बुरा लगेगा, क्योंकि कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अपने विश्वास, मत और धर्म के विरुद्ध कुछ नहीं सुन सकता है, परन्तु प्रश्न यह उठता है कि खेल की जीत में मजहब कौन लाया? किसने यह आरम्भ किया कि यह जीत दरअसल एक मुस्लिम टीम की जीत है। यह उम्मा की जीत है!
तनिक सी आलोचना पर या गैर मुस्लिम पक्ष रखने को ही इस्लामोफोबिया कहने वाले लोगों के लिए यह बहुत हृदयविदारक था कि फ्रांस और मोरक्को के मैच में मोरक्को की पराजय हुई। जब मोरक्को ने स्पेन को पराजित किया था तो भी उसके प्रशंसकों ने यूरोप के कई देशों में हिंसा और आगजनी की थी।
और फ्रांस की जीत से पहले तो विशेष पुलिस की व्यवस्था की गयी थी।
यहाँ तक कि मोरक्को के दो खिलाडियों तक ने अपने सेमीफाइनल मैच से पहले इस्लाम में शामिल होने की दावत थी
स्पेन पर अपनी टीम की जीत के बाद ज़कारिया अबुखाल एवं अब्देल्हामिद सबिरी ने एक लाइव टेलीकास्ट में भाग लिया था और अल्लाह का शुक्रगुजार होते हुए उन्होंने लोगों को इस्लाम में आने की दावत दी थी।
परन्तु अब जब फ्रांस ने मोरक्को को पराजित कर दिया है तो इसे किसकी हार माना जाए? खेल में मजहबी उन्माद को कौन लेकर आया?
यह तो थी स्पेन पर जीत के बाद की प्रतिक्रिया, मगर अब फ्रांस से पराजय होने के बाद भी दंगे हो रहे हैं। बेल्जियम में दंगे हो रहे हैं।
फ्रांस में सड़कों पर दंगे हो रहे है
दंगों और आगजनी के वीडियो सामने आ रहे हैं
वैसे ही इस बार का फीफा विश्वकप इस्लामी कट्टरता के साए में आयोजित होने के लिए याद किया जाएगा, परन्तु यह इसलिए भी याद रखा जाएगा कि कैसे एक खेल में मिली जीत को मजहबी उन्माद का माध्यम बनाया गया। जो लोग मोरक्को टीम का समर्थन कर रहे थे, वह उस क्षण ही अलग हो गए जिस क्षण इसे इस्लाम की जीत बता दिया गया और फिर लगातार दंगे!
यही खेल पिछले वर्ष भारतीय क्रिकेट टीम पर पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की जीत पर हुआ था?
जो आज यूरोप के कुछ देशों में हो रहा है, वैसी हिंसा का शिकार अर्थात मजहबी वर्चस्व की हिंसा का शिकार भारत न जाने कब से हो रहा है। जैसे मोरक्को की जीत को इस्लाम की जीत बताया गया था, वैसा ही पिछले वर्ष तब भी बताया गया था जब पाकिस्तान की क्रिकेट टीम ने भारत की क्रिकेट टीम को दस विकेट से पराजित कर दिया था
मैदान में नमाज पढने को महिमामंडित किया गया था, जैसा मोरक्को की टीम के मैदान में नमाज पढ़े जाने को महिमामंडित किया जा रहा है। पाकिस्तान की टीम ने जब भारत को हराया था तो पंजाब और श्रीनगर में कुछ छात्रों ने जश्न मनाया था।
मजहबी हिंसा का शिकार भारत भी रहा है और अधिक रहा है। कश्मीर से तो कश्मीरी पंडितों को भगा ही दिया गया था। मगर भारत में हो रही या हिन्दुओं के विरुद्ध हो रही इस मजहबी हिंसा पर पश्चिम का दृष्टिकोण सदा पक्षपाती रहा। भारत और हिन्दुओं की चिंता को और हिन्दुओं के साथ की गयी मजहबी हिंसा को इस्लामोफोबिया कहकर नकारने का प्रयास किया गया।
और इस्लामी कट्टरपंथी लोगों को यूरोप में शरणार्थी के नाम पर बसाया गया। अब जो हिंसा, दंगे भारत इतने वर्षों से झेल रहा था, वही वह देश झेल रहे हैं, जो भारत को और हिन्दुओं को असहिष्णु कहा करते थे।
भारत की क्रिकेट टीम पर पाकिस्तान की क्रिकेट टीम की विजय को जिस प्रकार मजहबी उन्माद में ढालकर माहौल बिगाड़ने के लिए प्रयोग किया गया, वही प्रयास मोरक्को की फुटबाल टीम की स्पेन पर जीत को मुस्लिम टीम की जीत एवं उम्मा की जीत बताकर किया गया।
अब फ्रांस के कई शहर जल रहे हैं, देखना होगा कि इस समस्या से ये देश कैसे पार पाते हैं, या फिर इन्हें भी इस्लामोफोबिक ठहराया जाएगा?
फिर भी यह विश्वकप एक बेहद लोकप्रिय खेल को मजहबी उन्माद का माध्यम बनाने के लिए अवश्य ही स्मरण किया जाएगा, इस हिंसा के बाद प्रश्न यही है कि क्या यह खेल में हार है या खेल की हार है?