आजकल हमारी न्यायपालिका बहुत सक्रिय हो गयी है, हर रोज किसी न किसी मुद्दे पर इनके अजीबो-गरीब निर्णय देखने को मिल रहे हैं। अभी तक तो हम न्यायपालिका द्वारा सरकारी कार्य और विधायिका के कई महत्वपूर्ण कार्यों में ‘न्यायिक अतिरेक’ के नाम पर अड़ंगा डालने का खेल देख रहे थे, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि अब कहीं न कहीं न्यायपालिका ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर भी हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है।
पिछले ही दिनों कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक हतप्रभ कर देने वाला निर्णय लेते हुए सलीम खान नाम के एक आरोपी को जमानत दे दी, जिस पर गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के अंतर्गत मामला दर्ज किया गया था। कर्णाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि मात्र जिहादी बैठकों में भाग लेना और प्रशिक्षण सामग्री खरीदना प्रथम दृष्टया आतंकवादी कृत्य के रूप में योग्य नहीं है। सलीम खान अल-हिंद नामक संगठन का एक कथित सदस्य है, जिसके कई आतंकवादी गतिविधियों में सम्मिलित होने की सूचना है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बी वीरप्पा और न्यायमूर्ति एस. रचैया की पीठ ने सलीम खान को जमानत देते हुए कहा, “केवल बैठकों में भाग लेना और अल-हिंद समूह का सदस्य बनना, जो कि यूएपीए अधिनियम की अनुसूची के अंतर्गत प्रतिबंधित संगठन नहीं है। और यूएपीए अधिनियम की धारा 2 (के) या धारा 2 (एम) के प्रावधानों के अंतर्गत जिहादी बैठकों में भाग लेना, प्रशिक्षण सामग्री खरीदना और सह-सदस्यों के लिए आश्रयों का आयोजन करना अपराध नहीं है।”
10 जनवरी 2020 को कर्नाटक के सुद्दागुंटेपल्या पुलिस स्टेशन में 17 आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 153A, 121A, 120B, 122, 123, 124A और 125 और UAPA कानून की धारा 13, 18 और 20 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी। सलीम खान इस मामले में मुख्य आरोपियों में से एक है। 29 दिसंबर 2020 को एक विशेष एनआईए अदालत ने सलीम खान और एक अन्य आरोपी मोहम्मद जैद की जमानत याचिका खारिज कर दी थी, तत्पश्चात आरोपी ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का निर्णय लिया था।
याचिकाकर्ता के वकील एस. बालकृष्णन ने कहा कि दोनों आरोपी अल-हिंद समूह के सदस्य हैं जो यूएपीए के अनुसार प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन नहीं है। वकील ने यह भी कहा कि आरोपी आईएसआईएस के सदस्य भी नहीं हैं। वकील ने इस बात पर जोर दिया कि अभियोजन पक्ष दोनों आरोपी के विरुद्ध कोई तथ्यात्मक सामग्री प्रस्तुत करने में विफल रहा है।
एस. बालकृष्णन ने तर्क दिया कि यूएपीए की धारा 18 के प्रावधानों को आकर्षित करने के लिए, किसी को आतंकवादी कृत्य करने के लिए उकसाने, सलाह देने, और निर्देशित करने के लिए कुछ तथ्यात्मक सामग्री होनी चाहिए। वर्तमान मामले में अभियोजन पक्ष आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ रिकॉर्ड पर कुछ भी साबित करने में विफल रहा है।
वहीं विशेष लोक अभियोजक पी प्रसन्ना कुमार ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि आरोप पत्र में साफ़ दर्शाया गया है कि आरोपी सलीम खान और मोहम्मद जैद ने इस मामले में मुख्य आरोपी महबूब पाशा के साथ कई साजिश की बैठकों में भाग लिया था और वे सीधे तौर पर आतंकवादी घटनाओ और अन्य अपराधों में संलग्न रहे हैं।
दोनों पक्षों के तर्क सुन कर पीठ ने फैसला सुनाया कि “धारा 18 ए आतंकवाद में प्रशिक्षण प्रदान करने से संबंधित है और धारा 20 आतंकवादी गिरोह या संगठन का सदस्य होने के लिए सजा से संबंधित है। वर्तमान मामले में, अभियोजन पक्ष ने आरोपी सलीम खान के खिलाफ एक आतंकवादी कृत्य में शामिल होने या किसी आतंकवादी गिरोह या संगठन का सदस्य होने या आतंकवाद को प्रशिक्षण देने के बारे में कोई भी सामग्री प्रस्तुत नहीं की है, जैसा कि आरोप पत्र की जांच में देखा जा सकता है।”
न्यायालय ने आगे कहा, “अल-हिंद समूह एक आतंकवादी संगठन नहीं है, जैसा कि यूएपीए अधिनियम की धारा 39 के अंतर्गत माना जाता है, जिससे अभियोजन पक्ष आरोपी सलीम खान के खिलाफ जमानत खारिज करने के मामले को प्रथम दृष्टया साबित करने में विफल रहा है। इसलिए निचली अदालत का आरोपी की जमानत अर्जी खारिज करना न्यायोचित नहीं है।”
न्यायालय का यह भी कहना था कि किसी भी प्रथम दृष्टया मामले के अभाव में संवैधानिक न्यायालय को आरोपी को जमानत देने से नहीं रोका जा सकता है। अदालत ने निर्देश दिया कि आरोपी सलीम खान को 2 लाख रुपये के मुचलके पर जमानत पर रिहा किया जाए।
न्यायालय ने सलीम खान के सहयोगी की जमानत याचिका रद्द की
वहीं दूसरी ओर, न्यायलय ने सलीम खान के सहयोगी मोहम्मद ज़ैद को जमानत देने से मना कर दिया। न्यायलय ने कहा, “वह आरोपी महबूब पाशा के साथ डार्क वेब के माध्यम से अज्ञात आईएसआईएस हैंडलर से संपर्क करने के लिए जुड़ा हुआ था । आईएसआईएस एक प्रतिबंधित संगठन है जैसा कि यूएपीएकी अनुसूची के अंतर्गत माना जाता है, इसलिए वह जमानत देने योग्य नहीं है”।
आप दोनों आदेश देखेंगे तो आप पाएंगे कि न्यायालय ने बड़ा ही हतप्रभ करने वाला दृष्टिकोण रखा है, न्यायालय के अनुसार अगर कोई आतंकवादी संगठन भारतीय सरकार या यूएपीए कानून के अंतर्गत ‘प्रतिबंधित संगठन’ के रूप में दर्ज नहीं है, तो उसके सदस्यों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही नहीं हो सकती।
यह बड़ा ही संवेदनशील मुद्दा है जो राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ है, और इसमें न्यायालय को अपराधी को छोड़ने से पहले उसके प्रभाव के बारे में सोचना चाहिए था। आरोपी चाहे स्वयं किसी जाने पहचाने आतंकवादी संगठन का सदस्य नहीं होगा, लेकिन उसके कार्यकलाप तो देखने चाहिए, आरोपी किस तरह से देश विरोधी साहित्य रख रहा था, आतंकवादियों की सहायता कर रहा था, और जिहादी संगठनो की बैठकों में भाग ले रहा था, क्या ये सब आपत्तिजनक नहीं लगा न्यायालय को?
आतंकवादी संगठन बड़े ही चालाक होते हैं, और ये अपने नाम बदलते रहते हैं। कल को ये अपराधी किसी अन्य नाम से संगठन बना कर कोई आतंकवादी गतिविधि करता है, तो उसके लिए कौन उत्तरदायी होगा? स्पष्ट है ऐसे में न्यायालय हाथ झाड़ लेंगे कि ये संगठन तो प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन की सूची में नहीं है। ऐसे में जनता भी सरकार या सुरक्षा ढाँचे को ही दोषी ठहरा देगी, और जनता के मन में अपनी सुरक्षा को लेकर कई तरह के द्वंद्व हो जाएंगे।
न्यायालय को ये सोचना पड़ेगा कि इस तरह के निर्णयों से अपराधियों का मनोबल ही बढ़ता है, क्योंकि उन्हें अब ज्ञात है कि न्यायालय की आँखों में किस तरह से धूल झोंकी जा सकती है। न्यायाधीशों को राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर अतिरिक्त सतर्कता रख कर ही निर्णय देने चाहिए, क्यूकी ऐसे विषयों पर किसी भी तरह की ढील से जान संसाधन की हानि होती है, और देश को भी पीड़ा होती है।