कांकेर जिले के आमाबेड़ा क्षेत्र के बड़े तेवड़ा गांव में घटी घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि जनजाति समाज की आस्था, परंपरा और संस्कृति पर लगातार हमला हो रहा है। शव दफनाने का विवाद अब केवल प्रशासनिक या कानून व्यवस्था का प्रश्न नहीं रहा। इस घटनाक्रम ने जनजातीय अस्मिता, ग्राम स्वशासन और पवित्र भूमि के अधिकारों पर सीधा आघात किया। गांव की सामूहिक सहमति को दरकिनार कर लिए गए फैसलों ने वर्षों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था को चुनौती दी और आक्रोश को भड़काया।
विवाद तब भड़का जब गांव के सरपंच रजमन सलाम के पिता चमरा राम के निधन के बाद उनका शव गांव की सीमा के भीतर दफनाया गया। सरपंच का परिवार कन्वर्जन कर चुका था। ग्रामीणों ने साफ कहा कि गांव में अंतिम संस्कार के लिए परंपरागत नियम तय हैं और हर धर्म के लिए अलग व्यवस्था मौजूद है। इसके बावजूद सरपंच ने अपने पद का प्रभाव दिखाया और ग्राम सभा की अनुमति के बिना दफन की प्रक्रिया पूरी कराई। इस कदम ने जनजाति समाज के धैर्य की कड़ी परीक्षा ली।

ग्रामीणों ने दो दिनों तक शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया और परंपरानुसार अंतिम संस्कार की मांग रखी। प्रशासन ने भारी सुरक्षा के बीच शव को कब्र से बाहर निकाला और कांकेर जिले से बाहर भेजा। इसके बाद भी तनाव नहीं थमा। गुस्साए लोगों ने सरपंच के घर में तोड़फोड़ की और गांव में बने अवैध चर्च में आग लग गई। ग्रामीणों का कहना है कि यह ढांचा पूजा स्थल नहीं, बल्कि कन्वर्जन का केंद्र बन चुका था। भीड़ दूसरे अवैध चर्च की ओर बढ़ी तो पुलिस ने लाठीचार्ज किया। इस दौरान कई ग्रामीण घायल हुए। प्रशासन ने धारा 144 लागू की, गांव को सील किया और बाहरी लोगों की आवाजाही पर रोक लगाई।
ग्रामीणों ने इस पूरे घटनाक्रम में एक और गंभीर आरोप लगाया। उनका कहना है कि सरपंच रजमन सलाम ने जनजातीय लोगों से टकराव के लिए भीम आर्मी के कार्यकर्ताओं को बुलाया। ग्रामीणों के अनुसार ईसाई मिशनरी समूहों के साथ मिलकर बाहरी लोगों ने जनजातीय ग्रामीणों पर हमला किया और माहौल को हिंसक बनाया। गांव वालों ने बताया कि बाहरी संगठनों की इस दखलअंदाजी ने शांति भंग की और तनाव को और गहरा किया।
यह स्थिति पहली बार सामने नहीं आई है। पिछले कुछ वर्षों में जनजाति समाज बार बार महसूस कर रहा है कि न केवल उसकी आस्था, परंपरा और संस्कृति पर हमला हो रहा है, बल्कि उन लोगों को भी निशाना बनाया जा रहा है जो इन परंपराओं की रक्षा करना चाहते हैं। नारायणपुर जिले के नयनपुर क्षेत्र का उदाहरण इस पीड़ा को और स्पष्ट करता है। 19 अगस्त 2024 को बेनूर थाना क्षेत्र के कोरेन्डा गांव में एक ईसाई महिला की मृत्यु के बाद जनजातीय ग्रामीणों ने स्पष्ट किया कि गांव की पवित्र भूमि पर दफन की अनुमति नहीं दी जाएगी। ग्रामीणों ने थाना प्रभारी को लिखित पत्र देकर बताया कि मृतिका का परिवार गांव की परंपराओं और देवी रीतियों को नहीं मानता, इसलिए अंतिम संस्कार गांव के बाहर होना चाहिए।

इस पत्र पर ग्रामीणों के हस्ताक्षर मौजूद हैं। इसके बावजूद ईसाई परिजन और मिशनरी समूह शव को अस्पताल के शवगृह में रखकर दबाव बनाने की कोशिश करते रहे। सूत्रों के अनुसार मिशनरी समूह हाईकोर्ट जाने की तैयारी में भी जुटा रहा। इससे पहले जगदलपुर और भटपाल जैसे क्षेत्रों में निजी जमीन के नाम पर जनजातीय देवस्थलों के पास शव दफन करने के प्रयास सामने आए। जांच में कई बार यह सामने आया कि जिस भूमि को निजी बताया गया, वह शासकीय थी। ग्रामीणों का कहना है कि शव दफनाने की जिद के पीछे जनजातीय और शासकीय भूमि पर कब्जा जमाने की मंशा छिपी है।
इन्हीं अनुभवों के आधार पर कांकेर के 14 गांवों ने पास्टर और पादरियों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया। ग्राम सभाओं ने पेसा अधिनियम 1996 के तहत यह निर्णय लिया और बोर्ड लगाकर स्पष्ट किया कि गांवों में मसीही धार्मिक आयोजन वर्जित रहेंगे। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने भी इन फैसलों को सही ठहराया और माना कि जबरन या प्रलोभन के जरिए कन्वर्जन रोकने के लिए उठाए गए कदम स्थानीय संस्कृति की रक्षा करते हैं।
इन घटनाओं के बीच एक सकारात्मक संकेत भी उभर रहा है। जनजातीय समाज अपनी संस्कृति, परंपरा और देवी देवताओं के रीति रिवाजों को लेकर जागरूक हो रहा है। बस्तर के कोने कोने तक यह चेतना फैलना जरूरी है, क्योंकि बाहरी ताकतें भीतर तक घुसपैठ कर चुकी हैं। जनजाति समाज आज यह सवाल उठा रहा है कि अगर उसकी आस्था और भूमि पर बार बार आघात होगा तो वह अपनी पहचान कैसे बचाए। यह आक्रोश चेतावनी देता है कि अब सब्र का बांध टूट रहा है और जनजातीय अधिकारों की रक्षा के लिए सख्त, निष्पक्ष और पारदर्शी कार्रवाई का समय आ गया है।
