पिछले दिनों एक ऐसे साहित्यकार की जयंती गुजरी, जिन्होनें अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य में भारतीय लोक या कहें हिन्दू लोक की अद्भुत रचना की। उन्होंने अपनी रचनाओं में उन नायकों को उकेरा, जिन्हें उकेरने में कथित प्रगतिशील साहित्य लजाता था। लजाता ही नहीं था, बल्कि उन महानायकों को लज्जित करता था।
जहां एक ओर कथित प्रगतिशील लेखन उन सभी नायकों को खलनायक या ऐसा चरित्र स्थापित करने में अपनी शक्ति लगाए था जो पिछड़े थे, कट्टर थे, हिंसक थे आदि आदि तो वहीं जयशंकर प्रसाद ने उन चरित्रों को नायक बनाया। उन्होंने मनु और श्रद्धा को लेकर कामायनी लिखी थी।
इसमें उन्होंने प्रथम मानव मनु के माध्यम से मानवीय संवेदना को इस प्रकार उकेरा था, जिसे सहज कोई भी नहीं उकेर सकता है। यही कारण है कि कामायनी महाकाव्य यूनेस्को के विश्वविरासत की सूची में सम्मिलित है।
जयशंकर प्रसाद की कामायनी को लेकर कई शोध हुए हैं। इस महाकाव्य पर बहुत कुछ लिखा गया है। इसे आधुनिक भारतीय एवं विश्व सभ्यता का सांस्कृतिक महाकाव्य कहा जाता है। इस महाकाव्य की समीक्षा लिखना भी उसी प्रकार की विद्वता एवं मेधा की मांग करता है, जैसी मेधा जयशंकर प्रसाद में थी। एक पुस्तक है जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम, जिसे लिखा है प्रोफ़ेसर करुणाशंकर उपाध्याय ने!
विश्वहिंदीजन पोर्टल पर इसकी समीक्षा करते हुए डॉ सुशीलकुमार पाण्डेय साहित्येंदु कामायनी के विषय में लिखते हैं कि कामायनी अपने जटिल अंतर्विधान एवं बहुस्तरीय गतिशील अर्थवत्ता के कारण अपने युग का ही नहीं, बल्कि युग-युगांतर का महाकाव्य है।
यह भी विडंबना ही है कि जिस रचनाकार का ग्रन्थ यूनेस्को में सम्मिलित किया जाता है, उनकी जयंती सोशल मीडिया पर भी चुपचाप निकल जाती है, उनकी रचनाओं पर बात नहीं होती है तो वहीं इकबाल जैसे रचनाकार, जो पाकिस्तान एक वैचारिक अब्बा हैं, वह रिकॉर्ड रूप में याद किए जाते हैं।
चूंकि जयशंकर प्रसाद ने अपनी भाषा में संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग किया था, अत: उन्हें ब्राह्मणवादी आदि भी कहा जाने लगा था। उन्हें ब्राह्मणवाद का पोषक कहा गया था, और जिस प्रकार से उनका विमर्श और उनकी रचनाओं का स्वर है, उन्हें उस प्रगतिशीलता में स्थान मिलना ही नहीं था, जहाँ पर संस्कृत को कट्टर हिन्दू या पिछड़े हिन्दू की भाषा माना जाता था।
यहाँ पर हम अपने पाठकों के लिए कामायनी की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत करते हैं, जिससे इस महाकाव्य के सौन्दर्य से वह भी अपने हृदय को आह्लाद से भर सकें:
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।
दूर दूर तक विस्तृत था हिम, स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से, टकराता फिरता पवमान।
तरूण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का, होता था सकरूण अवसान।
यह उस समय का वर्णन है जब मनु प्रलय में घिरे खड़े हैं
कामायनी को कई सर्गों में लिखा गया है। जैसे: चिंता, आशा, श्रद्धा, काम, वासना, लज्जा, कर्म, ईर्ष्या, इडा, स्वप्न, संघर्ष, निर्वेद, दर्शन, रहस्य आदि
श्रद्धा पढ़ें:
“तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?
वेदना का यह कैसा वेग?
आह!तुम कितने अधिक हताश,
बताओ यह कैसा उद्वेग?
हृदय में क्या है नहीं अधीर,
लालसा की निश्शेष?
कर रहा वंचित कहीं न त्याग,
तुम्हें,मन में धर सुंदर वेश।
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जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त,
हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य,
यही भूमा का मधुमय दान।
लज्जा सर्ग में वह पंक्तियाँ हैं, जो लगभग हर काव्यप्रेमी को स्मरण रहती है एवं वह स्त्री के प्रति जयशंकर प्रसाद की दृष्टि को भी बताती है
“क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।
जयशंकर प्रसाद की यह अद्भुत पंक्तियाँ देश प्रेम की अद्भुत पंक्तियाँ हैं
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाडवाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!
यह भी दुर्भाग्य है कि 30 जनवरी को एक ऐसे महान लेखक के जन्मदिवस को भुला दिया जाता है, और यह उससे भी बड़ा दुर्भाग्य है कि आज देश में कथित पिछड़ों की राजनीति के लिए उन कालजयी ग्रंथों पर कीचड़ उछाला जा रहा है, जिन्होनें हिन्दू चेतना को अक्षुष्ण रखा, जिन्होनें हिन्दू नायकों को महानायक बनाकर हिन्दुओं के मनोबल को बढ़ाया।
जो आज आदरणीय गोस्वामी तुलसीदास जी कृत श्रीरामचरित मानस के साथ हो रहा है, उसकी भूमिका तो उसी दिन बन गयी थी, जिस दिन से मिशनरी ने रामचरित मानस को हिन्दू धर्म का ऐसा ग्रन्थ कहा था जिसके अध्ययन के चलते हिन्दू ईसाई रिलिजन के चंगुल में नहीं आ पा रहे थे,
और फिर धीरे धीरे साहित्य के माध्यम से उन सभी लेखकों के विमर्श के स्वर को विवाद में लिया गया, जिन्होनें हिन्दू चेतना एवं नायकों की बात अपनी रचनाओं में की।
कथित प्रगतिशीलता के शिकार जयशंकर प्रसाद भी हुए हैं और अभी तक हो रहे हैं, क्योंकि हिमाद्रि तुंग श्रुंग के स्थान पर “हिन्दी हैं हम” गाया जाता है, और बुतों को गिरा कर क्रान्ति की जा रही है, ऐसे में जयशंकर प्रसाद का
‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’
कहीं नेपथ्य में चला गया है!