भारत में इस्लाम के आगमन के बाद जो खून खराबे का इतिहास है, उसे यदि तथ्यों के साथ या मुग़लों द्वारा या उनके समकालीन लेखकों द्वारा बताए गए विवरण के अनुसार ही बताने का प्रयास किया जाता है, तो इस्लामोफोबिया का शिकार कह दिया जाता है। ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के अनुसार फोबिया का अर्थ है किसी चीज़ या विचार से अत्यधिक या कुतार्किक भय! परन्तु क्या इस्लाम की कट्टरता से भय कुतार्किक कारणों से है? क्या वर्तमान में जो उनकी मानसिकता है, उसे जानने के लिए अतीत में झांकना इस्लामोफोबिया है?
क्या बाहर की पहचान से खुद को जोड़ने वालों के कथित श्रेष्ठता बोध को जानने का प्रयास करना इस्लामोफोबिया है? या फिर इस्लाम की कट्टरता को जानकर स्वयं को उस कट्टरता से बचाए रखना इस्लामोफोबिया है? शायद नहीं, फिर बार-बार हिन्दू लोक की रक्षा इस्लामी कट्टरता से करने को इस्लामोफोबिया क्यों कहा जाता है?
एक्स-मुस्लिम हैरिस सुल्तान अपनी पुस्तक द कर्स ऑफ गॉड, व्हाई आई लेफ्ट इस्लाम में लिखते हैं कि इस्लामोफोबिया की परिभाषा के अनुसार यह इस्लाम का अनावश्यक भय है। जिस दिन आप इस्लाम की आलोचना करते हैं, उसी दिन आपको अपने आप ही इस्लामोफोबी होने का लेबल लगा दिया जाता है। फिर वह लिखते हैं कि मेरे फेसबुक पेज के एडमिन एक महिला है, और जब किसी महिला को यह पता चलेगा कि इस्लाम में शौहर द्वारा बीवियों को पीटना जायज है, तो वह क्यों नहीं डरेगी!
फिर वह लिखते हैं कि मैं एक पाकिस्तानी एक्स-मुस्लिम हूँ, जो ऑस्ट्रेलिया में रह रहा है। मैं भी इस्लाम से डरता हूँ, क्योंकि यह उन लोगों के क़त्ल को जायज ठहराता है, जो इस्लाम छोड़ चुके होते हैं। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कहाँ पर हैं। फिर वह लिखते हैं कि साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में वर्ष 2018 में हिज्ब उल ताहिर के प्रवक्ता उथमान बदर ने कहा था कि इस्लामिक शिक्षाओं के अनुसार मेरे जैसे मजहब छोड़ने वालों को मार डाला जाना चाहिए; उनका कोई भी फॉलोअर मुझे कभी भी मार सकता है, अब मुझे इस्लाम से डर लग रहा है, क्या यह तार्किक है या अतार्किक?
एक पुस्तक है “व्हाई वी लेफ्ट रिलिजन”। इसमें कई ऐसे लोगों के अनुभव हैं जिन्होनें अपने अपने धर्म छोड़कर नास्तिक होना चुना। इसमें सभी धर्म छोड़ने वाले नास्तिकों के अनुभव सम्मिलित किए गए हैं। हिन्दू धर्म छोड़ने वालों के अनुभवों में ऐसा कुछ डर व्यक्त नहीं किया है कि उन्हें मार डाला जाएगा, बस यही अनुभव लोगों ने लिखा कि वह संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने नास्तिक होने का निर्णय लिया।
परन्तु कई इस्लाम छोड़ने वालों ने यह लिखा कि उन्हें मार डाला जाएगा। पाकिस्तान के एक एक्स-मुस्लिम ने लिखा कि “मुस्लिमों को यह क्यों लगता है कि हमें केवल पोर्क खाने और वाइन पीने के लिए इस्लाम छोड़ा है? मुझे पोर्क और वाइन की परवाह नहीं है, बल्कि इस्लाम छोड़ने के कई और कारण हैं।”
फिर वह लिखते हैं
“मुस्लिमों के लिए यह स्वीकार करना बहुत कठिन होता है कि कोई उनका कथित परफेक्ट मजहब छोड़कर जा रहा है। आप लोग यह तो अपेक्षा करते हैं कि हम इस्लाम का आदर करें, परन्तु आप इस्लाम छोड़ने वालों को बर्दाश्त नहीं करते। यदि इस्लाम, मजहब छोड़ने वालों के प्रति थोडा उदार होता तो इतनी नफरत नहीं होती!”
फिर उन्होंने पाकिस्तान में छोटे बच्चों के साथ जो यौन शोषण होता है उसका वीडियो भी साझा किया, और प्रश्न किया कि इन सब शोषणों पर कोई आवाज क्यों नहीं उठाता है?
नाईजीरिया से मुबारक बाला ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि वर्ष 2012 में मेरी आलोचना बोको हरम और इस्लाम के प्रति मुड गयी और नंगी हिंसा ने मुझे मेरे नास्तिक होने के प्रति पुष्टि की, यह जानते हुए कि कैसे इस्लाम पहली शताब्दी में था। कई लड़कियों और महिलाओं को गुलाम बनाकर ले जाया गया और जिन मुस्लिमों द्वारा बलात्कार किया गया और उनके नाम पर ही हमारे बच्चों के नाम रखे गए। और मैं ऐसे बर्बर मजहब का हिस्सा नहीं हो सकती!
एक गुमनाम एक्स-मुस्लिम ने कहा कि मैंने इस्लाम क्यों छोड़ा? होमोफोबिया, सेक्सिज्म, हिंसक सजा, गैर मुस्लिमों के प्रति इस्लाम के विचार, और भी कई ऐसी चीज़ें जिन्हें बताया नहीं जा सकता है। ईरान और सऊदी अरब सहित कई इस्लामिक देशों में परिवार अपने होमोसेक्सुअल सदस्यों को मार डालती है।
ओबैद का कहना है कि अगर इस्लाम आपका विश्वास है, यदि आप यह सोचते हैं कि यह सच है, तो लोगों को इस पर प्रश्न क्यों नहीं उठाने देते? मैं केवल फ्री स्पीच की बात करता हूँ। यही वह आधार है जिस पर सभी अन्य स्वतंत्रता का निर्माण होता है। और अगर फ्री स्पीच नहीं है तो आप को कोई भी अन्य स्वतंत्रता नहीं मिल सकती।
इस्लाम में——- आपके पास कुछ नहीं है। आप कुछ बोल नहीं सकते, आप प्रश्न नहीं उठा सकते!
हैरिस सुलतान कहते हैं कि इस्लाम का डर असली है और कोई भी सच्चा व्यक्ति इस्लाम से डरेगा। इस्लामोफोबिया एक ऐसा नकली शब्द है, जिसका कोई आधार नहीं है। किसी और को इस्लामोफोब कहना मूर्खतापूर्ण हैं।
फिर वह लिखते हैं कि अब हम विस्तार से देखते हैं कि क्यों गैर-मुस्लिम इस्लाम से डरते हैं। फिर वह कहते हैं कि कुरआन का रवैया गैर मुस्लिमों के प्रति बहुत ही हिंसक रहा है।
एक्स-मुस्लिम ही लिब्रल्स की इस्लामोफोबिया की धारणा पर प्रश्न उठाते हैं, और लिब्रल्स इस शब्द के पीछे से उस मजहबी कट्टरता को बढ़ाते हैं, जिस कट्टरता से मुक्त होने के लिए उदार मुस्लिम आवाज उठा रहे हैं।
परन्तु लिबरल समाज उस अँधेरे के साथ खड़ा है, जो अँधेरा पूरे विश्व की लोक संस्कृति को निगलने को तैयार है और निगल रहा है।