दुनिया में भारत कुछ उन देशों में से है, जिन्हे इस्लामिक आतंकवाद का सबसे बड़ा दंश झेलना पड़ा है। भारत पिछले ३ दशकों से आतंकवाद का मुद्दा हर बड़े मंच पर उठाता रहा है, लेकिन बहुत ही कम देश ऐसे हैं जिन्होंने भारत की चिंताओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास किया है। वहीं अधिकतर देश ऐसे रहे हैं जो भारत को संयम रखने की सलाह दे कर अपने कर्तव्य से इतिश्री कर लेते हैं। चाहे वामपंथ के नाम पर हो, चाहे मानवतावाद के नाम पर हो, सेकुलरिज्म के नाम पर हो, या इस्लामोफोबिया के नाम पर हो, यह देश भारत को चुप रहने और परिस्थिति से समझौता करने की सलाह देते रहे हैं।
लेकिन एक कहावत है, “जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई“। यूरोप के देशों और अमेरिका ने भारत की बढ़ते इस्लामिक अतिवाद के प्रति चिंताओं को हमेशा नजरअंदाज किया, लेकिन जब इन देशों पर आतंकवादी हमले होने शुरू हुए, तब इन्हे समझ आया कि भारत पर क्या बीत रही थी। लेकिन आज भी अवसर आने पर यह देश छद्म मानवतावाद और सेकुलरिज्म के नाम पर दोगला आचरण दिखाने से पीछे नहीं हटते।
यूरोप कथित रूप से मानवीय मूल्यों पर बड़ा जोर देता है। दुनिया में कहीं बड़ी आपदाएं या मानवीय आपात स्थिति आती है, तो यूरोपीय संघ दूसरे देशों को सहायता और सलाह प्रदान करता है। यूरोपीय संघ के देश दुनिया में मानवीय सहायता के अग्रणी दाता हैं, जो हर साल दुनिया भर में लाखों लोगों की मदद करते हैं। यूरोप में ऐसे कई सामाजिक संगठन और सरकारी संस्थाएं हैं जो दुनिया भर को नागरिक सुरक्षा, मानवतावाद, सेकुलरिज्म जैसे मूल्यों पर जांचते भी हैं, और अन्य देशों को रेटिंग आदि भी यही देते हैं।
कहते हैं कि समय हमेशा एक सा नहीं रहता, आज यूरोप ऐसे मुहाने पर खड़ा हो गया है, जहां उनके इन कथित मूल्यों का पालन करना उन्ही के लिए मुश्किल होता जा रहा है। यूरोप में इस्लामिक अतिवाद का एक दौर शुरू हो गया है, रोजाना कहीं ना कहीं दंगे हो रहे हैं, इस्लामिक अतिवादी अपने लिए मजहब सम्मत अधिकार मांग रहे हैं, सरकारों को चुनौती दे रहे हैं। यह वही लोग हैं जिन्हे यूरोप ने कुछ ही वर्षों पहले मानवीय मूल्यों की सुरक्षा के नाम पर शरण दी थी। आइये जानते हैं इस समस्या के बारे में, जिसका जनका स्वयं यूरोप ही है, और आज इसका दुष्प्रभाव भी वही झेल रहा है।
2015 का प्रवासी संकट बना यूरोप के गले की हड्डी
2014-15 में इस्लामिक स्टेट्स ने सीरिया और इराक़ में अपने पैर फैलाने शुरू कर दिए थे। अपने बर्बर तौर तरीकों के लिए कुख्यात इस संगठन ने पूरे लेवांत इलाके में नृशंसता से मार काट मचाई, और इसी इस्लामिक आतंकवाद के दंश से व्यथित हो लगभग 13 लाख लोग यूरोप में शरण लेने को विवश हुए थे, यह दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात सबसे बड़ी शरणार्थी समस्या थी। शुरुआत में शरण लेने वाले अधिकाँश सीरियाई थे, लेकिन बाद में बड़ी संख्या में अफगान, नाइजीरियाई, पाकिस्तानी, इराकी और इरिट्रिया, और बाल्कन के आर्थिक प्रवासी भी इस यूरोप में शरण लेने को विवश हुए थे।
पाठकों को यह चित्र स्मरण होगा ही। यह एक 2 वर्षीय सीरियन लड़का था, जिसका नाम था एलन कुर्दी। कुर्दी का परिवार सीरियाई गृहयुद्ध से बचने के लिए 2 सितंबर 2015 को एक नौका में तुर्की से ग्रीस जाने की कोशिश कर रहा था, पर नौका के डूबने से कुर्दी की मृत्यु हो गई। इस घटना ने पूरी दुनिया को झिंझोड़ कर रख दिया था, और इसके पश्चात शुरू हुआ था यूरोप में मानवीय संवेदना और नागरिक सुरक्षा का एक नया दौर।
कुर्दी की मृत्यु से उपजी सहानुभूति की लहर के कारण यूरोपीय यूनियन के 28 देशों ने इस्लामिक देशों से आने वाले शरणार्थयों के ले लिए अपने दरवाजे खोल दिए थे। जर्मनी की चांसलर मर्केल के नेतृत्व में इटली और इंग्लैंड ने इन लाखों शरणार्थियों को यूरोप के अलग अलग भागों में बसाने में बड़ी भूमिका निभाई। हालांकि, उस समय भी पोलैंड जैसे कुछ देश थे जो इस नीति का विरोध कर रहे थे, वह इस गतिविधि के दुष्परिणाम के बारे में अपने साथी देशों को बता रहे थे, लेकिन उनकी बात किसी ने नहीं सुनी। उल्टा उनके विचारों को राइट विंग, सांप्रदायिक, और इस्लामॉफ़ोबिक बोल कर रद्द कर दिया जाता था।
लेकिन इन कथित मानवीय मूल्यों के संवाहक यूरोपीय देशों को नहीं पता था कि वह किस बड़ी समस्या में फंसने जा रहे हैं।
इस्लामिक आतंकवाद ने यूरोप में लगाई चिंगारी
लेकिन यूरोप अब एक बहुत ही बड़ी समस्या के मुहाने पर खड़ा था। यूरोप में इस्लामिक देशों से शरणर्थियों के आगमन के पश्चात कई देशों में सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होनी शुरू हो गयी थी। 2014-15 के पश्चात यूरोप में 100 से ज्यादा छोटी बड़ी आतंकवादी घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमे सैंकड़ो लोग मारे गए और हजारों घायल भी हुए। इनमे से अधिकाँश कट्टर इस्लामिक तत्वों के द्वारा की गयी। यूरोप में हुए कुछ बड़े हमले थे नवंबर 2015 पेरिस का हमला (130 मारे गए), जुलाई 2016 नीस ट्रक हमला (86 मारे गए), जून 2016 अतातुर्क हवाई अड्डे पर हमला (45 मारे गए), मार्च 2016 ब्रसेल्स बम विस्फोट (32 मारे गए), और मई 2017 मैनचेस्टर एरिना बमबारी (22) मारे गए)।
फ़्रांस, जर्मनी, बेल्जियम जैसे देशों में इस्लामिक तत्व हर दूसरे दिन किसी ना किसी बात पर प्रतिकार या दंगे करने लगे। पिछले ही दिनों हमने फ़्रांस में देखा कैसे फुटबॉल वर्ल्ड कप के समय मैच के पश्चात दंगे होते थे। मोरक्को जीता तो दंगा हुआ पेरिस में, मोरक्को हारा तो पेरिस जला, जब फ़्रांस फाइनल में हारा तब भी पेरिस में दंगे हुए। हमने देखा कैसे इंग्लैंड में भारत पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के बाद प्रवासी भारतीयों पर स्थानीय मुस्लिमों ने हमले किये थे। जांच में यह भी सामने आया था कि अधिकाँश हमलावर और दंगाई इस्लामिक शरणार्थी थे।
इसके अतिरिक्त हमने देखा कैसे कट्टर इस्लामिक तत्वों ने बेल्जियम और स्वीडन जैसे शांतिप्रिय देशों में माहौल खराब कर दिया है। हमने देखा कैसे मुसलमानों ने इन देशों में अतिरिक्त अधिकारों की मांग की, सड़कें जाम की, सड़कों पर नमाज पढ़ कर शक्ति प्रदर्शन किया। वहीं दूसरी और ऐसी घटनाओं से स्थानीय यूरोपीय नागरिकों के मन में असुरक्षा की भावना घर कर गयी, हालांकि उनके राजनीतिक नेतृत्व अभी भी सेकुलरिज्म और मानवतावाद के झूठे नशे में धुत थे।
यूरोपीय नागरिकों और सरकारों में बड़ा मतभेद
इन सभी परिवर्तनों ने पूरे यूरोप में अप्रत्याशित बदलाव ला दिए। मुस्लिम देशों ने आने वाले अप्रवासियों का धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति दृष्टिकोण बदल गया, उन्हें अपने मजहब और कुरीतियों से ज्यादा लगाव था। पूर्व में आये मुस्लिम अस्थायी श्रमिकों ने अपनी प्रार्थना की जरूरतों के लिए एक अस्थायी समाधान के रूप में “तहखाने की मस्जिदों” को स्वीकार किया था, लेकिन 2015 के पश्चात आने वाले प्रवासियों ने मस्जिदों और मीनारों की मांग की, अपने लिए शरिया कानून माँगा। इसके अतिरिक्त सार्वजनिक स्थान पर प्रवासियों की दृश्यता में वृद्धि हुई, पूरे यूरोप में नकाबपोश महिलाएं, इस्लामिक टोपी पहने पुरुष दिखने आम हो गए । ब्रिटेन में तो शरिया-जोन तक बन गए, जहाँ गैर इस्लामिक लोगों के लिए जाना असंभव है।
आज यूरोपीय संघ के 28 देशों में लगभग ढाई करोड़ मुसलमान रहते हैं। इनकी बढ़ती जनसँख्या ने इन देशों में बहस, विवाद, भय और यहाँ तक कि घृणा को भी चिंगारी दे रही है। मुसलमानों और मुख्यधारा के यूरोपीय समाजों के बीच अब आपसी संदेह का वातावरण बन चुका है। यूरोप में पिछले कुछ वर्षों में हुए जनमत सर्वेक्षणों में मुसलमानों के प्रति बढ़ते भय और विरोध को दर्शाया गया है। मुस्लिमों को आम यूरोपीय नागरिक राष्ट्रीय पहचान, घरेलू सुरक्षा और सामाजिक ताने-बाने के लिए खतरा मानता है। दूसरी ओर, मुसलमानों को यह विश्वास है कि अधिकांश यूरोपीय उनकी उपस्थिति को अस्वीकार करते हैं और उनके धर्म को बदनाम करते हैं और उपहास करते हैं।
हालांकि अधिकाँश यूरोपीय देश और उनका नेतृत्व अभी भी यह मानता है कि इस प्रकार के विचार चिंताजनक है क्योंकि यह एक ओर खतरनाक इस्लामोफोबिया को बढ़ावा देते हैं, और दूसरी ओर कट्टरता को बढ़ावा देते हैं । यूरोपीय राज्य इन घटनाक्रमों से चिंतित हैं क्योंकि यह उनके कथित सामंजस्यपूर्ण सहवास को खतरे में डालते हैं। परिणामस्वरूप उन्होंने चरमपंथी ताकतों का मुकाबला करने, कट्टरपंथ पर अंकुश लगाने और प्राप्त देशों में मुसलमानों के एकीकरण में सुधार के लिए उपाय करने के प्रयास किए। लेकिन इसमें सबसे बड़ी समस्या यह थी कि उन्होंने समस्या के मूल को ही नहीं समझा।
यूरोपीय देशों के सेक्युलर और लिबरल देश इतना कुछ होने के पश्चात भी मानते हैं कि यूरोप में मुसलमानों का विशाल बहुमत हिंसा या आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं होता है। वह यह बात मानते हैं कि कट्टर इस्लामिक तत्व ‘लोन वुल्फ’ हमले कर रहे हैं, लेकिन आज भी वह लोग इनकी समस्या के मूल को मानने से इंकार कर रहे हैं, जो है जिहादी शिक्षा। वह यह मानने से इंकार कर देते हैं कि कैसे एक यूरोपीय मुसलमान कैसे कट्टरपंथी बन जाता है? कौन उसे भड़काता है?
और यही कारण है कि यूरोप के कई देशों में पिछले कुछ वर्षों में दक्षिणपंथी दल सत्ता में आने लगे हैं। यह दल यूरोपीय समग्रता और सह-अस्तित्व कि धारणाओं को अक्षुण्ण रखते हुए कट्टर इस्लामिक अतिवाद से लड़ने का प्रयास कर रहे हैं। यूरोप के कई देशों में बुर्के और नकाब पर प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है, कई देशों में सामूहिक नमाज के आयोजनों को स्थानीय लोगों ने रुकवाया है । इसी के साथ कई देशों ने अपनी प्रवासी और शरणार्थी नीतियों का पुनः मूल्यांकन भी करने का प्रयास किया है, ताकि इस इस्लामिक वर्चस्व पर कुछ लगाम लगाई जा सके।
क्या यूरोप सुधरेगा?
पिछले 7-8 वर्षों में यूरोप में कानून व्यवस्था ठप्प हो चुकी है, इस्लामिक अतिवाद अपने चरम पर है, अधिकाँश जनसँख्या त्रस्त है, लेकिन अभी भी वहां की सेक्युलर-लिबरल जमात इससे सबक नहीं सीखना चाहती। दरअसल यूरोप का जनमानस और उनका राजनीतिक नेतृत्व इतना क्षीण हो चुका है कि अपने मानवीय मूल्यों को अक्षुण्ण रखने के लिए इन आक्रामक अप्रवासियों को घुसपैठिया बताने के स्थान पर अनियमित नागरिक के रूप में चिन्हित करता है। यूरोप के राष्ट्रों का परंपरागत समाज अपनी जनचेतना खो चुका है, ऐसे में वहां स्थिति में सुधार की अपेक्षा अत्यंत कम है।
आने वाले समय में यूरोप में परिस्थिति और बिगड़ेगी और यह भी संभव है कि प्रवासी लोगों और उनसे सम्बद्ध नीतियों पर आपसी मतभेदों के कारण यूरोपियन यूनियन का विघटन भी हो सकता है। प्रश्न यही है कि क्या यूरोप सुधरेगा? क्या यूरोप अपने मानवीय अधिकारों, सेकुलरिज्म के दुष्चक्र से बाहर निकलेगा? समय ही बताएगा।