जब भी भारत के इतिहास की बात होती है तो मुग़ल काल पर जाकर सभी ठिठक जाते हैं। भारत में हर चीज़ यहाँ तक कि वाम और इस्लाम का वश चले तो वह लोग यह तक प्रमाणित कर दें कि हिन्दुओं को सांस तक लेना मुसलमानों ने सिखाया। परन्तु भारत के ग्रन्थ उन्हें बार बार झूठा प्रमाणित करते हैं। आइये देखते हैं कि हिन्दुओं की जीवनशैली के विषय में इंडिका में क्या लिखा गया है?
वह लिखते हैं कि
“भारत वासी उचित व्यय के साथ रहते हैं, विशेष करके जब वह शिविर में निवास करते हैं। वह गैर-अनुशासित व्यक्तियों की भीड़ पसंद नहीं करते हैं, इसलिए स्वयं नियमों का भलीभांति पालन करते हैं। चोरी अत्यंत कम होती है।”
अर्थात जो उस समय के हिन्दू थे, वे प्रवृत्ति से ही नियमों का पालन करने वाले थे। ऐसा नहीं था कि उन पर नियम ऊपर से थोपे जाते थे। उनकी प्रवृत्ति ही ऐसी होती थी कि वह स्वत: ही नियम बनाते थे। उनमें आत्मनियंत्रण था। और आज भी मेले वगैर में, जैसे कुम्भ आदि में वह अपने नियमों के अनुसार ही कार्य करते हैं।
इसके बाद वह कहते हैं li
“चन्द्रगुप्त के शिवित में लगभग 4 लाख लोग थे, परन्तु चोरी की जो घटनाएं उनके कानों में पड़ती थीं, वह दो सौ मुद्राओं (drnchinm) से अधिक की चोरी नहीं होती थी। और वह भी चोरी की घटनाएं ऐसे लोगों में सुनी जाती थीं, जिनके समुदाय में लिखित क़ानून नहीं थे और जिन्हें लिखना भी नहीं आता था और जिनकी स्मृति से वह नियम विलुप्त हो चुके थे।”
अर्थात लोगों के मध्य परस्पर विश्वास था, हालांकि समाज के नियम से अनभिज्ञ लोग अवश्य चोरी किया करते थे।
उसके उपरान्त वह स्वभाव में सबसे महत्वपूर्ण बात बताते हैं कि भारत के लोग पूर्ण सुख से रहते हैं क्योंकि उनका स्वभाव सरल है और व्यय कम करते हैं।”
अर्थात व्यय कम करते हैं, ऋण आदि के जाल में नहीं फँसते हैं। जब व्यक्ति ऋण के जाल से मुक्त रहता है, तभी वह सुखी रहता है। आज कई आर्थिक समस्याएं बढ़ती हुई इच्छाओं से उत्पन्न हो रही हैं। लोग आकर्षक विज्ञापनों में फंसकर कई प्रकार के ऋण ले लेते हैं, तथा उसके उपरान्त समस्याओं से भरा जीवन जीते हैं। क्रेडिट कार्ड आदि के जाल में फंसकर विकास उनका शगल नहीं था। उन्हें यह ज्ञात था कि ऋण से क्या क्या समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं!
हालांकि कथित विकसित पैमानों पर उत्पन्न विकास जो कुंठा एवं हीनता उत्पन्न करता है, वहीं हिन्दू मूल्यों के साथ विकसित हुआ विकास आत्मिक आनंद एवं सौन्दर्य प्रदान करता था, इतना कि वह रत्न आदि के स्वामी भी थे!
फिर उसके बाद वह बहुत महत्वपूर्ण बात लिखते हैं!
वह उस बात की चर्चा करते हैं, जो परस्पर सामुदायिकता की भावना दिखाते हैं और यह भी कि उनमें हर बात न्यायालय तक ले जाने की प्रवृत्ति कितनी कम थी। वह लिखते हैं कि
“उनकी कानून तथा प्रतिज्ञापत्र की सरलता इसी बात से प्रमाणित होती है कि वह अत्यंत कम न्यायालय की शरण लेते हैं। उनके यहाँ जमानत एवं जमा रूपए के सम्बन्ध में कोई अभियोग नहीं होता, न उन्हें मुद्रा या साक्षियों की आवश्यकता होती है!”
और वह यह भी लिखते हैं कि वह अपने धन और गृहों को अरक्षित ही छोड़ जाते हैं। अर्थात उस समय चोरी करना कितना बुरा माना जाता था या कहें दंड ऐसा था कि कोई सहज चोरी की बात सोच भी नहीं सकता था। परन्तु एक बात जो पश्चिम में अजीब लग सकती है, परन्तु भारत में नहीं और वह यह कि
“वे सदा अकेले भोजन करते हैं, उनके लिए कोई समय निश्चित नहीं है, जिस पर सभी भोजन करें। जिसकी जब इच्छा होती है, वह तभी खाता है!।
(अर्थात हर शरीर की अपनी एक प्रकृति होती है, इसे तब माना जाता था और खाने के अनुसार शरीर का संचालन नहीं होता था, बल्कि देह के अनुसार भोजन का संचालन होता था।)
वह कई प्रकार के व्यायाम करते हैं, और वह शरीर में धक्का लगाकर व्यायाम करते हैं। कई प्रकार से यह होता है, पर विशेषत: आबनुस के चिकने कुंदे शरीर पर चलाकर यह कसरत करते हैं। (आज तो केवल जुगाड़ से नौकरी चाहिए)
उन्हें आभूषण पसंद हैं और उनके वस्त्रों पर सोने का काम रहता है और वस्त्रों पर बहुमूल्य रत्न जड़े रहते हैं। उन्हें अत्यंत झीने मलमल के फूलदार वस्त्र पहनना पसंद है। वह सौन्दर्य प्रेमी है एवं हर प्रकार से अपनी शोभा बढाने का प्रयत्न करते हैं। (नकली सादगी हमारी परम्परा कभी नहीं रही)
सत्य और सद्गुण का वह समान आदर करते हैं, अत: यदि किसी वृद्ध में अधिक बुद्धिमत्ता न हो तो वह विशेष अधिकार नहीं देते हैं।
“ झूठी गवाही देने के लिए अभियोग प्रमाणित होने पर अभियुक्त के हाथ और पैर काट लिए जाते थे।” संभवतया यही कारण था कि चोरी नहीं हुआ करती थी। इसके उपरान्त वह कितनी महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि
“यदि कोई किसी “शिल्पकार” को हाथ अथवा आँख विहीन करता है, तो उसे प्राणदंड दिया जाता है।” यह प्रमाण है कि भारत में कलाओं और कलाकारों का कितना सम्मान था और वह उनके विरुद्ध कोई भी कदम स्वीकार्य नहीं था और आधुनिक काल में हम क्या करते हैं? हम शिल्पकारों के खून से सना हुआ ताजमहल अपने देश की शान मानते हैं।
मेगस्थनीज़ एक बात भारत से बहुत प्रभावित थे कि भारत में उस आधार पर गुलामी की कुप्रथा नहीं थी जो ग्रीस और रोमन संसार में बहुतायत में पाई जाती थी।
पर आज समाज के आधार पर हम कहाँ हैं?
और आज हम आधुनिकता का दंभ भरते हैं। हम समय के साथ नीचे हुए हैं। मूल्य कहाँ गए हैं, पता नहीं! कसरत? कौन करे? आज जो लोग कह रहे हैं, हम मरे जा रहे हैं, आपदा है, आपदा होगी ही, क्योंकि हमने ही तो मूल्य छोड़े हैं, यह कहते हुए कि यह हिन्दू मूल्य हैं, अर्थात साम्प्रदायिक मूल्य हैं।
मेगस्थनीज़ द्वारा बताए गए वर्णन के अनुसार हिन्दू आत्म संयमित थे, और व्यायाम आदि उनके जीवन का सहज हिस्सा थे! मूल्यों को आत्मसात करने वाला हिन्दू वर्ग था। मेग्स्थनीज हिन्दू समाज के नैतिक मूल्यों से अत्यधिक प्रभावित था। परन्तु यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि आज हमने उन्हीं मूल्यों को साम्प्रदायिक कहने वालो को महान बना रखा है और हिन्दू मूल्यों को हमारी पुस्तकों से ही विस्मृत कर दिया गया है!
इतिहास कुछ और है, पढ़ाया कुछ और जा रहा है!
स्रोत:
- INTERCOURSE BETWEEN INDIA AND THE WESTERN WORLD FROM THE EARLIEST TIMES TO THE FALL OF ROME BY H. G. RAWLINSON, M.A., I.E.S.
- मेगस्थनीज़ का भारत विवरण, काशी नागरी प्रचारणी सभा
- Ancient India as described by Megasthenes