द कश्मीर फाइल्स पर इतना लिखा जा चुका है, कि अब शायद लिखना संभव न हो। परन्तु जैसा कि यह कहा जा रहा है कि यह फिल्म विमर्श का प्रस्थान बिंदु है, यहाँ से अब वह विमर्श आरम्भ होगा, जो अभी तक अनसुना था। जो अब तक कहीं था ही नहीं। यह कहा जा रहा है कि अतीत में न झांककर आगे भविष्य की ओर देखना चाहिए, परन्तु हिन्दी का कट्टर इस्लामी वामपंथी लेखक यह बताने के लिए तैयार नहीं है कि आखिर जब लोगों कोभविष्य की ओर देखना है तो वह अभी तक ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के विमर्श में क्यों फंसे हैं?
क्यों उनकी कहानियों में जातिगत बातें होती हैं, क्यों छद्म जाति विमर्श होता है और क्यों वर्ण व्यवस्था के जाति में परिवर्तन होने पर बात नहीं होती। यदि जाति इस देश का सत्य है तो इस पर बात क्यों नहीं की जाती कि दरअसल जो यह जातिगत व्यवस्था थी, वह दरअसल कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था थी। जब आप जाति के इतिहास में जाएँगी तो कहीं न कहीं कौशल आधारित व्यवस्था पर पहुंचेंगे और फिर आपको यह पता चलेगा कि हिन्दू वर्ण व्यवस्था में शिल्प था और वह शिल्प और कौशल पहले मुगलों एवं उसके बाद अंग्रेजों द्वारा अर्थव्यवस्था पर प्रहार करने के कारण नष्ट हो गया।
वह अंग्रेजों पर बात करना इतिहास की बात मानते हैं, तीस वर्ष पहले मुस्लिम कट्टरपंथियों ने कश्मीर से हिन्दुओं को ऐसे अत्याचारों के बाद भगा दिया, वह तो अतीत है, परन्तु ब्राह्मणों ने जो किया, वह आज की बात है! खैर, अब आपत्ति इस बात को लेकर है कि फैज़ की क्रांतिकारी नज़्म को हिन्दू विरोधी ठहरा दिया गया है। फैज़ की जो नज़्म है “हम देखेंगे!” वह किसके विरुद्ध है? क्या वह ज़ुल्म के विरुद्ध है? या फिर वह फैज़ की अपनी ही किसी कल्पना में लिखी गयी है?
कहा जाता है कि फैज़ एक क्रांतिकारी कवि थे और उन्होंने सर्वहारा का दर्द देखा। इस सर्वहारा का दर्द देखते-देखते वह नज्में लिख बैठे। परन्तु फैज़ की एक भी नज़्म उस ज़ुल्म के खिलाफ नहीं है जो उनके मजहब ने गैर मजहबियों के साथ किया? क्या फैज़ की क्रान्ति की सीमा बस यह थी कि अपने देश में वामपंथी सरकार के लिए ही क्रान्ति करें या फिर उन हिन्दुओं के लिए भी आवाज उठाएं जिन्हें मजहब के नाम पर उसी देश में निशाना बनाया जा रहा था, जो उनका ही था।
क्या किसी भी मुस्लिम क्रांतिकारी शायर ने हिन्दुओं पर होने वाले ज़ुल्मों पर आवाज उठाई? क्या इस्लाम ने अब तक जो खून खराबा किया है, उस पर आवाज उठाई? क्या फैज़ ने एक बार भी टूटते हुए मंदिरों के विरोध में आवाज़ उठाई? मगर वह कैसे आवाज उठा सकते थे, जब वह खुद ही गाते थे कि
“जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे”
और
“बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो”
उन्हें किसलिए जेल हुई थी?
फैज़ को किसलिए जेल हुई थी? यह भी प्रश्न है! क्या उन्होंने अपने देश की समस्याओं के लिए विरोध किया? आखिर उनका विरोध अपनी सरकार से था किसलिए? क्या किसी भी मुस्लिम प्रगतिशील रचनाकार ने इस्लाम के नाम पर हुए उस कत्लेआम का विरोध किया जो तैमूर के समय से चला आ रहा था? क्या किसी भी प्रगतिशील मुस्लिम रचनाकार ने यह कहा कि “ए हिन्दू भाई, बहुत हमारी कौम ने तुम्हारे साथ बुरा किया है, चलो अब नई शुरुआत करते हैं?”
संभवतया नहीं! तो जब भी मुस्लिम क्रांतिकारी रचनाकारों की बात हो, तो इस पर तो बात अवश्य ही होनी चाहिए कि कितने ऐसे लोग थे जिन्होनें यह निश्चित किया कि हमें सदियों के उन ज़ुल्मों के खिलाफ कुछ कहना है? और जो लिबरल मुस्लिम इस समय ऐसी बात करते हैं, उन्हें यही कथित प्रगतिशील जो फैज़ के बुत तुड़वाने को प्रगतिशील कहते हैं, नकार देते हैं। किसी न किसी बहाने से उनका कद कम करते हैं, जैसे बांग्लादेश में हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों पर आवाज उठाने वाली लेखिका तसलीमा नसरीन!
जैसे इस समय कठमुल्लाओं की पोल खोलने वाली पाकिस्तान की पत्रकार आरज़ू काजमी, या फिर भारत की ही रूबिका लियाकत, या ऐसे ही कई और लोग! या कितने प्रगतिशील मुस्लिम कबीर पंथी हैं? यह प्रगतिशील समाज इस हद तक कट्टर इस्लामी हो चुका है कि वह हिन्दुओं के जातिविध्वंस को नकार ही नहीं रहा है बल्कि मजाक उड़ा रहा है।
फैज़ या इक़बाल यदि इतने ही भारत से प्यार करने वाले या फिर कतई क्रांतिकारी थे तो उन्हें रुकना चाहिए था भारत में? इकबाल तो उलटे ब्राह्मणों को ही कोसते हुए दिखाई देते हैं अपनी रचनाओं में? खैर, अभी बात फैज़ की! बार-बार यह कहा जाता है कि फैज़ क्रांतिकारी रचनाकार थे, परन्तु कश्मीर को लेकर वह क्या सोचते थे? कश्मीर को लेकर उनका दृष्टिकोण क्या था? कश्मीर में पाकिस्तानी सेना ने जिस प्रकार से हिन्दूओं को मारा था, उस विषय में वह क्या सोचते थे?
dawn के अनुसार फैज़ जब द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना की ओर से लड़े थे, तब के समय से उनके कई मित्र थे। और उनमें से एक थे मेजर जनरल अकबर खान, जो उस समय पाकिस्तान की सेना में वरिष्ठ सदस्य थे। और अकबर खान सहित कई और सेना के लोग थे जो पाकिस्तान की नागरिक सरकार अर्थात लियाकत अली खान की सरकार से इस बात को लेकर खुश नहीं थे, कि वह कश्मीर को लेकर कुछ खास नहीं कर पा रही है। इसलिए उन्होंने सज्जाद जहीर के साथ मिलकर कुछ ऐसी योजना बनाने के लिए कहा जिससे इस सरकार को गिराया जा सके। परन्तु मीटिंग के बाद उन्हें यह पता चल गया कि चूंकि लोगों का समर्थन उनके साथ नहीं है तो ऐसा कुछ नहीं हो सकता।
और फिर यह समाचार लीक होते ही उन्हें हिरासत में ले लिया गया।
अत: यह स्पष्ट है कि कश्मीर के प्रति इन कथित प्रगतिशील मुस्लिम फिर चाहे वह फैज़ हों या फिर सज्जाद जहीर, जो भी पाकिस्तान में जाकर बसे, क्या सोचते थे! उन्हें कश्मीरी हिन्दुओं से कोई भी मतलब नहीं था।
फैज़ को पसंद करना या न करना अपनी-अपनी सोच हो सकती है, परन्तु कोई भी व्यक्ति आलोचना से परे नहीं है!
फिलीस्तीन के बच्चों और मुजाहिदीनों के लिए कविता लिखी फैज़ ने, परन्तु कश्मीरी हिन्दुओं या डायरेक्ट एक्शन डे आदि में मारे गए हिन्दुओं के लिए नहीं
मुस्लिम वाम प्रगतिशीलों की प्रगतिशीलता मात्र इस्लाम के लिए ही है। वह कभी भी इस्लाम के कट्टरपंथ द्वारा किए गए कत्ले आम पर कुछ नहीं कहते। फिलिस्तीन के लिए उनका दर्द जागा, परन्तु अपने पाकिस्तान में उनके ही मजहब के लोगों द्वारा हिन्दुओं को मारा गया, इस पर वह नहीं बोले। उन्होंने फिलिस्तीन के मुजाहिदों के लिए लिखा था:
हम जीतेंगे
हक़्क़ा हम इक दिन जीतेंगे
बिल-आख़िर इक दिन जीतेंगे
क्या ख़ौफ़ ज़ी-यलग़ार-ए-आदा
है सीना सिपर हर ग़ाज़ी का
क्या ख़ौफ़ ज़ी-यूरिश-ए-जैश-ए-क़ज़ा
सफ़-बस्ता हैं अरवाहुश्शुहदा
डर काहे का

फैज़ फिलिस्तीन के मुजाहिदों को गाजी कहते हैं, अर्थात काफिरों का कत्ल करने वाला! तो ऐसे में प्रगतिशीलता का अर्थ क्या है?
फैज़ की नज़्म को लेकर प्रगतिशील इतने बिलबिला क्यों गए हैं?
अश्लील साहित्य लिखने वाली वेबसाइट्स खुलकर कश्मीर फाइल्स के खिलाफ आ गयी हैं
अब तक वामपंथ और प्रगतिशीलता की आड़ में गंदगी और कट्टर इस्लाम फैलाने वाली प्रगतिशील वेबसाइट्स एकदम से ही इस फिल्म के विरोध में आ गयी हैं। वहां से अश्लील टिप्पणियाँ हो रही हैं। कश्मीर को अपना अधिकार मानने वाले कथित प्रगतिशील लोग विवेक अग्निहोत्री के पुराने ट्वीट दिखा रहे हैं। परन्तु विवेक के पुराने ट्वीट तो वामपंथी ट्वीट हैं, जिनमें वही सोच है, जो वामपंथियों की होती है, तो उन्हें साझा करने से क्या लाभ, जब विवेक अपनी पुस्तक अर्बन नक्सअल्स में यह स्वीकार कर चुके हैं। एक कथित प्रगतिशील साहित्य का पृष्ठ देखिये:

यही सदानीरा कैसा साहित्य परोसती है, यह भी देखिये:

अब यह फिल्म इन जिहादी और अश्लील साहित्यकारों पर एक बड़ा तमाचा है, क्योंकि यह लोग अब तक परोसते आए थे कि बेचारे कश्मीरी लोग पकिस्तान और भारत दोनों का शिकार हैं, परन्तु वह यह नहीं बताते कि कश्मीर में मूल लोग मुस्लिम कैसे हो गए जब कश्मीर का नाम ही ऋषि कश्यप के नाम पर है? अब जो भी लोग यह फिल्म देखकर आ रहे हैं वह लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि अगर यह सच है तो इतने वर्षों से उनकी सोच को प्रदूषित करने वाली“कश्मीरियत क्या थी?”
धन्यवाद आनंद जी
बहुत सुंदर पोस्ट सोनाली जी। आज आवश्यकता है लोगों को सच्चाई से रु ब रु करवाने की।