यह पूरी तरह से सत्य है कि भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मंदिरों पर आक्रमण किया, और यह आक्रमण मात्र मंदिरों पर ही नहीं थे, बल्कि इन आक्रमणों में मंदिर के बहाने हिन्दुओं का कितना खून बहा है, यह इतिहास में दर्ज है। फिर भी एक होड़ सी मची कि इन मंदिरों पर आक्रमणों को अकादमिक रूप से न्यूट्रल कर दिया जाए, अर्थात निरपेक्ष कर दिया जाए। इन मंदिरों को ऐसा बता दिया जाए जैसे वह शोषण का स्थान थे और इन पर आक्रमण दरअसल मात्र विजेता होने के नाते ही किया गया था, उसमें मजहब का कोई योगदान नहीं था।
इस प्रवृत्ति को HINDU TEMPLES, WHAT HAPPENED TO THEM ? में सीता राम गोयल ने भी लिखा है कि भारत में मंदिरों के विध्वंस के दो सिद्धांत सामने आए। एक तो इस्लामिक सिद्धांत था, वह कुरआन पर आधारित था तो वहीं, दूसरा जो सिद्धांत आया वह उन मार्क्सवादी इतिहासकारों के द्वारा आया, जो इस्लाम के प्रति सॉफ्ट कार्नर रखते थे और इस्लाम की कट्टरता के प्रति उदासीन थे। वह कहते हैं कि सबसे पहले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर मोहम्मद हबीब ने अपनी पुस्तक Sultan Mahmud of Ghaznin में यह लिखा कि दरअसल गजनवी इस्लाम के लिए नहीं बल्कि लूट के लिए भारत आया था और उसने मंदिर केवल लूट के चलते ही तुड्वाए!
उन्होंने लिखा कि दरअसल हिन्दुओं ने गजनवी का काम सरल कर दिया था कि मंदिरों में एक साथ सारी सम्पत्ति इकट्ठी थी।
प्रोफ़ेसर हबीब ने यह कुशलता पूर्वक स्थापित किया कि गजनवी ने मंदिर तोड़े जरूर, परन्तु यह मंदिर इतने भव्य और सोने चांदी से भरे थे कि आकर्षण स्वाभाविक है, नहीं तो इस्लाम तो लूट और तोड़फोड़ का समर्थन करता ही नहीं है। और इसी सेक्युलर सोच को भारत के वामपंथी लेखकों और कांग्रेसी नेताओं ने आगे बढ़ाया।
पंडित जवाहर लाल नेहरू तो और भी आगे बढ़ गए थे। प्रोफ़ेसर हबीब ने कम से कम यह तो कहा था कि गजनवी ने मथुरा के मंदिरों की प्रशंसा के बाद मंदिर जला दिए थे, मगर जवाहर लाल नेहरू ने यह वर्णन किया कि कैसे महमूद गजनवी ने यह बताया कि महमूद गजनवी ने मथुरा के मंदिरों की प्रशंसा की। मगर वह यह छिपा गए कि उसने उन मंदिरों को नष्ट किया था। और इस प्रकार वह व्यक्ति जो हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने वाला था, उसे स्थापत्य का सबसे बड़ा प्रशंसक बनाकर प्रस्तुत कर दिया गया।
फिर प्रश्न उठता है कि क्या ऐसा साहित्य में भी लिखा गया, क्या हिन्दी साहित्य भी वामपंथी विचारधारा के झूठ पर ही पनपता रहा और मंदिरों के विषय में झूठ बोलता रहा या फिर मंदिरों के खिलाफ एक ऐसी सोच उत्पन्न करता रहा, जिसने हमारी हिन्दुओं की हर पीढ़ी को उस विध्वंस, उस नरसंहार के प्रति उदासीन ही नहीं किया, बल्कि उनके हर नरसंहार के प्रति उन्हें ही दोषी ठहरा दिया! वह पीड़ित थे, परंतु वही सबसे बड़े दोषी बन गए और वह भी उस अपराध के लिए जो उन पर हुआ था, वह अपने साथ होने वाले हर अत्याचार और नरसंहार के दोषी बन गए?
आज हम महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी गयी पुस्तक हिन्दी काव्यधारा के कुछ पृष्ठों का विश्लेषण कर रहे हैं और उसे हूबहू पाठकों के सम्मुख रख रहे हैं। यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि राहुल सांकृत्यायन जी हिन्दी साहित्य के सबसे बड़े नामों में से एक हैं और उन्होंने वोल्गा से गंगा जैसी पुस्तकें और मार्क्स, माओत्से तुंग और अकबर की जीवनी लिखी हैं, जो भारत के एवं विश्व के इतिहास से सम्बन्धित हैं। और हमारे बच्चों के लिए इनकी रचनाओं का अध्ययन साहित्य में लगभग अनिवार्य है! वह इन मंदिरों के विध्वंस के विषय में क्या लिखते हैं, यह पढ़ते हैं:
वह अपनी पुस्तक हिन्दी काव्यधारा में पृष्ठ 32 पर लिखते हैं:
“महमूद और कितने ही दूसरे मुस्लिम विजेताओं ने हिन्दुओं के मदिरों पर भी प्रहार किया; लेकिन जैसा कि हम कह आये हैं, वह इतनी मेहनत सिर्फ़ पत्थरों को तोड़ने के लिए नहीं किया करते थे। वह जाते थे, महन्तों और पुजारियों द्वारा वहाँ जमा की हुई अपार माया को लूटने। इससे यह लाभ जरूर हुआ कि मंदिरों और देवताओं की हजारों बरस से स्थापित महिमा बहुत घट गई। कोई ताज्जुब नहीं, यदि दिल्ली विजय के तीन सदियों तक हिन्दू सन्त भी मूर्तियों और देवताओं के पीछे लट्ठ लेकर पड़ गये और चारों ओर निर्गुणवाद की दुंदभी बजने लगी। इस ध्वंसलीला ने कुछ फायदे का भी काम किया और पुरोहितों-महन्तों के प्रभाव को हल्का किया, यद्यपि वह उतना नहीं कर सकी जितना कि ईरान और अफगानिस्तान में, शायद अगर सारा हिन्दुस्तान इस्लाम के अंदर चला गया होता, तो यहाँ की सैकड़ों समस्याएं खत्म हो गयी होती।”
वह यह लिखते हैं और स्वीकारते हैं कि इस्लाम के झंडे तले आने से हो सकता है कि साहित्य को क्षति होती
“मुमकिन है उस वक्त हमारे साहित्य-कला को और भी क्षति हुई होती और एक बार ईरान की तरह मुसलमान बने भारत के जातीयता प्रेमियों को भी झुंझलाना पड़ता!”
यह उन राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है, जिन्हें उनके संस्कृत के ज्ञान के कारण महापंडित की उपाधि दी गयी थी। हालांकि उनकी वैचारिक यात्रा वेदांती, बौद्ध और फिर अंतत: मार्क्सवाद के रूप में समाप्त हुई। वह ‘तुम्हारे इतिहासाभिमान और संस्कृति के क्षय’ में वह प्रभु श्री राम सहित विश्वामित्र हों चाहें वशिष्ठ, मनु हों चाहे याज्ञवल्क्य, व्यास हों चाहे पतंजलि, नानक और कबीर सभी को यह कहते हुए कोसते दिखाई देते हैं कि इन सभी ने न जाने कितनों के दिलों को दुखाया होगा? वह लिखते हैं कि
“अपने मालिकों और अन्नदाताओं की चापलूसी में जाने क्या-क्या कुकर्म उन्होंने किये होंगे। सफल लुटेरों और खूनियों को आसमान पर चढ़ाने की जो प्रवृत्ति देखी जाती है, उससे मालूम होता है कि इतिहास की वीरपूजा में भी इसका बहुत बड़ा अंश रहा होगा।“
वाल्मीकि की रामायण में हाट बाजार का उल्लेख है, जिनमें मणिक आदि बेचे जाते हैं, परन्तु राहुल सांकृत्यायन उसी अयोध्या के बाजार में गौ-मांस की बिक्री भी दिखाते हैं।
वह लिखते हैं
“आइये, रामराज्य की दास-प्रथा की एक झाँकी लीजिये। एक साधारण बाजार है जिसमें सिर्फ दास-दासियों की बिक्री होती है। लाखों वृक्षों का बाग है। खाने-पीने की चीजों की दूकानें सजी हुई हैं। भेड़-बकरियों और शिकार किये जानवरों के अतिरिक्त उच्च वर्ण के आर्यों के भोजन तथा मधुपर्क के लिए गोमांस खास तौर से तैयार करके बेचा जा रहा है।“
हिन्दी साहित्य में इसी विचारधारा का स्थान उच्च रहा, जिसने प्रभु श्री राम को कोसा या गालियाँ दीं और भारत के इतिहास को और यहाँ तक कि संस्कृत को भी मार्क्सवादी और वामपंथी चश्मे से देखा, और दुर्भाग्य यही है कि हमारे बच्चों को इन्ही को महाविद्वान कहकर पढ़ाया जाता है!
राहुल सांकृत्यायन अकबर के जीवनी में अकबर को बीसवीं सदी का सांस्कृतिक पैगम्बर बताते हैं और वह भूमिका में लिखते हैं कि सम्राट अशोक और महात्मा गांधी के बीच यदि कोई सांस्कृतिक रूप से एक करने वाला व्यक्ति अकबर है!
प्रश्न यही उठता है कि जब एक तरफा सोच को ही साहित्य और इतिहास ठहरा दिया गया तो फिर ऐसे में बच्चों से कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वह टूटे हुए मंदिरों के अवशेषों पर दुखी होंगे?