हरिओम मोदी जी!
मेरा आपके नाम यह तीसरा और अंतिम पत्र एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय के बारे में है। विषय है, पिछले छह वर्षों में शिक्षा और विद्या के क्षेत्र में एक भी सुधार करने में आपकी सरकार की अगाध विफलता। मैं उनके सामान्य अंग्रेजी समकक्ष “एजुकेशन” के बजाय संस्कृत मूल के शब्दों का उपयोग कर रहा हूं क्योंकि वह अधिक गहराई और वजन रखते हैं।
जबकि शिक्षा, जो बुनियादी है, अधिकांश के पहुंच के भीतर है, किंतु केवल कुछ मुट्ठी भर ही विद्या के लिए विशेष रुचि रखते हैं। कई दशकों से हमारे शिक्षा के कारखाने बड़ी संख्या में स्नातक और स्नातकोत्तर तैयार कर रहे हैं, जिनमें विद्या का अंकुरण कभी भी नहीं हुआ है। विद्या विवेक की जननी है, जिसका हमारे मैकाॅले पुत्री-पुत्रों में प्रत्यक्ष अभाव के कारण “इंडिया” का “भारत” में बदलाव में विलंबित देरी का एकमात्र सबसे बड़ा कारण है। सरकार में उनकी सर्वव्यापी उपस्थिति राष्ट्र की सनातन विरासत पर एक धब्बा है।
एक राष्ट्रवादी राज्य के परिवर्तन में शिक्षा की मूलभूत भूमिका को देखते हुए लगभग हर कोई उम्मीद कर रहा था कि आप सत्ता में आते ही मानव संसाधन मंत्रालय पर शिकंजा कसेंगे। एनसीईआरटी की इतिहास की पुस्तकें, जो एंटोनियो युग के दौरान लिखी गई थी, पाठ्यक्रम से हटाना आपके प्राथमिकताओं की सूची में सबसे ऊपर रहना चाहिए था। हमारे स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े नायकों के रूप में मोहनदास गांधी और जवाहरलाल नेहरू को दिए गए अनुपातहीन महत्त्व का परिशोधन करना आपकी प्राथमिकता होनी चाहिए। सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, भगत सिंह और कई अन्य लोगों के योगदान को दीर्ध काल से मान्यता का इंतजा़र था। सिर्फ साबरमती के संत के मजबूर किए जाने पर अंग्रेजो ने हमारे तटों को नहीं छोड़ा, बल्कि भारत छोड़ो आंदोलन की असफलता के बाद मोहनदास करमचंद गांधी का मनोबल गिरा हुआ था। 1946 के नौसेना विद्रोह और आजाद हिंद फौज के बलिदान ने अंग्रेजों को उनकी स्थिति की अस्थिरता का एहसास कराया।
मुगल शासन के अतिरंजित गौरव की गाथाओं का भांडा फोड़ने की जरूरत है, जिसमें उनके द्वारा हिंदू मंदिरों को लूटने, इस्लाम में जबरन धर्म परिवर्तन और अनेकों विध्वंस किए जाने की कथाएं सम्मलित हों। क्या हमारे आज के युवा को यह जानने का हक नहीं है कि महाराणा प्रताप के नाम पर “महान” का सम्मान क्यों नहीं जोड़ा गया, जबकि मुगल सम्राट को ‘महान’ जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के नाम से प्रचलित कर दिया गया? 1567- 68 में चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी के दौरान 40, 000 हिंदू किसानों का नरसंहार करने वाले अकबर को इतिहास में “महान अकबर” के रूप में याद किया जाता है। आजकल के कितने छात्रों को हमारे सिख गुरुओं द्वारा किए गए बलिदान या मुस्लिम आक्रमण के विरोध में मराठों की भूमिका के बारे में पता है ?
क्या हमें इस बात पर अपने सिरों को शर्म से झुका नहीं लेना चाहिए कि पहली हिंदू राष्ट्रवादी सरकार 5 जून को शिवाजी के राज्याभिषेक दिवस को हिंदू साम्राज्य दिवस के रूप में मनाने के बारे में संकोच कर रही है ? यह उन 6 त्योहारों में से एक है जिसे आर एस एस आधिकारिक तौर पर संगठनात्मक स्तर पर विजयदशमी, मकर संक्रांति, वर्ष प्रतिपदा महोत्सव, गुरु पूर्णिमा और रक्षाबंधन के साथ मनाता है। इस समारोह को पार्टी द्वारा संयोजन करना चाहिए था। यह संकोच और झिझक हैरान करने वाला है। और मैं तो स्कूल पाठ्यक्रमों में भारत के प्राचीन इतिहास की लज्जाजनक उपेक्षा की चर्चा में भी नहीं पड़ रहा हूँ।राजनैतिक स्तर पर हमारे समृद्ध अतीत के नियमित वंदन को विद्यालयों में आर सी मजूमदार की “दक्षिण भारत का इतिहास” के नियमित वाचन में अनुवादित होना चाहिए था, जिसमें हिंदू राजवंशों के सबसे लंबे काल तक चलने का जि़क्र है।
मोदीजी, पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण बदलाव, देश के राजनीतिक विमर्श को नई दिशा प्रदान करता। शैक्षणिक विषय वस्तु में आप की आपेक्षिक उदासीनता या वामपंथी उथल-पुथल का सामना करने में इच्छाशक्ति की कमी, यह कुछ कारण हो सकते हैं। मैं 13 मई 1998 के पोखरण 2 परमाणु परीक्षण की याद दिलाना चाहूंगा। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने पिछले 13 महीनों के अस्थिर गठबंधन के बावजूद सत्ता में आने के 2 महीने के भीतर ही इसे आगे बढ़ाने का फैसला क्यों किया? जाहिर तौर पर इसका उद्देश्य सुस्त कांग्रेस की तुलना में भाजपा की मजबूत विश्व दृष्टि की घोषणा करना था।
नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) के पूर्व निदेशक जेएस राजपूत जी मुझे बताते हैं कि धूर्त अर्जुन सिंह ने 2004 में मानव एवं संसाधन विकास मंत्री का पदभार संभालने के तुरंत बाद ही अटल जी के कार्यकाल के दौरान 2000 में उनके द्वारा शुरू की गई इतिहास की किताबों को हटवा दिया था, और कुछ ही हफ्तों के भीतर पुनः मार्क्सिस्ट ‘धर्मनिरपेक्ष’ संस्करण को बहाल करवा दिया था। हमारे धार्मिक तथा सभ्यतागत दृष्टिकोण को दर्शाती इतिहास की पुस्तकों को फिर से लिखने में विफलता का एक मुख्य कारण दक्षिणपंथी मानसिकता वाले शिक्षाविदों का अत्यधिक अभाव कहा जाता है। अगर इच्छा शक्ति होती तो समाधान मिल सकता था। भारत समर्थक लेखकों, जैसे राजीव मल्होत्रा, बिबेक देबरॉय और संजीव सान्याल के विचार लिए जा सकते थे। बिबेक और संजीव दोनों ही आपकी सरकार का हिस्सा हैं और दुनिया के रोमिला थापर और रामचंद्र गुहा की जगह लेने में सक्षम हैं।
प्रोफेसर कपिल कुमार जैसे प्रख्यात इतिहासकार को नजरअंदाज कर दिया गया है, क्योंकि उनके स्पष्ट वादी विचारों को पसंद नहीं किया जाता है। राजपूत जी को सेवा- निवृत्ति से वापस लाया जा सकता था। हम सुब्रमण्यम स्वामी को भी नहीं भूल सकते, जिनका शैक्षणिक क्षेत्रों के अनुभव को पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं किया गया है। वह एक विद्वान व्यक्ति हैं और राष्ट्रीय हित के प्रति उनकी निष्ठा पर संदेह नहीं किया जा सकता है। समस्या यह प्रतीत होती है कि संघ अपने करीबी घेरे के बाहर किसी पर भरोसा नहीं करता। वामपंथ की तर्ज पर बौद्धिक परंपरा का अभाव एक गंभीर बाधा रही है। रास्ता निकालने के लिए छह साल पर्याप्त होने चाहिए थे।
जो मुझे इस पत्राचार के मर्म पर लाता है – वह है लंबे समय से प्रतीक्षारत, राष्ट्रीय शिक्षा नीति । मोदी जी, मार्च 2019 में प्रस्तुत प्रारूप को अंतिम रूप देने में सरकार अपने पैर क्यों घसीट रही है? 2015 से शिक्षा नीति पर काम चल रहा है। दिवंगत कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में पहली पुनरावृति मई 2016 में प्रस्तुत की गई थी, पर बिना कारणों को स्पष्ट किये इसे रद्द कर दिया गया। उस रिपोर्ट ने 1964 – 66 में डी एस कोठारी आयोग द्वारा पहली बार एक राष्ट्रीय शिक्षा सेवा (एनईएस) बनाने के प्रस्ताव को दोहराया था। इस सुझाव को पूर्व इसरो (ISRO) प्रमुख और जेएनयू के चांसलर के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली उत्तराधिकारी समिति द्वारा शामिल किया जाना चाहिए था, पर ऐसा क्यों नहीं हुआ यह सभी जानते हैं।
एनईएस की स्थापना भारतीय प्रशासनिक सेवा की व्यापक शक्तियों को कम कर देती, जबकि समय की यही मांग है। गैर-भाजपा शासित राज्य विरोध कर सकते थे लेकिन वे तो संख्यात्मक रूप से अल्पमत में हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल जी से इस मामले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध करें। सुब्रमण्यम कमेटी की रिपोर्ट पूरी तरह से निर्थक नहीं थी। मंत्रालय तथा समितियों के संचालक में बदलाव के बाद पहले की शोध को बाहर फेंक देना पैसे की बर्बादी और अदूरदर्शिता का सूचक है। स्मृति ईरानी जी द्वारा मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के संचालन के समय बहुत कुछ अभिलाषित रह गया था लेकिन फिर भी वह उस व्यक्ति की तुलना में अधिक दृढ़ प्रतिज्ञ थी जिन्होंने उनकी जगह ली। भाजपा को इस कार्य के लिए मुरली मनोहर जोशी जैसे किसी व्यक्ति को तैयार करना होगा। अत्यंत महतवपूर्ण मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय बौद्धिक रूप से नौसिखिया व्यक्ति के लिए एक मुश्किल मंत्रालय है।
दोनों समितियों की संयोजन प्रणाली भी स्पष्टता की कमी के पीछे एक कारक है। टीआरएस सुब्रमण्यम के नेतृत्व वाली समिति में ज्यादातर सेवानिवृत्त नौकरशाह थे, परन्तु प्रोफेसर जेएस राजपूत जैसे प्रमाणित उपलब्धियों के शिक्षक भी शामिल थे। उत्तराधिकारी समिति के 11 मूल सदस्यों में से कोई भी, व्यापक शैक्षणिक प्रचार के बावजूद, प्रोफेसर जेएस राजपूत के अनुभव और विशेषज्ञता के सामने कम दिखाई पड़ते हैं। 2000 में उनकी देखरेख में शुरू किए गए इतिहास के पाठ्यक्रम में धर्म की समझ, संस्कृत और वैदिक गणित के शिक्षण को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। फिर जैसा की अनुमानित था, भगवाकरण’ के परिचित आरोपों के साथ इसे वामपंथियों ने अदालत में चुनौती दी। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने एनसीईआरटी की पाठ्यक्रम सामग्री की वैधता को बरकरार रखा। सितंबर 2002 में, “अरुणा राॅय बनाम भारत संघ” में न्यायमूर्ति डी ए धर्माधिकारी द्वारा दिया गया निर्णय अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए।
शिक्षा नीति पर गठित समिति का संचालन करने के लिए एक अंतरिक्ष वैज्ञानिक के चयन के पीछे के मानदंडों को पूर्ण रूप से समझना मुश्किल है। पर यह भी कहना सही नहीं कि उनके पूर्ववर्ती व्यक्ति इस कार्य के लिए बेहतर योग्य थे। संघ के लोग कस्तूरीरंगन जी का गुणानुवाद करते हैं। वे कहते हैं कि वह एक प्रबुद्ध और आध्यात्मिक अंतरंग के व्यक्ति हैं। पर वे यह नहीं समझा पाते कि क्या 2006 में वेटिकन के “पोंटिफिकल एकेडमी ऑफ साइंसेज” में नियुक्त किये गए व्यक्ति इस कार्य के लिए सबसे उपयुक्त थे ? जाहिर है इस तरह की नियुक्ति एक अयोग्यता नहीं है। श्री सी वी रमन और प्रोफेसर सीएनआर राव भी इस एकेडमी के पूर्व सदस्यों की सूची में शामिल है, लेकिन उन्हें कभी देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति तैयार करने के लिए नहीं कहा गया। अगर एक मद्यत्यागी को अक्सर शराबियों के संगत में देखा जाए तो अविश्वास की स्थिति पैदा हो ही जाती है।
यहां सवाल भारतीय ध्येय के प्रति अडिग निष्ठा का है। प्रत्येक वैज्ञानिक को प्रोफेसर यशपाल के सांचे में नहीं बनाया जाता, जिनका विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल एक आमूल परिवर्तन काल था। अगर नई एनईपी हमारे प्राचीन धार्मिक मूल्यों और परंपराओं को आगे नहीं बढ़ाती है तो यहां थोड़ी बहुत छेड़छाड़ लंबे समय में बहुत फर्क नहीं दिखाएगी। चरित्र वह आधार है जिस पर किसी राष्ट्र की नींव बनती है। इसके बिना कुछ भी सफल नहीं हो सकता। यही इतिहास का सबक है।
यदि 2019 एनईपी के प्रारूप ने गंभीर आलोचनाओं को जन्म दिया है, तो शायद ही इसे आश्चर्य से देखना चाहिए। कुछ लोग इसे पुराने विचारों को नवीन आवरण में प्रस्तुत करना बताते हैं, और कुछ इसे खतरनाक बताते हैं। भारतीय शिक्षा मंडल के सूत्र बताते हैं कि संशोधन के लिए 66, 000 से अधिक प्रस्ताव प्राप्त हुए हैं। दस्तावेज में कथित तौर पर दो या तीन पुनरीक्षण हुए हैं। हालांकि कोई भी, किए गए परिवर्तनों की प्रकृति या विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं कर सकता। केवल पोखरियाल जी को इसका पता है और वह बात नहीं कर रहे हैं। वैसे भी किसी भी प्रकार का प्रमुख परिवर्तन करने का समय बीत चूका है।
484 पृष्ठ का दस्तावेज एक ‘उदार’ शिक्षा के महत्व पर बल देता है। उच्च शिक्षा पर 135 पृष्ठों में से 32 इसी विषय पर समर्पित हैं। न्याय, विकास, विविधता, समावेशकता, मानवता, निष्पक्षता जैसे घोषक शब्द इस प्रतिवेदन को अंकुरित करते हैं। सामाजिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक वास्तविकताओं के सन्दर्भों से यह व्याप्त है। इसके पृष्ठों से घूमती हुई ध्वनियाँ स्पष्ट रूप से वामपंथी हैं। इस नीति के अधिवक्ता यह जानने को उत्सुक हैं की न्याय, अपक्षपात और निष्पक्षता क्या इस नीति के अवांछनीय गुण हैं, पर उन्हें यह एहसास नहीं कि ये हमारे सनातनी दृष्टिकोण का अविभाज्य हिस्सा हैं। इन सार्वभौमिक मूल्यों पर अत्यधिक जोऱ देने से कोई उद्देश्य नहीं सिद्ध होता क्योंकि किसी भी शिक्षा का उद्देश्य हमारी चेतना के स्तर को ऊपर उठाना ही है। शब्दबहुल होने से पाखंड उत्पन्न होता है जिससे हमें बचना है।
अध्यक्ष द्वारा लिखित प्रस्तावना “इंडियन” (भारतीय नहीं) शिक्षा प्रणाली को दिखावटी सौहार्द प्रदान करता है, जिसने कि चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, भास्कर, आचार्य चाणक्य, पतंजलि और पाणीनी जैसे विद्वान दिए जो की शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों से थे जैसे गणित, खगोल विज्ञान, धातुविज्ञान, चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा, नौसंचालन, अभियांत्रिकी, वास्तु-कला, जहाज निर्माण, योग, ललित कला और शतरंज। हालांकि 23 अध्यायों में से कोई भी गुरुकुल प्रणाली पर ध्यान केंद्रित नहीं करता है जिसने इन प्रतिभाओं को जन्म दिया है। एकल विद्यालय या विद्या भारती नेटवर्क द्वारा संचालित शिशु मंदिर स्कूलों की संघ की स्वयं की श्रृंखला इसमें उल्लेखित होने योग्य है। दोनों ही विद्यालय स्तर पर अच्छे कामकाजी मॉडल के रूप में काम कर सकते हैं।
मोदी जी, किसी को पुनरुत्थान विद्यापीठ की विनम्र वयोवृद्ध इंदुमती कटारे जी द्वारा किए जा रहे उत्कृष्ट कार्य को डॉक्टर कस्तूरीरंगन के ध्यान में लाना चाहिए था। वह आपके ही राज्य की हैं और आप उन्हें अपने आरएसएस के प्रचारक होने के दिनों से जानते हैं। उनका थिंक टैंक 2017 में स्कूली शिक्षा के लिए एक वैकल्पिक पाठ्यक्रम ले कर सामने आया। वैदिक चिंतन, पारिवारिक और नैतिक मूल्यों में निहित स्कूली शिक्षा के भारतीय मॉडल को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस पाठ्यक्रम को पांच खंडों की श्रृंखला में संकलित किया गया है। यह श्रृंखला बच्चे के विकास के प्रारंभिक चरणों में मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता पर जो़र देती है। यह एकमात्र मारक है जिससे हमारी शिक्षा प्रणाली में खतरनाक पश्चिमी प्रभाव को बेअसर करने की शक्ति है। वैश्वीकरण से संवाद के लिए स्वदेशी मॉडल भी तैयार किए गए हैं।
इंदुमती जी कहती हैं कि अंग्रेजों के भारत का उपनिवेशीकरण करने के बाद से हमने अपने ज्ञान और मूल्यों को खो दिया। वर्तमान पाठ्य पुस्तकें विज्ञान और अन्य क्षेत्रों में हमारी उपलब्धियों को उजागर नहीं करती हैं। पहले से ही गुजरात के कुछ विद्यालयों में शुरू किए गए इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य हमारी पुरानी व्यवस्था को बहाल करना और भारत की खोई हुई विरासत को पुनर्जीवित करना है।
एनईपी का एक बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा से संबंधित है; यह पांच “विश्व स्तरीय” उदारवादी कला विश्वविद्यालयों को बढ़ाने पर केंद्रित है जो “पश्चिम में सर्वश्रेष्ठ” जैसे अमेरिका के “आई वी लीग स्कूलों” पर आधारित हैं। प्रत्येक विश्वविद्यालय 2000 एकड़ भूमि में फैला हुआ है और 30,000 छात्रों के शिक्षा के लिए सभी व्यवस्था प्रदान करता है। नालंदा का उल्लेख लगभग एक अनुबोध के रूप में किया गया है।
आरटीई अधिनियम के विवरण
प्रधानमंत्री जी, हमारी त्रुटिपूर्ण शिक्षा प्रणाली के ताने-बाने को शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2010 (आरटीई) से अधिक नुकसान शायद ही किसी ने पहुँचाया है। इसके विनाशकारी प्रभाव पर एनईपी की चुप्पी कर्णभेदी है। एक अनुमान है कि इस कानून के चलते 2010 से 2015 के बीच लगभग 79, 000 निजी शिक्षण संस्थान बंद पड़ गए। स्कूलों में अंडररिप्रेजेंटेड ग्रुप्स(URGs) को 25 फ़ीसदी सीटें आवंटित करने की अनिवार्यता और कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में 50 फ़ीसदी सीटों का अनिवार्य आवंटन एक गहरा आघात साबित हुआ है। यू आर जी और कुछ नहीं बल्कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के लिए एक चतुर व्यंजना है जिसमें बड़े पैमाने पर मुस्लिम शामिल हैं। आरटीई अधिनियम का अल्पसंख्यक द्वारा चलाए जा रहे संस्थानों को अपने दायरे से बाहर कर देना हिंदुओं को कमजोर करने के लिए एक और चाल है जिससे उन्हें अपनी पहचान बदलने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसने कर्नाटक के लिंगायत समुदाय के भीतर विभाजन के बीज बो दिए हैं।
एनईपी में मुसलमानों के लिए विशेष शिक्षा क्षेत्र (एसईजेड) स्थापित करने का प्रस्ताव विशेषकर कष्टप्रद है। मुस्लिम शिक्षकों की भर्ती, उर्दू शिक्षा के लिए विशेष प्रावधान, मुस्लिमों के लिए अतिरिक्त छात्रवृति और मदरसा और मकतब छात्रों को बोर्ड परीक्षाओं में बैठने की अनुमति देना, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की चरम सीमा है।भाजपा सरकार के तहत समिति में किसी के पास इस तरह के दुस्साहस पूर्ण प्रस्ताव रखने की मंत्रणा एक अपवाद जनक स्थिति से कम नहीं।
एनईपी का यह सुझाव कि आरटीई के दायरे को पूर्व प्राथमिक स्तर और दसवीं कक्षा तक विस्तारित किया जाये अनुत्तरदाई है। ऐसा प्रस्ताव राजनीतिक रूप से सही हो सकता है, लेकिन व्यवहार में काम नहीं करता। भारत जैसे गरीब देश में हर कोई बहुत मूल बातों से परे, शिक्षा की आकांक्षा नहीं करता। यह हमारी वर्ण व्यवस्था का आधार था जिसे कई लोग कास्ट या जातिवाद के साथ भ्रमित करते हैं। गरीब परिवारों के बच्चे नलसाजी, बढईगिरी या कुछ अन्य कौशल प्राप्त करना पसंद करेंगे, जो उन्हें संसाधन रहित सरकारी प्राथमिक विद्यालय में अपना समय बर्बाद करने के बजाय जल्द से जल्द कमाने में मदद कर सकता है।
सभी को हाई स्कूल तक पहुंचने के लिए मजबूर करना मुझे 1959 के फ्रांसीसी नाटककार यूजीन लेनेस्को द्वारा लिखित नाटक “ले रेनौसरस” की याद दिलाता है। इस अर्ध-अलंकारिक नाटक ने एक नई नाटकीय तकनीक का उद्घाटन किया जिसे “थिएटर ऑफ द एब्सर्ड” कहा जाता है। नाटक का विषय है कि एक छोटे से फ्रांसीसी शहर में अचानक सभी को यह दौरा पड़ता है कि सब गेंडों के रूप में रूपांतरित हो गए हैं, सिर्फ एक शराबी के अलावा जो कि इस दौरे से मुक्त रह कर अंत में शहर का रक्षक बन जाता है। इस कहानी से हमें यही सीख मिलती है कि भीड़ का अनुसरण करने के बजाय आप वही करें जो आपके लिए सबसे अच्छा है।
मोदी जी, जानकारों को यह लगता है कि मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय और संस्कृति एवं सभ्यता मंत्रालय में आपका आदेश नहीं चलता है। वहां संघ ही फैसला करता है। परन्तु संघ के अंदरूनी सूत्र कहते हैं कि वे किसी भी मंत्रालय के मामलों में सीधे अपनी नाक नहीं घुसाते। परंतु विश्वविद्यालयों से आने वाले ज़मीनी विवरण कुछ और ही कहानी बताते हैं। मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय द्वारा नियुक्त किए गए कई कुलपतियों को भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद हटाना पड़ा। किसने उनके मामले को आगे बढ़ाया? बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) जैसे एक प्रमुख संस्थान के मामलों को पिछले वीसी के कार्यकाल के दौरान गंभीर रूप से हानि हुई। यह कहना पर्याप्त है कि मानव संसाधन एवं विकास के मुद्दों को पीएमओ द्वारा बारीकी से निगरानी करने की आवश्यकता है, अगर हमें हमारी शिक्षा प्रणाली को अनिन्द्य रखना है।
2019 एनईपी एक ऐसी खिचड़ी प्रतीत होता है जो ना ही भारत केंद्रित शिक्षा ढांचा प्रदान करता है और ना ही इसे सरकारी प्रभाव से अलग कर पा रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान स्थापित करने का सुझाव केवल निर्णय लेने की प्रक्रिया को केंद्रीकृत करेगा। जी के चेस्टर्टन ने कहा है कि शिक्षा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक समाज की आत्मा को सौंपने का तरीका है। भारत की उस आत्मा को 19वीं शताब्दी के मध्य में थॉमस बैबिंगटन मेकॉले ने कुचल दिया था।
मोदी जी, हमें उम्मीद थी कि आप शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दे पर अतीत को पीछे छोड़ कर एक नए सिरे से काम शुरू करेंगे। यहाँ प्रगति की कमी नहीं, बल्कि निष्क्रियता है जो दुखद है। हम अब उम्मीद खोने लगे हैं।
ओम नमः शिवाय
सुधीर कुमार सिंह
भोपाल
(रागिनी विवेक कुमार द्वारा इस अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद)
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