द वीक ने अपनी वेबसाईट पर बिबेक देबरॉय द्वारा प्रकाशित लेख में माँ काली एवं महादेव के अनुचित चित्र पर क्षमा मांगते हुए लिखा है कि हमसे चित्रों का चयन करने में गलती हुई थी एवं हम यह पुष्टि करते हैं कि इसके पीछे कोई भी भड़काऊ या उकसाने वाली हरकत नहीं थी, नीचा दिखाने वाली हरकत नहीं थी।
यह चित्र गेटी इमेज की गैलेरी से लिया था जो इसे हिमाचल प्रदेश से कांगड़ा शैली का चित्र बता रहा है और यह 1820 में बना हुआ है। और चूंकि इस चित्र के चयन और प्रयोग से कई पाठकों की भावनाएं आहत हुई हैं, हम इसके लिए आपसे क्षमा मांगते हैं और हमने अब इसे अपनी वेबसाईट पर बदल दिया है!”
क्या था मामला?
यह मामला अत्यंत रोचक था क्योंकि इसमें सैद्धांतिक रूप से भावनाएं आहत होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता था क्योंकि हिन्दुओं में पूजा की इतनी पद्धतियाँ हैं कि चित्र को किसी भी पद्धति का प्रमाणित किया जा सकता था या कहें किया भी गया कि वह तंत्र विद्या का चित्र है आदि आदि! परन्तु यह भी बात सत्य है कि जो चित्र प्रचलित हैं, जिन्हें जनता समझती है और जिन्हें आम जन मानस समझता है उन चित्रों का प्रयोग न करके ऐसी विद्या वाले चित्रों का प्रयोग क्यों करना, जिनका अवधारणात्मक स्तर पर विधर्मियों एवं वामपंथियों द्वारा दुरूपयोग हो सकता है? जब माँ का सर्वसुलभ सर्व व्यापक सहज चित्र प्रयोग किया जा सकता है तो जटिल अवधारणा एवं विशेषज्ञों द्वारा ही समझे जाने वाले चित्रों का प्रयोग करने की आवश्यकता क्या होती है?
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने वीक में एक लेख लिखा था, एवं वह लेख माँ काली पर था। उसका शीर्षक था “The fire has seven tongues, and one of these is Kali, writes Bibek Debroy!” और उस लेख में काली माँ की तंत्र आधारित तस्वीर का प्रयोग किया गया था, यद्यपि उन्होंने लेख में लिखा था कि तंत्र में माँ काली का रूप कैसा बताया गया है। जिस चित्र का प्रयोग किया गया, उसे गेटी इमेज द्वारा लिया गया बताया, परन्तु वह किसने बनाया, उसका क्या मत था, आदि जैसे विवरण अनुपलब्ध थे, क्योंकि यदि ऐसा कोई चित्र जो एक विशेष विज्ञान, तंत्र या फिर अवधारणा को प्रस्तुत कर रहा है, उसके चित्रकार का और किस मानसिकता से बनाया गया है, यह जानना अत्यंत आवश्यक है!
हर चित्र का अपना एक सन्दर्भ होता है एवं हर चित्र को सन्दर्भ के अनुसार ही प्रयोग किया जाना चाहिए। परन्तु भारत में वामपंथी ऐसा नहीं करते हैं, वह सहज प्रसंगों के लिए भी ऐसे चित्रण करते हैं, जिनसे पूरे लेख का सन्देश ही परिवर्तित हो जाता है या जिससे लेख पर प्रभाव पड़ता है।
यह भी सत्य है कि लेखक का कार्य मात्र लेख लिखने तक ही होता है, उसके उपरान्त उसमे क्या तस्वीर लगेगी, कैसी तस्वीर पत्रिका द्वारा प्रयोग की जाएगी, इसका अनुमान उसे नहीं होता है और सारा खेल वामपंथी इसी में कर जाते हैं। वामपंथी साहित्यिक पत्रिकाओं में तो यह पता ही नहीं चल पाता है कि जो लिखा है और जो लेखक व्याख्या करने का प्रयास कर रहा है, उसमें और चित्रों में कोई सम्बन्ध है भी या नहीं?
यहाँ तक कि लेखक को भी नहीं पता होता है कि जो रेखाचित्र उसकी कहानी के लिए बने हैं, वह उसकी कहानी के अनुकूल हैं भी या नहीं। अब चूंकि वामपंथी साहित्यिक पत्रिकाओं में प्राय: वन वे ट्रैफिक अर्थात एकतरफा यातायात होता है कि वामपथी लेखक एवं वामपंथी ही पाठक। एवं न ही वह आम जनमानस में पढ़ी जाती हैं, तो उनमें क्या प्रकाशित हो रहा है, पता नहीं चल पाता है।
परन्तु वीक जैसी पत्रिकाओं के साथ ऐसा नहीं है। और यहीं इनका यह छल पकड़ा गया। माँ काली के जिस महत्व पर बिबेक देबरॉय ने लिखा था उसमें माँ के समस्त रूप सम्मिलित थे, मात्र तंत्र वाला ही नहीं, और द वीक ने कांगड़ा शैली का ऐसा चित्र प्रयोग किया, जो कहीं न कहीं उस छवि का नहीं था जिसे आम हिन्दू पूजते हैं, बल्कि यह कहा जा सकता है कि उसे देखकर लोग भड़कते अवश्य! और ऐसा ही हुआ!
क्योंकि जब ऐसे चित्र एक व्यापक विमर्श में आते हैं तो हिन्दुओं के विमर्श की शक्ति को जानबूझकर डायल्युट कर देते हैं क्योंकि जैसे ही आम हिन्दू जनमानस फिल्मों में व्याप्त अश्लीलता का विरोध करने के लिए कुछ लिखता है तो उसके सामने ऐसे चित्र ढाल के लिए प्रस्तुत कर दिए जाते हैं कि “देखो, तुम्हारे धर्म में कैसे होता है!” और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जो यह बोलता है उसका दायरा मात्र देह से आरम्भ होकर देह पर ही समाप्त होता है, उसके लिए “काम” का अर्थ दैहिक इच्छाओं की पूर्ति करना है, “संतुष्टि” प्राप्त करना है, परन्तु कैसी संतुष्टि, यह नहीं पता! “काम” का अर्थ अस्तित्व या आध्यात्मिक हो सकता है, यह अवधारणा न ही वामपंथियों के पास है और न ही अब्राह्मिक मतों में ऐसा कुछ सिद्धांत है!
खजुराहो को मात्र प्रतिमाओं या बुतों के मंदिर समझने का ही दुष्परिणाम यह हुआ था कि दुर्गा माँ को नग्न चित्रित करने वाले एमएफ हुसैन ने यही तर्क दिया था कि उनके यहाँ अर्थात हिन्दुओं में तो अजंता में यही सब तो बना है। अत: यह नितांत आवश्यक है कि यह ध्यान दिया जाए कि जो लिखा गया है उसका सन्दर्भ एवं प्रसंग उसका प्रतिनिधित्व करने वाले चित्र में आ भी पाया है या फिर कुछ खेला हो गया है!
द वीक ने उस लेख में एकदम अनुचित चित्र का प्रयोग किया, और जिसके कारण लोगों में आक्रोश फैला। वरिष्ठ पत्रकार संदीप देव ने सबसे पहले विषय को उठाया और उन्होंने इसे ईश निंदा से जोड़ते हुए प्रश्न किया कि क्या जो कार्यवाही नुपुर शर्मा पर पैगम्बर पर कथित टिप्पणी के कारण हुई, क्या वही कार्यवाही बिबेक देबरॉय के साथ की जाएगी?
जब इसे लेकर जनता में और क्रोध उत्पन्न हुआ तो बिबेक देबरॉय ने भी वीक को आईना दिखाते हुए वीक के साथ अपने सम्बन्ध तोड़ दिए। उन्होंने एक पत्र अपने ट्विटर पर पोस्ट किया और उन्होंने भी वही लिखा कि ऐसे चित्र का प्रयोग उनके लेख में किया गया, जो नहीं करना चाहिए था और उन्होंने कहा कि प्राय: एक स्तंभकार मात्र पाठ तक ही सीमित होता है न कि शीर्षक, और चित्र या लेआउट के साथ। और वीक के साथ भी यही है। यह सभी समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ करती हैं, परन्तु इस प्रक्रिया में मेरा नाम ऐसे चित्र के साथ जुड़ा, जिसे मैंने अनुमोदित नहीं किया था।
फिर उन्होंने लिखा कि
विश्वास का रिश्ता समय के साथ बनता है। इसी विश्वास के कारण मैं कुछ महीने पहले द वीक के नए लोगो का उद्घाटन करने के लिए सहमत हुआ। एक ही कार्य उस भरोसे को एक पल में नष्ट कर सकता है। मुझे यकीन है कि उस विशेष चित्र के कारण आपको नए पाठक मिले होंगे, आपको आर्थिक लाभ हुआ होगा, परन्तु मैं आपको यह भी विश्वास दिलाता हूं कि आपने एक मित्र और शुभचिंतक खो दिया है।
इसलिए, चूंकि मुझे अब द वीक पर भरोसा नहीं है और चूंकि मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि मेरे नियमित कॉलम में कौन से चित्रों का उपयोग किया जाएगा, इसलिए मैं खुद को द वीक से अलग करना चाहूंगा और अब एक स्तंभकार नहीं रहूंगा। शुभकामनाओं के साथ,
यह विषय उतना सीधा नहीं था, क्योंकि इसमें जानबूझकर वामपंथी पत्रिकाओं द्वारा किए गए वह छल सम्मिलित था जो वह इतने वर्षो से करते हुए आए हैं। जिसके चलते वह अश्लीलता को हिन्दू ग्रंथों का अभिन्न भाग बता देते हैं। यह वही छल है जिसके चलते कृष्ण जी के गोपियों के साथ किए गए रास को दैहिक बता दिया जाता है और यह वही छल है जिसके चलते कोई भी हमारे देवी देवताओं को नग्न चित्रित कर देता है यह कहते हुए कि हिन्दुओं में तो कामशास्त्र होता ही है, परन्तु काम को वह मात्र दैहिक या कहें शारीरिक ही देखते हैं।
तो वह जानबूझकर ऐसे चित्रों का प्रयोग करते हैं, जिनके कारण आम लोगों में भ्रम उत्पन्न हों एवं फिर इन चित्रों के माध्यम से हिन्दू धर्म को और अपमानित किया जा सके। इसका सबसे बड़ा उदाहरण एमएफ हुसैन है जिनके चित्रों में मात्र हिन्दू देवियाँ ही मात्र इस धारणा के आधार पर नग्न चित्रित की गयी थीं कि इनके यहाँ अजंता या महाबलीपुरम में यही तो है!
जिस प्रसंग का चित्र इस लेख में द वीक में प्रयोग किया था, वह उस समय का है जब महादेव काली माँ क्रोध शांत करने के लिए उनके मार्ग में लेट गए थे, जब माँ काली ने रक्तबीज एवं उसकी समस्त सेना का विनाश कर दिया था, परन्तु उनके क्रोध शांत नहीं हो पा रहा था, अत: स्वयं महादेव को उनके नीचे लेटना पडा था।
यदि इस प्रसंग के चित्र खोजे जाएं तो बहुत सुन्दर चित्र इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं, परन्तु उन्हें छोड़कर ऐसे चित्र को क्यों चुना गया, यह समझ से परे है!

वीक पत्रिका के विषय में:
द वीक न्यूज पत्रिका की स्थापना वर्ष 1982 में हुई थी और इसे मलयाला मनोरमा समूह द्वारा प्रकाशित किया जाता है। वीक का स्वयं के विषय में यह दावा है कि वह भारत में सबसे ज्यादा सर्कुलेट होने वाली अंग्रेजी पत्रिका है एवं इस समूह का नियंत्रण शक्तिशाली कोट्टायम-आधारित ईसाई व्यवसाय परिवार के हाथों में है जिसके पास एमआरएफ भी है। यह माना जाता है कि यह मीडिया हाउस कांग्रेस का नजदीकी है एवं यह भी कहा जाता है कि वीक ने इसरो रॉकेट वैज्ञानिक नंबी नारायणन के खिलाफ डायन-हंट को सनसनीखेज बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी, जिसके विषय में कई लोगों का मानना है कि वह कांग्रेस के आतंरिक सत्ता संघर्ष से जुड़ा था।