श्रमेव जयते। श्रम की प्रधानता अनिवार्य है। श्रम की प्रधानता और समृद्धि के बिना जीवंत राष्ट्र की परिकल्पना नहीं हो सकती है। श्रम की कसौटी पर निर्माण और विकास की परिकल्पना बनती है। इसलिए श्रम की महत्ता और अनिवार्यता को अस्वीकार करना मुश्किल है। इनकी उपेक्षा और इन पर उदासीनता अस्वीकार है। सरकार की ही नहीं बल्कि नियोक्ता और सेवाप्रदात्ताओं की जिम्मेदारी भी स्वस्थ और समृद्ध श्रम संसाद की बनती है। यह अच्छी और स्वागतपूर्ण कदम है कि नरेन्द्र मोदी ने मजदूरों की तस्वीर बदलने की गारंटी दी है, उनकी आजीविका के अधिकार को सशक्त बनाया है, उनके होने वाले शोषण और उत्पीड़न पर रोक लगाने की व्यवस्था की है और भेदभाव की नीतियों को समाप्त करने की घोषणा की है, यानी की श्रमेव जयते। इस निमित नरेन्द्र मोदी की सरकार ने चार नये श्रम संहिताओं की घोषणा की है। इन श्रम संहिताओं की घोषणा से लगभग 30 साल के श्रम काले कानूनों को समाप्त कर दिया गया है, जो काफी समय से प्रस्तावित और प्रत्याशित थे। चार नये श्रम संहिताओं को इस प्रकार से जानिये। पहला वेज कोड 2019, इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड 2020 सोशल सिक्योरिटी कोड 2020 और आॅक्यूपेशनल सेल्फी हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशंस कोड 2020 में परिवर्तन कर दिया गया है। इससे मजदूरों के वेतन और सुरक्षा अधिकारों में बहुत ज्यादा परिर्वतन होगा और लाभकारी भी होगा।
नये श्रम संहिताओं में मजदूरों के सभी प्रकार के अधिकारों और कल्याण की भावनाओं को निहित किया गया है। औद्योगिकीकरण और कारपोरेटिवकरण तथा रोजगार और श्रम के नये आयामों के उदभव और विकास के कारण मजदूरों के सामने विकट समस्या उत्पन्न हो गयी थी, निवेशकों के सामने भी बहुत बडी समस्या थी, पूर्व की श्रम संहिताएं अस्पष्ट थी और विसंगतियों से भरी पडी थी, नियोक्ता और श्रमिकों के बीच अविश्वास उत्पन्न करती थी, अधिकारों को लेकर संहिताएं स्पष्ट भी नहीं थी। न्यूनतम वेतनमान में हीलाहवाली थी, असमानता थी और शोषण युक्त था। नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने से सर्वाधिक शोषण के शिकार मजदूर थे और उनके हित हाशिये पर थे, उनके आंदोलन करने के अधिकार और कर्तव्य पर नियोक्ता, पुलिस और प्रशासन की टेढी नजर रहने लगी थी। आमधारणा ऐसी बन गयी थी कि श्रमिक संगठनों की दादागिरी और हडताल की मानसिकताएं औद्योगिककरण और विकास की संभावनाओं को कुचलती हैं, कब्र बनाती हैं।
भारत की ये श्रम संहिताएं विश्व की अन्य संहिताओं के अनुपात में कितना लाभकारी है, कितना सहयोगी हैं और कितना कल्याणकारी हैं? विश्व व्यापार संगठन के उदय और विस्तार के बाद यह धारणा फैलायी गयी कि श्रम अधिकारों को संशोधित किया जाना चाहिए, श्रम अधिकारों को औद्योगिकीकरण के रास्ते में रोडा नहीं बनने दिया जाना चाहिए। जहां भी श्रम अधिकार मजबूत है और नियोक्ताओं के लिए बई बाध्यकारी समीकरणों को मानने के लिए आदेशात्मक हैं वहां परिवर्तन और संशोधन की आवश्यकता है। खासकर अमेरिका और यूरोप के श्रम कानून और श्रम कल्याणकारी नीतियां श्रमपक्षी थी और श्रम का सम्मान करने वाली थी। यही कारण था कि अमेरिका और यूरोप की औद्योगिक और कारपोरेट इंकाइयो ने सस्से श्रम की खोज करने की कोशिश की थी। कहने का अर्थ है कि जहां सस्ता श्रम होगा, जहां श्रमिक कानून उदासीन और लचीले होंगे वहां पर औद्योगिक इंकाइयां और कारपोरेटेड संस्थानाएं फायदे में रहेगी। इसी दृष्टिकोण चीन और दक्षिण कोरिया ही नहीं बल्कि लैटिन अमेरिका के देशों में नयी औद्योगिक क्रांति हुई, खासकर चीन दुनिया के लिए लाभकारी देश के रूप में पहचान बनायी। दुनिया भर की औद्यागिक इंकाइयां चीन की ओर दौड लगायी। चीन ने दुनिया की औद्यागिक इंकाइयों को अपनी ओर खींचने के लिए श्रम कानूनों का कब्र खोद डाली। श्रमिकों के अधिकार को प्रतिबंधित कर दिया गया। श्रमिकों की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया गया। हायर एंड फायर नामक काले श्रम कानूनों की रचना हुई। हायर एंड फायर श्रम कानून नियोक्ताओं के असीमित अधिकार देते हैं। कोई भी नियोक्ता किसी श्रमिक को नौकरी दे सकता है, रोजगार दे सकता है और जब चाहे उसे नौकरी से निकाल सकता है। इस काले कानून से श्रमिकों के लिए कल्याणकारी अहर्ताएं समाप्त कर दी गयी थी।
चीन की तरह भारत में हायर और फायर जैसे काले श्रम काननों की नींव तो नहीं पडी पर औद्योगिक और कारपोरेटेड तथा सेवा के क्षेत्र में नियोक्ताओं की दादागिरी और तानाशाही बढ गयी। श्रम न्यायालयों की उदासीनता बढ गयी, पुलिस और प्रषासन के साथ ही साथ सरकारों की भी उदासीनता और उनकी श्रम विरोधी नीतियां और भावनाएं भी प्रबल हो गयी। गुडगांव में श्रमिकों द्वारा मारूति सुजूकी के महाप्रबंधक अवनीश कुमार देव की हत्या प्रकरण का उल्लेख करना यहां अनिवार्य है। गुडगाव के मारूति सुजूकी फैक्टरी के अंदर श्रमिकों का आक्रोश बढता है, उनका शोषण होता है, उनके अधिकारों का दमन होता है फिर मजदूरों में आंदोलन की भावना जगती है। वेतन, भत्ते और स्वतंत्र मजदूर संगठन बनाने की उनकी मांगें मारूति सुजूकी प्रबंधन अमान्य कर देती है, श्रमायुक्त के यहां से भी उन्हें न्याय नहीं मिलता है। फिर मजदूरों और मारूति सुजूकी प्रबंधन के बीच तलवारें खंीच जाती है। मजदूरों की हिंसा होती है और हजारों मजदूरों ने फैक्टरी प्रबंधकों को बंधक बना देते हैं और मारूति सुजूकी के महाप्रबंधक की हत्या कर देते हैं। मारूति सुजूकी प्रबंधक के महाप्रबंधक की हत्या एक अमानवीय कृत्य था और भारत के श्रम इतिहास में यह घटना कंलकित समान थी। लेकिन इसके लिए सिर्फ मजदूर संगठन ही जिम्मेदार नहीं थे बल्कि इसके लिए सरकार की उदासीन नीतियां भी जिम्मेदार थी। इस घटना से सैकडों मजदूरों की रोजी-रोटी छिनी जाती है और दर्जनों मजदूरों को जेलों में सडना पडा था। कभी फैक्टरियों और खानों में मजदूर यूनियनें बहुत मजबूत होती थी और मजदूरों के हितों की लडाइ्र्र लडती थी पर उदारीकरण के बाद मजदूर यूनियनें कमजोर पड गयी और मजदूर यूनियनों पर फैक्टरियों और अन्य सेवादाता कंपनियों की कुल्हाडी जोर से चलने लगी। श्रम अदालतें बैमानी साबित हो गयी, श्रम मुकदमों का स्वतंत्र निस्तारण की उम्मीद बेकार हो गयी।
नरेन्द्र मोदी की सरकार के उदय के बाद मजदूरों के हितों के लिए सकारात्मक पहल की शुरूआत हुई। पूर्व की सरकारों की तरह ही नरेन्द्र मोदी की सरकार पर भी दबाव कम नहीं था। विश्व की शक्तियां श्रम कानूनों को और भी लचीला बनाने के लिए दबाव डाल रही थी। विश्व शक्तियां कह रही थी कि श्रम कानूनों को उदार बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है, अगर भारत अपने श्रम कानूनों को उदार नहीं बनाता है तो फिर निवेश की उम्मीद नहीं बन सकती है। निवेशक निवेश करने के लिए श्रम कानूनों की मजबूती और अनिवार्यता को देखते हैं। अगर भारत अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करनपा चाहता है और निवेश के मसले पर चीन को पीछे छोडना चाहता है तो फिर श्रम कानूनों को और भी लचीला बनाना होगा। प्रशंसा हमें नरेन्द्र मोदी की सरकार की करनी चाहिए। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने विदेशी शक्तियों के इस इच्छा की पूर्ति करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी, कोई अतिरिक्त उत्साह नहीं दिखाया। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने नियोक्ताओं के साथ ही साथ मजदूरों के अधिकार और कल्याण की योजनाओं के बीच सांमजस्य बनाने पर जोर दिया। कहने का अर्थ यह है कि नियोक्ता और श्रमिकों के अधिकारों के बीच सामंजस्य बैठाने का काम किया गया, जोे सार्थक और न्यायप्रिय भी है।
कमजोर वर्ग की सामाजिक सुरक्षा अपेक्षित है। नयी श्रम संहिताओं में मजदूरों की सामाजिक सुरक्षिा निहित है। ईएसआईसी और बीमा का अधिकार मिलता है। श्रम नियोक्ताओं के लिए समय पर वेतन भुगतान देना अनिवार्य कर दिया गया है। नियुक्ति पत्र देने की बाध्यता भी होगी। पहले नियोक्ता नियुक्ति पत्र देते नहीं थे और अपनी इच्छा के अनुसार नौकरी से बर्खास्त कर देते थे, निकाल बाहर कर देते थे। चालीस साल से अधिक आयु के श्रमिकों के लिए वार्षिक स्वास्थ्य परीक्षण भी निशुल्क होगा। महिलाओं को पुरूषों के समान वेतन मिलेगा, महिला श्रमिकों के साथ भेदभाव करने की छूट नहीं होगी। महिला श्रमिकों को जरूरी छुट्टियां और सहायता भी जरूरी होगा। ठेका हथकंडा पर रोक लगेगा। बहुत सारी औद्योगिक कंपनियां और सेवादाता कंपनियां ठेके पर कार्य देकर अपनी जिम्मेदारियांें से मुक्त हो जाती है। अब ठेकेदार कपंनियां भी उसी तरह की श्रमिक दायित्वों को पूरा करने के लिए बाध्य होगी जिस प्रकार से औद्योगिक और कारपोरेटेड कंपनियां के अनिवार्य जिम्मेदारी है। नयी श्रमिक संहिताएं श्रमिकों के कल्याण और उनकी सुरक्षा के लिए बेमिसाल तो हैं पर नियोक्ताओं और सेवादाता कंपनियों के बीच भी श्रम कानूनों को लेकर विश्वास उत्पन्न करने की आवश्यकता है। उम्मीद है कि नरेन्द्र मोदी सरकार श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच विश्वास और संतुलन बनाने की भूमिका निभायेगी।
— आचार्य श्रीहरि
