कश्मीर फाइल्स को लेकर एक बार फिर से विवाद हो रहा है। वैसे यह विवाद शुभ है, और यह इसलिए शुभ है क्योंकि इसके कारण एक बार फिर से कश्मीरी पंडितों की वह दुर्दशा सामने आ रही है, जो कहीं दब गयी थी। फिर से वह विमर्श सामने आ गया है जिसे दबाए जाने का प्रयास हो रहा था। कश्मीर फाइल्स ने कथित धर्मनिरपेक्षता के विमर्श को धागे धागे तक उधेड़ दिया था और यह तक स्थापित कर दिया था कि आखिर मीडिया की इस पूरे रक्तपात के दौर के समय भूमिका कितनी संदिग्ध रही थी।
ऐसा नहीं है कि मीडिया में लोगों को कुछ पता नहीं है, बल्कि उन्हें तो हर षड्यंत्र पता है। फिर ऐसा क्या हुआ कि जैसे ही आईएफएफआई के अध्यक्ष एवं इजरायल के फिल्म निर्माता ने कश्मीर फाइल्स को अश्लील बताया, वैसे ही टूलकिट गैंग सक्रिय हो गया।
वह पूरा का पूरा गैंग, जो कश्मीर फाइल्स की अप्रत्याशित सफलता से चिढ़ा हुआ बैठा था, वह एकदम से इस वक्तव्य के पक्ष में उतर आया। उन्हें कश्मीरी पंडितों के उस दर्द से कोई मतलब नहीं है, उन्हें उस पीड़ा से कोई मतलब नहीं है, उन्हें उस पलायन से कोई मतलब नहीं है, जो कश्मीरी पंडितों ने झेली थी। उन्हें इससे कोई मतलब है ही नहीं कि कश्मीर में न जाने कितनी सदियों से यह अत्याचार जारी है।
यह पलायन चल रहा है। हाँ उन्हें इससे अवश्य मतलब था कि यह सत्य कहीं बाहर न निकल कर जनता के बीच पहुँच जाए। कहीं जो मीडिया और राजनीतिक गठजोड़ था, वह आम जनता को पता न लग जाए। एक प्रकार का साहित्यिक वर्ग था, उसने यह पूरा प्रयास किया कि कश्मीर से जुड़ी हुई पीडाओं की कहानियों का विमर्श साहित्य का विमर्श न बन जाए, उसने यह प्रयास किया कि कोई भी पीड़ा आम जनमानस तक पहुँच न पाए। कश्मीरी पीड़ाओं को हिन्दू पीड़ाओं से पूरी तरह से अलग करने का पूरा प्रयास किया गया। रचनाओं को रोका गया।
परन्तु विमर्श कहाँ मरता है, विमर्श एकत्र होता रहा, पीड़ाएं एकत्र होती रहीं और आज लोग कश्मीर में उस दौरान हुई हिंसा को पहचानते हैं, उस पर बात करते हैं, एवं प्रश्न उठाते हैं उस विमर्श पर कि आखिर उन तक कहानियां आई क्यों नहीं? आखिर वह क्या कारण रहे थे कि पूरा का पूरा कथित लिबरल खेमा नदव लापिड के वक्तव्य का समर्थन करने के लिए आगे आ गया?
नदव लापिड ने जो कहा वह तो कहा ही, क्योंकि उनका राजनीतिक विचार यही कहता है। यद्यपि वह इजरायल से हैं, परन्तु वह इजरायल में रहते हुए भी वह इजरायल की नीतियों के विरोधी हैं। वह इजरायल को भी कोस चुके हैं। और वह पूरी तरह से लिबरल है। सोशल मीडिया पर उनके पुराने विचारों को भी लोग बता रहे हैं।
अभिजीत मजूमदार ने ट्विटर पर लिखा कि क्या सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में किसी ने भी नदव लापिड के बारे में जानकारी नहीं जुटाई थी? क्या उन्हें यह नहीं पता था कि वह तो खुद ही अपने देश का वोक देशद्रोही है?
यही बात समझ से परे है कि आखिर ऐसे लोगों को क्यों ऐसे आयोजनों में आमंत्रित कर लिया जाता है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पीड़ा को नकारना दो अलग अलग बातें हैं। यदि भारत सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर नदव लापिड को आमंत्रित किया गया था तो क्या यह नदव लापिड की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता है कि वह हिन्दुओं की इतनी बड़ी पीड़ा को प्रोपोगैंडा कह दें?
परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न तो सूचना एवं प्रसारण मंत्री पर उठता है कि आखिर उनका मंत्रालय ऐसे किसी भी व्यक्ति को कैसे आमंत्रित कर सकता है जो अपने ही देश की नीतियों के खिलाफ है? सोशल मीडिया में लोगों ने प्रश्न उठाते हुए पूछा कि आखिर अनुराग ठाकुर बार बार वोक लोगों को कैसे बुला सकते हैं?
यहाँ तक कि कई यूजर्स ने अनुराग ठाकुर की चुप्पी पर प्रश्न उठाए। शेफाली वैद्य ने भी यह प्रश्न उठाते हुए कहा कि आखिर अनुराग ठाकुर ने इतने बड़े अपमान पर केवल इजरायली डिप्लोमैट के ट्वीट्स को रीट्वीट ही किया है, मगर आपका वक्तव्य कहाँ है?
सबसे बड़ा प्रश्न तो यही उठता है कि आखिर जब लोगों को आमंत्रण भेजे जाते हैं तो क्या यह जांच नहीं की जानी चाहिए कि आखिर जिसे बुलाया जा रहा है उसके राजनीतिक विचार क्या हैं? उसके अपने देश के प्रति विचार क्या हैं?
यद्यपि इजरायल के एम्बेसडर की ओर से नदव लापिड को इस प्रकार के अनावश्यक वक्तव्य के लिए जमकर लताड़ भी लगाई गयी एवं उन्होंने कहा कि नदव को खुद पर शर्म आनी चाहिए
इसके साथ ही ज्यूरी के शेष सदस्यों ने नदव के बयान से खुद को अलग कर लिया। सुदीप्तो सेन ने ट्विटर पर बयान जारी करते हुए लिखा कि जो भी नदव लापिड ने कश्मीर फाइल्स के लिए मंच से कहा, वह उनका ही व्यक्तिगत विचार था और इसका ज्यूरी बोर्ड से कोई भी लेना देना नहीं है
इस विषय में आनंद रंगनाथन ने भी ट्वीट करते हुए कहा कि जब भी नाजियों द्वारा ज्यूइश जीनोसाइड को नकारने की बात होती है तो यह 18 देशों में अपराध है, ऑस्ट्रिया में तो आपको १० वर्षों के लिए जेल में डाला जा सकता है, परन्तु भारत में आप कश्मीरी पंडितों के जीनोसाइड को नकारने वाले का स्वागत ही नहीं करते हैं, बल्कि उन्हें सेलीब्रेट भी करते हैं
भारत में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई है। जहाँ स्पष्ट है कि वोक और लिबरल इस नदव केपक्ष में लामबंद हो रहे हैं, तो वहीं विवेक अग्निहोत्री के पक्ष में कई लोग आ रहे हैं। जावेद बेग ने लिखा कि वह एक कश्मीरी मुस्लिम हैं और कश्मीर फाइल्स मूवी वल्गर प्रोपोगैंडा नहें थी, बल्कि वह सच्चाई थी
नदव का यह बयान दरअसल उस अंतर्राष्ट्रीय विमर्श की खीज है, जिसे मात्र एक छोटे बजट की फिल्म ने तार तार कर दिया है। यह फिल्म बताती है कि जीनोसाइड केवल एक बार नहीं हुआ, बल्कि यह हर स्तर पर लगातार होता रहा।
इसी बीच विवेक अग्निहोत्री ने वीडियो साझा करके कहा है कि आतंकी समर्थक एवं जीनोसाइड को नकारने वाले कभी भी उन्हें चुप नहीं करा पाएंगे
यह खीज इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि इसके बाद अब पुन: विमर्श आरम्भ होगा, पुन: यह विमर्श आरम्भ होगा कि जिस जीनोसाइड की बात पश्चिम ने बाद में जानी वह तो कश्मीरी विद्वान जोनराजा पहले ही लिखकर जा चुके हैं।
यह उस हार की खीज है! जोनराज और जीनोसाइड विमर्श पर हम अगले लेख में लिखेंगे। परन्तु यह बात सत्य है कि सत्य की मात्र एक ही किरण झूठ के विमर्श को पराजित कर देती है और यही कश्मीर फाइल्स ने किया है और नदव के बहाने यह बौखलाहट बहुत ही भयानक बौखलाहट है जो अभी और बढ़ने वाली है!