भारत की आज़ादी की लड़ाई में अगर किसी नाम ने युवाओं के दिलों में सबसे गहरी छाप छोड़ी तो वह नाम है शहीद-ए-आज़म भगत सिंह। 27 सितंबर 1907 को जन्मे भगत सिंह ने अपने छोटे से जीवन में जो बलिदान और साहस दिखाया, उसने उन्हें हमेशा के लिए अमर कर दिया। आज उनकी जयंती पर देश फिर से उस युवा क्रांतिकारी को याद कर रहा है जिसने ब्रिटिश हुकूमत को सीधी चुनौती दी थी।
भगत सिंह का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो पहले से ही आज़ादी की लड़ाई से जुड़ा था। उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलनों में सक्रिय थे। यही कारण था कि भगत सिंह के मन में बचपन से ही देश को गुलामी से मुक्त कराने का सपना पलने लगा। 13 साल की उम्र में उन्होंने जलियांवाला बाग का खून से सना मैदान देखा, जिसने उनके भीतर अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश भर दिया।
जैसे-जैसे भगत सिंह बड़े हुए, उन्होंने महसूस किया कि केवल शांतिपूर्ण तरीके से अंग्रेजों को देश से बाहर निकालना मुश्किल है। इसलिए उन्होंने क्रांतिकारी रास्ता चुना। वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) से जुड़े और साथी क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाने की योजनाएं बनाने लगे।
1928 में जब साइमन कमीशन के खिलाफ लाहौर में प्रदर्शन हुआ तो अंग्रेज पुलिस अफसर सांडर्स की लाठीचार्ज से लाला लाजपत राय की मौत हो गई। इस घटना ने भगत सिंह को झकझोर दिया। उन्होंने राजगुरु और सुखदेव के साथ मिलकर लाहौर में सांडर्स को गोली मारकर इसका बदला लिया। यह कदम उनके क्रांतिकारी आंदोलन का बड़ा मोड़ बना।
भगत सिंह का मानना था कि अंग्रेजों को सिर्फ बंदूक से नहीं बल्कि अपनी आवाज से भी चुनौती देना जरूरी है। इसी सोच के तहत उन्होंने 1929 में बटुकेश्वर दत्त के साथ दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में बम फेंका। यह बम मारने के लिए नहीं बल्कि अंग्रेजों को जगाने के लिए था। बम फेंकने के बाद उन्होंने खुद गिरफ्तारी दी और अदालत में अपने विचार रखे।
मुकदमे के दौरान भगत सिंह ने अपने क्रांतिकारी विचार खुले तौर पर रखे। उन्होंने कहा कि “क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।” उनकी बातें आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा हैं। उन्होंने अंग्रेजों के कानून और व्यवस्था पर तीखा प्रहार किया और देश को बताया कि असली आज़ादी बिना संघर्ष के नहीं मिलेगी।

23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर जेल में फांसी दी गई। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 23 साल थी। फांसी से पहले उनका चेहरा मुस्कराता रहा। उन्होंने मौत को मात देकर यह संदेश दिया कि आज़ादी की लड़ाई जीवन से भी बड़ी है।
भगत सिंह सिर्फ एक क्रांतिकारी नहीं बल्कि विचारक भी थे। वह चाहते थे कि भारत में सामाजिक न्याय और समानता कायम हो। आज जब हम उनकी जयंती मना रहे हैं तो यह सोचना जरूरी है कि क्या हमने उनके सपनों का भारत बनाया है। भगत सिंह का जीवन हमें सिखाता है कि देश के लिए त्याग और संघर्ष ही असली राष्ट्रभक्ति है।
भगत सिंह भले ही अंग्रेजों की जेल में फांसी पर चढ़ गए हों, लेकिन उनके विचार आज भी जिंदा हैं। वह हर उस भारतीय के दिल में बसते हैं जो देश को सबसे ऊपर रखता है। उनकी जयंती सिर्फ याद करने का दिन नहीं, बल्कि उनके विचारों को जीवन में उतारने का संकल्प लेने का अवसर है।