सामान्य रूप से हमारे देश में ऐसा माना जाता है कि विश्व मे खेले जाने वाले अधिकतर प्रसिद्ध खेलों का प्रारंभ, पश्चिम के देशों में, विशेषतः युरोप मे हुआ है। वही पर ये खेल विकसित भी हुए। प्राचीन काल मे ग्रीस मे ओलंपिक खेलों के आरंभ के साथ ही, खेल जगत के इतिहास का प्रारंभ हुआ।
किंतु अनेक लोगों को यह पता ही नही हैं कि विश्व का सबसे पहला, सबसे प्राचीन स्टेडियम भारत मे मिला है।
जी हां, विश्व का सबसे प्राचीन स्टेडियम भारत मे है। गुजरात के कच्छ मे, ‘खादीर’ इस द्वीपनुमा स्थान पर ‘धोलावीरा’ मे जब 1968 मे उत्खनन हुआ, तब यह सत्य सामने आया। वर्तमान मे यह ‘धोलावीरा’, युनेस्को के संरक्षित स्मारकों की सूची में है। इसकी विशेषता यह है कि यह कर्क रेखा पर स्थित है। धोलावीरा की नगर रचना देखकर इक्कीसवी शताब्दी के अनेक नगर रचनाकार भी आश्चर्यचकित हुए है।
उत्खनन मे मिले इस ‘धोलावीरा’ मे एक नही, दो स्टेडियम मिले है। इनमे से बडा स्टेडियम, 1 लाख 65 हजार स्क्वेअर फीट का है. इसकी क्षमता दस हजार से ज्यादा दर्शकों की है। इसमे दर्शक दीर्घा भी बनाई गई है, जिससे दर्शक आराम से मैदान पर चल रहे खेलों को देख सके।
ग्रीस मे ऑलिंपिक का प्रारंभ हुआ, इसा से पहले 776 वर्ष। परंतु उससे भी लगभग तीन हजार वर्ष पहले, अर्थात आज से 5,500 वर्ष पूर्व, भारत मे बडे पैमाने पर, सार्वजनिक रूप से अनेक खेल खेले जाते थे। धोलावीरा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, प्रमाण हैं।
हमारे पूर्वजोंने अपनी जो जीवनशैली विकसित की थी, जो जीवनक्रम बनाया था, वह सर्वांगीण विकास का था। इसीलिए विज्ञान, शस्त्र और शास्त्र के साथ कला को भी प्राधान्य था। मनुष्य का सर्वांगीण विकास होने के लिए, शरीर और मन, दोनो सुदृढ होने चाहिये, यह हमारे पुरखों को अच्छी तरह से पता था।इसीलिए उस समय मल्लयुद्ध (कुश्ती), रथों की प्रतियोगिताएं, घुडदौड, धनुर्विद्या (आज की भाषा मे ‘आर्चरी’) की प्रतियोगिताओं और खेलों के साथ ही, मानसिक एकाग्रता बढाने के लिए अनेक बैठे – बैठे खेलने वाले खेल (indoor games) भी होते थे।
विश्व मे सबसे ज्यादा प्रचलित और लोकप्रिय, बैठकर खेलने वाले दो इनडोअर खेलों का उद्गम भारत मे हुआ हैं। ये खेल हैं, शतरंज (चेस) और लुडो.
जी हां..! ये दोनो खेल पाश्चात्य नही है। बिलकुल असली भारतीय खेल है। लूडो यह खेल, आजकल युवाओं मे ट्रेंडी है। आज के डिजिटल युग मे सर्वाधिक खेला जानेवाला यह बोर्ड गेम है। यह ऑनलाईन खेले जाने के कारण विदेशो मे रहने वाले मित्रों के साथ भी खेला जाता है। विशेष रुप से कोरोना काल मे, लाॅकडाउन के बाद, इस खेल की जबरदस्त मांग है।
‘लूडो’ यह इस खेल का असली नाम नही है। पचीसी या चौसर / चौपड नाम से यह खेल हजारो सालों से भारत मे खेला जा रहा है। महाभारत मे कौरव और पांडवों मे जो द्युत हुआ था, वह भी इसी खेल के माध्यम से। अर्थात, प्राचीन काल मे यह खेल, ‘जुआ’ के रुप मे ही खेलते थे, ऐसा नही हैं। सामान्य लोग भी मनोरंजन के लिए यह खेल खेलते थे। लेकिन कई बार राज परिवारों मे जुआ खेलने के लिए चौसर / पचीसी का उपयोग होता था।
यह खेल कब से खेला जा रहा है, यह बताना कठीन है। महाभारत मे इसका उल्लेख जरूर आता है। परंतु विगत चार-पाच हजार वर्षों मे, अनेक ग्रंथो में, पचीसी / चौसर का उल्लेख है। हडप्पा और मोहन-जो-दडो के उत्खनन मे, पचीसी / चौसर खेलने के लिए जो पांसे लगते हैं, वह पांसे मिले है।
ऋग्वेद और अथर्ववेद मे भी चौसर जैसे खेलों का और उसे खेलने के लिए लगने वाले पांसो का उल्लेख मिलता हैं। वेरुळ (एलोरा) की गुफाएं, छठवी से आठवी शताब्दी मे निर्माण हुई हैं। इनमे से उनतीस नंबर की गुफा मे ‘भगवान शंकर और पार्वती चौसर खेल रहे हैं’, ऐसा दृश्य उकेरा गया है।
चीन के सॉंग राज परिवार के (वर्ष 970 से 1279) कागज पत्रों मे स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि, चिनी खेल ‘चुपू’ (अर्थात अपना चौसर / पचीसी) का उद्गम पश्चिम भारत मे हुआ है। वर्ष 220 से 265, इस कालखंड मे चीन पर ‘वी’ नाम के राज परिवार की सत्ता थी। इसी समय यह खेल भारत से चीन मे आया और लोकप्रिय हुआ। इस खेल का पट, जिस पर खेल खेला जाता हैं, कपडे से बनता था। इस कपडे पर, खेलने के लिए, सुंदर नक्काशी बनाते थे। कम से कम दो और अधिकतम चार लोग यह खेल खेल सकते थे। प्रारंभिक अवस्था मे इस खेल को खेलने के लिए कौडियों का उपयोग किया जाता था। बाद मे पांसोंका चलन बढता गया।
वर्ष 1818 मे अंग्रेजों का राज, भारत के अधिकांश भूभाग पर कायम होने के बाद, अनेक अंग्रेज अधिकारी, भारतीयों की रुढी – परंपराएं समझने के लिए प्रयास करने लगे। उस समय उनको भारतीयों के पचीसी / चौसर इस खेल की जानकारी मिली। भारत मे रहने वाले अंग्रेज अधिकारी यह खेल खेलने लगे। धीरे – धीरे यह खेल इंग्लंड मे पहुंचा। वर्ष 1896 मे इस खेल का अंग्रेजी नाम ‘लूडो’ रखा गया। लूडो का लॅटिन भाषा मे अर्थ, ‘आय प्ले’ ऐसा होता है। और आज यह खेल, पूरी दुनिया मे ‘लूडो’ नाम से ही लोकप्रिय हुआ है।
शतरंज (चेस)
आज दुनिया मे प्रचलित जो ‘शतरंज’ खेल है, वह निर्विवाद रूप से भारत का है। सामान्यतौर पर हम लोग, अंग्रेजों ने यदी कोई बात की होगी, तो उस बात पर आंख बंद करके विश्वास कर लेते है। इसलिये इस विषय से संबंधित अंग्रेजी संदर्भ देखते है –
‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ यह मूलतः अंग्रेजो ने प्रारंभ किया हुआ समाचार पत्र हैं। इसके बुधवार, दिनांक 28 जुलै 1940 के अंक के संपादकीय में लिखा है, ‘According to Sir William Jones, the first President of Royal Bengal Aisatic Society, it was in India, that Chess first originated and developed. The latest discovery appears to fortyfy the theory.’
_(रॉयल बंगाल एशियाटिक सोसायटी के पहिले अध्यक्ष, सर विल्यम जॉन के अनुसार, भारत मे ही चेस का उद्गम हुआ और वह विकसित हुआ। नए शोध के अनुसार, इस विधान का महत्व स्पष्ट होता है।)_
टाईम्स ऑफ इंडिया के इस संपादकीय में जिस सर विल्यम जोन का उल्लेख हैं, वे सज्जन वर्ष 1783 से 1789 तक, कलकत्ता हायकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। वे स्वयम् संस्कृत और भारतीय संस्कृती के प्रगाढ अभ्यासक थे।
प्रोफेसर डंकन फोर्ब्स (28 अप्रैल 1798 से 17 अगस्त 1868) यह स्कॉटिश सज्जन, भाषाशास्त्रज्ञ और पौर्वात्य विषयों के तज्ञ के रूप मे जाने जाते थे। 1823 मे वह कलकत्ता अकादमी मे जॉईन हुए, और तीन वर्ष तक वे वहां थे। उनका भारतीय संस्कृती का गहन अध्ययन था। आगे चलकर जब वह इंग्लंड मे गए, तब उन्होने एक पुस्तक प्रकाशित की – ‘हिस्टरी ऑफ चेस’ (शतरंज का इतिहास). इस ग्रंथ मे उन्होने, ‘शतरंज का उद्गम भारत मे ही हुआ है, और साधारणतः दोन से तीन हजार वर्षों से यह खेल भारत मे खेला जा रहा हैं’, ऐसा अनेक प्रमाणों के साथ प्रतिपादित किया।
परंतु उसके बाद, इस संदर्भ मे जो शोध हुए उनमे, यह खेल चार से पांच हजार वर्ष पुराना होगा, ऐसा निर्णय शोधकर्ताओं ने दिया। शतरंज का पुराना नाम ‘अष्टपद’ था. बादमे उसे ‘चतुरंग’ कहने लगे।
‘शूलपाणी’ नाम के एक बंगाली विद्वान थे। उन्होंने पंद्रहवी शताब्दी मे लिखे हुए ‘चतुरंग दीपिका ‘ इस ग्रंथ मे, शतरंज जिससे निर्माण हुआ, ऐसे ‘चतुरंग’ का विस्तार से वर्णन किया है। इस ग्रंथ मे दी हुई जानकारी के अनुसार, ‘चतुरंग’ का पहले का नाम ‘अष्टपद’ था। इस अष्टपदका उल्लेख, हिनायन बुद्ध साहित्य मे इसा पूर्व 500 वर्ष, (अर्थात आजसे ढाई हजार वर्ष पूर्व) मे मिलता है. ‘ब्रह्मजाल सूत्त’ और ‘विनय पिटका’ इन ग्रंथों मे भी इसका उल्लेख आता है। इसा पूर्व 300 वर्ष मे गोविंद राजने लिखे हुए रामायण के बाल कांड मे अष्टपदका उल्लेख है।
वर्ष 200 मे लिखे हुए हरिवंश मे अष्टपदका श्लोक है –
_स रामकरमुक्तेन निहतो द्युत मंडले।_
_अष्टापदेन बलवान राजा वज्रधरोपमः।।_
(दुसरा अध्याय 61 / 54)
यह खेल बहुत पहले द्युत के रूप में खेला जाता था। ‘अश्विन माह की पूर्णिमा की रात मे ‘अष्टपद’ खेलने से धनलाभ होता है’, ऐसे माना जाता था। इसे ‘चतुरंग बल’ भी कहते थे। इसमे ‘बल’ यह शब्द, ‘खेलने की गोटी’ के रूप मे कहा गया है। इसमे पांसे का उपयोग किया जाता था। अर्थात, खेलने वाले के ‘नसीब’ का हिस्सा अधिक होता था। बादमे पांसे का उपयोग बंद हुआ। अब यह खेल पूर्ण रूप से ‘बुद्धी’ के आधार पर खेला जाता हैं।
शतरंज पर एक पुस्तक खूब चलती है – ‘द लॉज अँड प्रॅक्टिसेस ऑफ चेस’। हॉवर्ड स्टुंटन (Howard Staunton) ने इसमे शतरंज खेल के नियम और विशेषताएं विस्तार से बताई है। इस पुस्तक के पृष्ठ 5 पर उन्होने लिखा है, ‘हिंदूओंका यह खेल अरबस्तान जिस रुप में पहले गया, उसके पहले अनिश्चित काल मे हिंदूओंने ही इसका रूपांतर किया था।’
ऐसे माना जाता है कि, ‘चतुरंग’ की रचना रावण की पत्नी मंदोदरीने की है। ऐसा भी माना जाता है की हिंदुस्तान पर आक्रमण करने वाली, सीरिया देश की रानी ‘सेमिरामिस’ ने, इस खेल के सबसे बलशाली प्रधान को (बादमे यह वजीर कहलाया जाने लगा) ‘रानी’ बनाया, तबसे, पाश्चात्य देशो मे प्रधान (वजीर), यह ‘रानी’ (क्वीन) बन गया।
पहले यह खेल चार लोग मिलकर खेलते हैं, इसलिये केवल इसे ‘चतुरंग’ नही कहा जाता है, तो इस खेल मे प्रधान (वजीर या क्वीन), हाथी, घोडे और पैदल सेना रहती हैं, अर्थात ‘चतुरंग सेना’ होती हैं, इसलिये भी इसे चतुरंग कहा जाता था।
शतरंज का कालानुक्रमसे सफर ऐसा रहा हैं –
- अष्टपद, चतुरंग का काल – पुराण काल से लेकर इसवी सन की पाचवी सदी तक।
- शतरंज के उत्क्रमण का काल – इसवी सन की पाचवी सदी से पंद्रहवी सदी तक, लगबग 1,000 वर्ष।
- शतरंज के आधुनिक स्वरूप का काल – इसनी सन की पंद्रहवी सदी से अठारहवी सदी के अंत तक, चार सौ वर्षों का कालखंड।
- अब तक का काल – युरोपियन शास्त्रीय पद्धती का कालखंड, इसमे ‘चेस’ यह नाम दुनिया मे लोकप्रिय हुआ।
पुणे मे उत्तर पेशवाई मे पेशवा बाजीराव (दुसरा) के राज्य मे, पंडित त्रिवेगंडाचार्य थे। ये मूलतः तिरुपती के थे, लेकिन साधारण तीस वर्षों तक महाराष्ट्र मे ही रहे। उन्होने बाजीराव पेशवा के अनुरोध पर शतरंज की समर्पक जानकारी देने वाली ‘विलासमणी मंजिरी’ यह पुस्तक लिखी। यह पुस्तक संस्कृत मे है। बादमे यही पुस्तक, गणेश रंगो कुलकर्णी हल्देकरने प्रकाशित की। इस पुस्तक को मराठी के प्रख्यात साहित्यकार, साहित्याचार्य न. चिं. केळकर जी की प्रस्तावना है।
इस पुस्तक में पंडित त्रिवेगंडाचार्यजीने शतरंज इस खेल के बारे मे विस्तार से जानकारी और उसका इतिहास दिया हैं। मनुष्य के बुद्धिविकास मे इस खेल का महत्व भी विस्तार से लिखा है।
उन्नीसवी शताब्दी मे मराठी मे पुस्तकें प्रिंट होने लगी, प्रकाशित होने लगी। इसी क्रम मे अनेक पुस्तके शतरंज पर भी लिखी गई। जैसे –
- बुद्धिबळ खेळणारा चा मित्र – हरिश्चंद्र चंद्रोबा जोशी (वर्ष 1854)
- बुद्धिबळ क्रीडा – विनायक राजाराम टोपे (वर्ष 1892)
- बुद्धिबळाचे 1000 डाव – विष्णू सदाशिव राते (वर्ष 1893)
संक्षेप मे कहे तो, आज के युग मे बुद्धी के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ समझे जानेवाले शतरंज (चेस) इस खेल का जन्म भारत मे हुआ है, और यह भारत मे ही विकसित हुआ है। बुद्धी को चालना देने के लिए हमारे पुरखोंने इसका अत्यंत कुशलता से उपयोग किया। इसी खेल मे, भारत के डी. गुकेश ने विश्व शतरंज की चैंपियनशिप हासिल कर, अपना श्रेष्ठत्व सिद्ध किया हैं।
(आगामी ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग 2’ इस पुस्तक के अंश)
सांप सीढी
भारत मे ‘सांप सीढी’ और विश्व मे ‘स्नेक अँड लेडर्स’ इस नाम से प्रसिद्ध इस खेल की खोज भारत मे ही हुई है। इसका पहले का नाम ‘मोक्ष पट’ था. तेरहवी सदी मे संत ज्ञानेश्वर जी (वर्ष 1272 – वर्ष 1296) ने इस खेल का निर्माण किया।
ऐसा कहा जाता है की संत ज्ञानेश्वर और उनके बडे भाई संत निवृत्तीनाथ, भिक्षा मांगने के लिये जब जाते थे, तब घर मे उनके छोटे भाई सोपानदेव और बहन मुक्ताई के मनोरंजन के लिए, संत ज्ञानेश्वर जी ने यह खेल तैयार किया।
इस खेल के माध्यम से छोटे बच्चों पर अच्छे संस्कार होने चाहिए, उन्हे ‘क्या अच्छा, क्या बुरा’ यह अच्छी तरह से समझ मे आना चाहिए, यह इस मोक्षपट की कल्पना थी। सामान्य लोगों तक, सरल पध्दति से अध्यात्म की संकल्पना पहुंचे, इस हेतू से इस खेल की रचना की गई है।
साप यह दुर्गुणोंका और सीढी यह सद्गुणोंका प्रतीक माना गया। इन प्रतिकों के माध्यम से बच्चों पर संस्कार करने के लिए इस खेल का उपयोग किया जाता था।
प्रारंभ मे, मोक्षपट यह खेल 250 चौकोन के साथ खेला जाता था। बाद मे मोक्षपट का यह पट, 20×20 इंच के आकार मे आने लगा। इसमे पचास चौकोन थे। इस खेल के लिए 6 कौडीयां आवश्यक थी। यह खेल याने मनुष्य की जीवन यात्रा थी।
डेन्मार्क के प्रोफेसर जेकब ने ‘भारतीय संस्कृती परंपरा’ इस परियोजना के अंतर्गत मोक्षपट पर बहुत रिसर्च किया है। प्रोफेसर जेकब ने कोपनहेगन विश्वविद्यालय से ‘इंडोलॉजी’ इस विषय पर डॉक्टरेट की है। प्राचीन मोक्षपट इकठ्ठा करने के लिए उन्होने ने पूरे भारत का भ्रमण किया। अनेक मोक्षपट का उन्होने संग्रह किया। कुछ जगह पर इसी को ‘ज्ञानचोपड’ कहा जाता था। प्रोफेसर जेकब को प्रख्यात शोधकर्ता और मराठी साहित्यिक रा. चिं. ढेरे के पांडुलिपियों के संग्रह मे दो प्राचीन मोक्षपट मिले। इन मोक्षपट में 100 चौकोन थे। इसमे पहला घर जन्म का और अंतिम घर मोक्ष का होता था। इसमे 12 वा चौकोन यह विश्वास का या आस्था का होता था। 51वां घर विश्वसनीयता का, 57 वा शौर्य का, 76 वा ज्ञान का और 78वा चौकोन तपस्या का होता था। इनमे से किसी भी चौकोन मे पहुंचने वाले खिलाडी को सीढी मिलती थी, और वह खिलाडी उपर चढता था।
इसी प्रकार सांप जिस चौकोन मे रहते थे, वह चौकोन दुर्गुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। 44 वा चौकोन अहंकार का, 49 वा चौकोन चंचलता का, 58 वा चौकोन झूठ बोलने का, 84 वा चौकोन क्रोध के लिए और 99 वा चौकोन वासना का रहता था। इन चौकोनो मे जो खिलाडी आते थे, उनका पतन निश्चित था।
भारत में रामदासी मोक्षपट, वारकरी मोक्षपट, (ज्ञानेश्वर जी का मोक्षपट, गुलाबराव महाराज का मोक्षपट) आदी प्रचलित थे. रामदासी मोक्षपट मे 38 सीढीयां और 53 सांप थे। समर्थ रामदासजीने राम कथा को संस्कार रूप से बच्चों तक पहुंचाने के लिए इसका उपयोग किया।
1892 मे यह खेल इंग्लंड मे गया। वहां से युरोप में ‘स्नॅक अँड लेडर्स’ इस नाम से लोकप्रिय हुआ। अमेरिका मे यह खेल, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, वर्ष 1943 मे पहुंचा। वहां इसे ‘शूट अँड लैडर्स’ कहते है।
ताश
सामान्यतः यह माना जाता है की, दुनिया मे बडे पैमाने पर खेले जाने वाले पत्तों के (ताश / कार्ड) खेल का उद्गम, नवमी सदी मे चीन मे हुआ है। गुगल, विकिपीडिया सब जगह यही उत्तर मिलता है। लेकिन यह सच नही है। भारत में प्राचीन काल से पत्तों का खेल खेला जा रहा है। केवल इसका नाम अलग था. इसका नाम था ‘क्रीडापत्रम’..!
भारत मे जो मौखिक / वाचिक इतिहास चलता आ रहा है, उसके अनुसार साधारणतः देढ हजार वर्ष पूर्व, भारत मे राजे रजवाडो मे, उनके राज प्रासादोंमे ‘क्रीडापत्रम’ यह खेल खेला जाता था।
‘A Philomath’s Journal’ के 30 नवंबर 2015 के अंक मे एक लेख आया है – ‘Popular Games and Sports that Originated in Ancient India’। इस लंबे-चौड़े लेख मे ठोस रूप से यह बताया गया है कि, ‘क्रीडापत्रम’ इस नाम से पत्तों का खेल, भारत मे बहुत पहले से था। इस का अर्थ है, ‘भारत ही पत्तों के (ताश के) खेल का उद्गम देश है’।
मुगल कालीन इतिहासकार अबुल फजल ने इस खेल के संबंध में जो जानकारी लिखकर रखी है, उसके अनुसार पत्तों का यह खेल भारतीय ऋषीओंने बनाया है। उन्होने 12 यह आकडा रखा। हर पैक मे बारा पत्ते रहते थे। राजा और उसके 11 सहयोगी, ऐसे 12 सेट. अर्थात 144 पत्ते। लेकिन आगे चलकर मुगलो ने जब इस खेल को ‘गंजीफा’ के रूप मे स्वीकार किया, तब उन्होने 12 आंकडा तो वैसा ही रखा, लेकिन ऐसे 12 पत्तों के आठ सेट तैयार किये। अर्थात गंजीफा खेल के कुल पत्ते हुए 96।
मुगलों के पहले के जो ‘क्रीडापत्रम’ मिले है, वे अष्टदिशाओं के प्रतीक के रूप मे आठ सेटो मे थे। कही – कही 9 सेट थे, जो नवग्रहों का प्रतिनिधित्व करते थे। श्री विष्णू के दस अवतारों के प्रतीक के रूप मे 12 पत्तों के दस सेट भी खेल मे दिखते है। मुगल पूर्व काल के सबसे अधिक पत्तों के सेट, ओरिसा मे मिले है।
पहले के यह पत्ते गोल आकार मे रहते थे। राज दरबार के नामांकित चित्रकार उस पर नक्काशी करते थे। ये सब पत्ते हाथों से तैयार किये हुए, परंपरागत शैली मे होते थे।
शतरंज, लूडो, साप सीढी, पत्ते (ताश) यह सब बैठकर खेलने वाले खेल है. अंग्रेजी में इसे ‘बोर्ड गेम’ या ‘इनडोअर गेम’ कहा जाता है. विश्व में यह खेल सभी आयु के लोगों मे प्रिय है। हमारे लिए गर्व की बात है कि, ये सब खेल भारत ने दुनिया को दिये हैं..!
(आगामी ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग 2’ इस पुस्तक के अंश)
विविध क्षेत्रों में, विविध आयामों में कभी हम विश्व में सर्वश्रेष्ठ थे, इस पर अधिकतर भारतीयों का विश्वास ही नहीं हैं। यह हमारा दुर्भाग्य हैं।
खेलों के बारे में भी यही सोच है। विश्व का पहला और सबसे प्राचीन स्टेडियम भारत में हैं, यह हमने पिछले आलेख में देखा हैं। किंतु भारतीय खिलाड़ियों ने, खेलकूद संगठनों ने और सरकार ने भी, इस विषय पर जितना चाहिए, उतना ध्यान नहीं दिया हैं। लूडो, शतरंज (चेस), सांप-सिडी जैसे बैठकर खेलने वाले खेल, अर्थात ‘बोर्ड गेम’, यह भारत की, विश्व को दी हुई देन हैं। इस पर आज भी अनेक लोगों का विश्वास नहीं हैं।
जैसे बैठकर खेले जाने वाले खेलों का, वैसे ही मैदानी खेलों (अर्थात, आउटडोर गेम्स) का हाल है। *पांच हजार वर्ष पहले, दर्शक दीर्घा वाला स्टेडियम तैयार करने वाला अपना देश, मैदान में खेले जाने वाले खेलों में पीछे रह सकता हैं, यह संभव ही नहीं हैं।* मल्ल युद्ध (आज की भाषा में – कुश्ती), धनुर्विद्या (ओलंपिक में खेली जाने वाली आर्चरी यह प्रतियोगिता), भाला फेक, तलवारबाजी, नि:युद्ध, रथों की प्रतियोगिता, बैलगाड़ियों की दौड़, खो-खो, कबड्डी, गिल्ली-डंडा… यह सब, प्राचीन भारत में खेले जाने वाले खेल हैं। इनमें से अनेक खेल, आज भी खेले जाते हैं।
जैकी चैन, ब्रूस ली यह कलाकार हॉलीवुड की मूवीज के माध्यम से दुनिया में प्रसिद्ध हुए। उनके ‘कराटे किड’, ‘शांघाई नून’, ‘रश अवर’, ‘एंटर द ड्रैगन’ जैसी मूवीज बहुत हिट हुई। इन सब में जो आकर्षण था, वह था – मार्शल आर्ट। अर्थात, कुंग फू – कराटे, जिनका दोनों ने मूवीज में भरपूर उपयोग किया हैं। जैकी चैन और ब्रूस ली की मूवीज में, या ’36 चैंबर ऑफ शाओलिन’ जैसे पिक्चर में, जो मार्शल आर्ट दिखाया हैं, उसका जन्म भारत में हुआ हैं..!
जी हां, कराटे – कुंग फू जैसे मार्शल आर्ट की जननी अपना भारत देश हैं। चीनी और ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी यह लिखकर रखा हैं।
मार्शल आर्ट इस क्रीडा प्रकार का उल्लेख या जिक्र भारत में अनेक जगह, कलारीपयट्टू इस नाम से मिलता हैं। धनुर्वेद यह यजुर्वेद का एक उपवेद हैं। यह कम से कम, तीन हजार वर्ष पहले लिखा गया होगा, ऐसी मान्यता हैं। मूलत: यह धनुर्विद्या के संदर्भ का ग्रंथ हैं। किंतु इसमें मार्शल आर्ट का उल्लेख आता हैं। ‘कलारीपयट्टू’ जैसे क्रीडा प्रकार के संबंध में इसमें विस्तार से लिखा गया हैं।
दक्षिण भारत में जिसे ‘संगम साहित्य’ कहा जाता हैं, उसका कालखंड 2500 वर्ष पहले का हैं। इसमें ‘पुरम’ और ‘अकम’ नाम के काव्य प्रकार है। इन काव्य प्रकार में, ‘कलारीपयट्टू’ इस मार्शल आर्ट का कई बार उल्लेख आया हैं।
भारत के मार्शल आर्ट का नाम, ‘बोधिधर्म’ इस नाम के बिना पूर्ण नहीं हैं। पांचवीं शताब्दी के यह बौद्ध भिक्षु थे। लेकिन बौद्ध भिक्षु होने से पहले, वे दक्षिण के पराक्रमी, पल्लव राजवंश के युवराज थे।
आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व, कोरोना जैसी ही महामारी चीन में फैली थी।इसका असर प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष रूप से भारत पर भी होने लगा था। उस महामारी को रोकने के लिए, चीन के सम्राट के अनुरोध पर, बोधिधर्म के गुरु ने उन्हे चीन जाने के लिए कहा। बोधिधर्म उनके आयुर्वैदिक ज्ञान के लिए और कलारीपयट्टू जैसे मार्शल आर्ट के लिए जाने जाते थे। बौद्ध धर्म अहिंसा का संदेश देने वाला धर्म हैं। लेकिन सतत प्रवास करने वाले बौद्ध भिक्षुओं के संरक्षण के लिए, कलारीपयट्टू जैसे क्रीडा प्रकार सिखाए जाते थे।
चीनी ग्र॔थों के अनुसार, वर्ष 528 में, बोधिधर्म चीन में पहुंचे। वह चीन के सम्राट ‘वू ऑफ लियांग’ (Wu of Liang अर्थात, Xiao Yan) से मिले। चीन की उस भयंकर महामारी को काबू करने में बोधिधर्म के आयुर्वैदिक ज्ञान का उपयोग हुआ। वह शाओलिन के आश्रम में रहने लगे। वहां के बौद्ध भिक्षुओं को उन्होंने कलारीपयट्टू यह स्वत: की रक्षा करने वाला खेल सिखाया। आगे चलकर यही खेल, ‘कुंग फू’ और ‘कराटे’ नामों से विश्व में प्रसिद्ध हुआ। बोधिधर्म को चीन में ‘दामो’ (Damo) और ‘बू ताओ’ इन नाम से जाना जाता हैं।
बोधिधर्म के चीन में रहने का अनेक चीनी ग्रंथों में उल्लेख आता है। ‘7 Aum Arivu’ नाम के तमिल पिक्चर में (हिंदी में इसकी बॉलीवुड छाप नकल – ‘चेन्नई वर्सेस चाइना’) में बोधिधर्म का जीवन पट विस्तार से दिखाया हैं।
रथों की प्रतियोगिता
जैसे कुंग फू / कराटे का जन्म भारत में हुआ हैं, वैसे ही रथों की प्रतियोगिता का उद्गम भी भारत में ही हुआ हैं। किंतू, वैश्विक स्तर पर इसे मान्यता नहीं हैं। ‘ग्रीस (यूनान) ही रथों का, और रथों की प्रतियोगिता का, उद्गम वाला देश हैं’, ऐसा माना जाता हैं। ओलिंपिक का ग्रीस में हुआ प्रारंभ तथा वर्ष 1959 में रिलीज हुई ‘बेनहर ‘ यह मूवी, इन सब के कारण ‘ग्रीस ही रथों की प्रतियोगिता करने वाला पहला देश हैं’ या मान्यता दृढ हुई। इसलिए विकिपीडिया, एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका जैसे जानकारी के स्रोत, पूर्णतया ग्रीस की जानकारी से भरे पड़े हैं। इनमें कहीं भी भारत नहीं हैं। दो हजार वर्ष पहले भारत में रथ थे, या रथ बहुत दूर की बात, कम से कम घोड़े थे, इस पर भी विश्व के इतिहासकार विश्वास रखने तैयार नहीं थे।
लेकिन दो जबरदस्त प्रमाणों ने पश्चिम के इतिहासकारों के इस विमर्श (Narrative) को ध्वस्त कर दिया। वर्ष 1957 में जब पद्मश्री हरिभाऊ वाकणकर जी ने भोपाल के पास स्थित भीमबेटका गुफाओं को खोजा, तब ‘सिकंदर (अलेक्झांडर) भारत मे आने तक भारत में घोड़े भी नहीं थे’ यह मान्यता रद्द हुई। इन गुफाओं में अनेक शैल चित्र अर्थात भित्ति चित्र (दीवारों पर उकेरे गए चित्र) मिले। कार्बन डेटिंग में इन शैल चित्रों की आयु, तीस हजार से पैंतीस हजार वर्ष पहले की हैं, यह सिद्ध हुआ हैं। और मजेदार बात यह, कि उन गुफाओं में घोडों के शैल चित्र हैं..!
अर्थात, इस बात से स्पष्ट होता है कि भारत में साधारणतः तीस – पैंतीस हजार वर्ष पूर्व, घोड़ों का उपयोग होता था।
रथों का उपयोग भारत में प्राचीन काल से होता आया हैं। रामायण, महाभारत में इसके अनेक उदाहरण स्पष्ट रूप से मिलते हैं। परंतु दुर्भाग्य से रामायण, महाभारत को पश्चिम के इतिहासकार, इतिहास ही नहीं मानते। इसलिए अपने पुराणों के उदाहरण उनको स्वीकार्य नहीं हैं। अर्थात, भारत पर ग्रीकों (युनानीयों) का आक्रमण होने के पहले भी, भारत में रथों का उपयोग होता रहा हैं, इस बात को दुनिया के इतिहासकार स्वीकार नहीं करते थे।
लेकिन एक अकाट्य प्रमाण के कारण यह मिथक भी ध्वस्त हुआ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बागपत जिला हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के कारण यह जिला प्रसिद्ध है। इस जिले के बड़ौत तहसील के सिनौली ग्राम में कुछ वर्ष पहले पुरातत्व विभाग की ओर से उत्खनन हुआ। डॉक्टर संजय कुमार मंजुल के नेतृत्व में, कोरोना से पहले, वर्ष 2018 में यह उत्खनन प्रारंभ हुआ।
इस उत्खनन में एक तांबे का रथ मिला। कार्बन डेटिंग के बाद यह सिद्ध हुआ कि यह रथ ईसा पूर्व 1800 से 2000 वर्ष पुराना हैं। अर्थात आज से 3800 से 4000 वर्ष पहले का यह तांबे का रथ हैं। इसका अर्थ हैं, ग्रीक (युनानी) भारत में आने के बहुत पहले से भारत में रथों का और घोड़ों का उपयोग होता रहा है, यह निर्णायक रूप से सिद्ध हुआ।
ऋग्वेद के दसवें मंडल के 101 वे सूक्त के सातवें मंत्र में उल्लेख है –
_प्री॒णी॒ताश्वा॑न्हि॒तं ज॑याथ स्वस्ति॒वाहं॒ रथ॒मित्कृ॑णुध्वम् ।_ _द्रोणा॑हावमव॒तमश्म॑चक्र॒मंस॑त्रकोशं सिञ्चता नृ॒पाण॑म् ॥_
अर्थात, इस प्रकार घास आदि की उत्पत्ति हो जाने पर घोड़े आदि को तृप्त करो। हित अन्न को प्राप्त करो। इस प्रकार घास अन्न से समृद्ध होते हुए, कल्याणवाहक रथ को अवश्य बनाओ। काष्ठमय जलपात्रवाले, घूमते हुए चक्र से युक्त कुएँ को गति करते हुए यन्त्रों के रक्षक गुप्त घर को बनाओ। कृषकजनों की रक्षा जिससे हो, ऐसे खेत को सींचो-प्रवृद्ध करो ॥७॥
मजेदार बात यह है, कि दुनिया का सबसे पुराना, घोड़े के प्रशिक्षण का जो हस्तलिखित मैन्युअल मिला हैं, वह तुर्किस्तान और सीरिया के बॉर्डर पर बसे हुए गांव में। इसमें जिस भाषा का प्रयोग किया गया हैं, उसमें अंकों की जानकारी संस्कृत में हैं!
भारतीय साहित्य में ‘रथी / महारथी’ इन शब्दों का प्रयोग वर्षों से होता आ रहा हैं। यह रथों से ही संबंधित हैं। इसा पूर्व कालखंड में, (अर्थात इसा पूर्व 492 – 460) मगध देश के राजा अजातशत्रु ने ‘रथ मुसल’ का उपयोग किया, ऐसा उल्लेख मिलता हैं।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में उस समय के ‘घोड़ों की प्रतियोगिता के मैदान’ (रेस कोर्स) का उल्लेख मिलता हैं। उस समय रेस कोर्स को ‘काष्ठा कहते थे।
_हन्तो॒ नु किमा॑ससे प्रथ॒मं नो॒ रथं॑ कृधि । उ॒प॒मं वा॑ज॒यु श्रव॑: ॥_
_अवा॑ नो वाज॒युं रथं॑ सु॒करं॑ ते॒ किमित्परि॑ । अ॒स्मान्त्सु जि॒ग्युष॑स्कृधि ॥_
अर्थात, ईश्वर हम लोगों के रथ को विजयी और हमको विजेता बनावे ॥६॥
_मा सी॑मव॒द्य आ भा॑गु॒र्वी काष्ठा॑ हि॒तं धन॑म् । अ॒पावृ॑क्ता अर॒त्नय॑: ॥_
(ऋग्वेद 8 / 80 / 8. अथर्ववेद 2 / 14 / 6)। घोड़ों की रेस जीत कर जो पुरस्कार मिलता था उसे ‘कारा’ और ‘भारा’ कहते थे। ऋग्वेद में ही मुद्गल ऋषि से संबंधित सूक्त हैं। उसमें भी रथों की प्रतियोगिताओं का उल्लेख हैं।
कुल मिलाकर रथों की प्रतियोगिता का उद्गम भारत में ही हुआ हैं। बाद में अन्य विविध माध्यमों से यह खेल, मेसोपोटेमिया, ग्रीस, रोम तक पहुंचा यह स्पष्ट होता हैं।
– प्रशांत पोळ