आज से तीन साल पहले इन्हीं दिनों ऐसी घटना हुई थी, जो किसी के लिए क्षोभ का विषय थी, किसी के लिए शोक का तो हिन्दुओं और भारत के लिए एक नए विमर्श का! ईसाई मीडिया ने इस मुद्दे को उठाया था और भारत के कथित पिछड़ेपन पर प्रश्न उठाए थे। भारत को ऐसा देश बता दिया था जहां पर कोई मिशनरी नहीं जा सकती। पहले तो चाऊ की पहचान केवल एक ईसाई पर्यटक की बताई थी और बाद में राज खुला था कि वह मिशनरी था। भारत में जहाँ एनडीटीवी जैसे चैनल उसे एक सामान्य अमेरिकी पर्यटक बता रहे थे, वहीं विदेशों में उसकी प्रशंसा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में हो रही थी जो जीसस का सन्देश देने के लिए इतनी खतरनाक जगह गया है।
परन्तु ऐसा क्या था कि अंडमान और निकोबार के उस द्वीप में जो चाऊ वहां पर गया, और एक बार नहीं बार बार गया! अन्तिम बार वाटरप्रूफ बाइबिल लेकर गया। और उसने अंतिम सन्देश में लिखा था Lord, is this island Satan’s last stronghold where none have heard or even had the chance to hear your name?” अर्थात वह उस द्वीप के लोगों को शैतान का आख़िरी गढ़ समझता था क्या? इस हत्या के उपरान्त हर स्थान पर मिली जुली प्रतिक्रिया थी। भारत का एक बड़ा वर्ग था जिसने उन आदिवासियों को दोषी ठहराया, जिन्होनें चाऊ की हत्या की थी, तो कुछ लोगों ने स्थानीय प्रशासन की आलोचना की थी। परन्तु दोष क्या था और किसका था, यह किसी ने नहीं जाना था और न ही जानने का प्रयास किया था।
आज जब इस घटना को तीन वर्ष हो गए हैं, तो आइये इस परिप्रेक्ष्य में कुछ चर्चा करते हैं। यह तो देखना ही होगा कि वाकई में दोषी कौन था? क्या वाकई में स्थानीय प्रशासन या आदिवासी इस दुखद घटना के लिए उत्तरदायी था? या फिर वह रिलीजियस साम्राज्यवादी सनक कि हर किसी को इस धरती पर ईसाई ही होना चाहिए! हर किसी को बाइबिल पढने वाला होना चाहिए? हर किसी की रिलीजियस पहचान बाइबिल वाली होनी चाहिए? ऐसा क्या था, जो चाऊ उस द्वीप तक रिश्वत देकर गया था, जिस पर सरकार की ओर से जाना मना है! जहाँ की नैसर्गिक पहचान बनाए रखने के लिए, भारत सरकार ने बाहरी किसी भी व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा रखी है!
मीडिया ने पहले तो उसकी मृत्यु पर रहस्य बनाया, और फिर बाद में उसका शव मिला तो उन बेचारे भोले भाले आदिवासियों को ही दोषी ठहराने लगे, जो अपने क्षेत्र में किसी को भी प्रवेश नहीं करने देते हैं। इस घटना में यदि कोई दोषी था तो वह थी रिलिजन की विस्तारवादी भावना। ईसाई पंथ का वह विश्वास जिसमें उनके रिलिजन के अतिरिक्त हर कोई शैतान है, जिस तरह इस्लाम में उनके मज़हब के अलावा सभी काफ़िर हैं और हर काफिर को इस्लाम के झंडे तले लाने के लिए कभी आईएसआईएस तो कभी कुछ और संगठन अपना सिर उठाकर पूरी धरती को इस्लाम के रंग में रंगना चाहते हैं, उसी तरह ईसाई रिलिजन के लोग भी ईसा के रिलिजन के तले सबको लाना चाहते हैं। फिर चाहे उस स्थान या उन लोगों की अपनी पहचान ही नष्ट क्यों न हो जाए। बस किसी तरह से हम उन्हें अपने मज़हब में ले आएं, बस किसी तरह से हम उन्हें अपने रिलिजन का हिस्सा बना लें।
हे लार्ड, शैतान का यह टापू आखिर आपकी शिक्षाओं से अछूता क्यों है? अफ्रीका की कई प्रजातियों की पहचान नष्ट करने के बाद, पूरे पूर्वोत्तर की पहचान नष्ट करने के बाद, पूरे विश्व को अपने विस्तारवादी रिलिजन के कारण एक बार नहीं कई बार परेशानियों में डालने के बाद भी ईसाई मिशनरी अपने रिलिजन के विस्तार में दिलो जान से लगी रहती हैं। प्रश्न यह उठता है कि भोले भाले आदिवासियों को शैतान कहने का अधिकार उस ईसाई रिलिजन के प्रचारक को किसने दिया? आखिर दया का एक मोल क्यों होता है? और क्यों होना चाहिए? क्या जो लोग उस रिलिजन का हिस्सा नहीं है वह सब शैतान हैं? यदि नहीं तो उन आदिवासियों को शैतान कहकर पूरी की पूरी पहचान को अपमानित करने का अधिकार ईसाइयों को आखिर किसने दे दिया?
पर एक किताब वाले मजहबियों और रिलिजन वालों को यह अधिकार उनकी किताब देती है कि वह कहीं भी जाकर अपनी किताब के अनुसार लोगों को अपने रिलिजन या मजहब में लाएं। उनके लिए उनकी किताब के अतिरिक्त हर कोई फाल्स गॉड या बुत है और बुत तोड़ना एवं फाल्स गॉड की पूजा रुकवाना उनका सबसे पाक और पायस काम है। उनके लिए आदिवासियों की कोई भी भावना महत्वपूर्ण नहीं है।
अंडमान के उस द्वीप पर सेंटिनल प्रजाती के लोग अपनी शर्तों पर बाहरी दुनिया से संपर्क रखते भी हैं। वह यहाँ पर लगभग पचास से साठ हज़ार सालों से रह रहे हैं। एक दो बार कुछ लोगों ने यहाँ जाने का प्रयास किया तो उन्हें भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इतिहास में भी उल्लेख प्राप्त होता है कि यहाँ आने वालों की हत्या इन लोगों ने कर दी थी। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि वह समुदाय अपनी विशेष पहचान, अपनी दुर्लभ पहचान के साथ जीना चाहता है तो ईसाई मिशनरी को क्या समस्या है कि वह अपने गोस्पल को बिना यूरोपीय संदर्भों के उन भोलेभालों को समझाए। चाऊ चाहता था कि वह कुछ आदिवासियों को, जिनका प्रभाव हो, ईसाई बनाना चाहता था, और फिर चाहता था कि उस द्वीप पर “देसी चर्च” की स्थापना हो।
जरा सोचिये, जिस द्वीप पर भारत की ओर से जाने के लिए प्रतिबन्ध है, उस द्वीप के विषय में चाऊ अध्ययन कर रहा है, जो द्वीप भारतवासियों के लिए दुर्लभ है, वहां के मूल लोगों को ईसाई कैसे बनाया जाए, उसके विषय में चाऊ सपना लेकर चल रहा है कि वह शैतान के अंतिम गढ़ में रहने वाले सेंटिनलीज को ईसाई बनाएगा!
पर वह शैतान का गढ़ किसे कह रहा था? शैतान कौन है?
शैतान है भारत! शैतान है हिन्दू! शैतान है हिन्दू पहचान! शैतान है हिन्दू देवी देवता! ऐसा ही चाऊ का मानना होगा। नहीं तो उसने शैतान किसे कहा? शैतान का अंतिम गढ़! यह उनकी पहचान से घृणा थी, जो चाऊ को यहाँ लाई और एक बार फिर से विश्व को भारत को बदनाम करने का अवसर मिला था।
भारत में दो मछुआरों की ह्त्या के उपरान्त सरकार ने आदिवासियों की सभ्यता को बचाए रखने के लिए यह कड़ा नियम बनाया कि कोई भी बाहरी व्यक्ति यहाँ नहीं जाएगा। परन्तु कथित रूप से सभ्य बनाने और अपने रिलिजन के अतिरिक्त किसी और रिलिजन को पवित्र न समझने की सनक ने न केवल चाऊ को सरकार के द्वारा बनाए गए नियम तोड़ने के लिए प्रेरित किया बल्कि उसमें इस हद तक जूनून था कि उसे अपनी जान जाने का कोई गम भी नहीं था। अपने रिलिजन का प्रचार करने का भूत इस हद तक चाऊ पर सवार था कि उसने हर नियम और कायदे को तोडकर और रिश्वत देकर उस द्वीप पर जाने का फैसला किया। उसने रिश्वत भी दी थी।
पर वह इस बात को नहीं समझ सका को उन्हें जीसस के द्वारा पवित्र जल नहीं चाहिए, उन्हें उनका ही जल चाहिए, उन्हें उनकी पहचान चाहिए, उन्हें उनकी निजता चाहिए। हर पुस्तक मेले में फ्री में बाइबिल बांटने वाले प्रचारक शायद शहर और आदिवासियों का फर्क नहीं कर सके। जबरन हाथ में बाइबिल थमाने से आपके रिलिजन का प्रचार नहीं हो रहा है, इसे समझिये। और इसे अब समझना बहुत आवश्यक है कि सभी को उनकी अपनी पहचान के साथ जीने दीजिये, और भोले भाले आदिवासियों को शैतान का कोना न कहें।
परन्तु ऐसा होगा नहीं, ईसाई मिशनरी शैतान के गढ़ को जीतने के लिए हर प्रकार के धतकर्म कर रही हैं!